शनिवार, 27 सितंबर 2025

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि...आत्मा क्या है?

 नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक: |

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत: || 2.23||


न एनम् छिन्दन्ति शस्त्राणि... इस आत्मा में शस्त्र छेद नहीं कर सकते या काट नहीं सकते। 

न एनम् दहति पावकः ... इसको आग जला नहीं सकती है।

न च एनम् क्लेदयंति आप: ... ...इसे जल गला नहीं सकता है। 

न शोषयति मारुत: ... वायु इसे सुखा नहीं सकता है। 


आत्मा की विशेषता बताते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस आत्मा को शस्त्र काट या छेद नहीं सकता।इसको अग्नि जला नहीं सकती, जल इसे गला नहीं सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकता। 

अर्जुन को यह चिंता है कि सगे संबंधियों और वीरों की हत्या का निमित्त बनकर मैं पाप का भागी क्यों बनूं? इस शंका का समाधान करते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि आत्मा शरीर से बहुत ऊपर की चीज है। शस्त्रों में वह सामर्थ्य नहीं है कि इसे काट या छेद सकें। शरीर जिन तत्वों से बना है उनकी ओर संकेत करते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे  आत्मा का कुछ बिगाड़ नहीं सकते।

शस्त्र पृथ्वी तत्व है,यह काट नहीं सकता।अग्नि तत्व इसे जला नहीं सकता,जल तत्व गला नहीं सकता और वायु तत्व सुखा नहीं सकता यानी पृथ्वी अग्नि, जल और वायु में वह सामर्थ्य नहीं है कि आत्मा को नष्ट कर सके।यहां आकाश का नाम नहीं लिया गया है क्योंकि ये चारों तत्व आकाश से ही उत्पन्न होते हैं पर वे अपने कारणभूत आकाश को किसी तरह की क्षति नहीं पहुंचा सकते।जब यह आकाश को ही कोई क्षति नहीं पहुंचा सकते तो अदृश्य आत्मा तक कैसे पहुंच सकते हैं? देह के कट जाने पर भी देही नहीं कटता, देह के जल जाने पर भी देही नहीं जलता, देह के गल जाने पर भी देही नहीं गलता। देह के मर जाने पर भी देही नहीं मरता,बल्कि इससे निर्लिप्त रहता है। अतः हे अर्जुन! इस संबंध में शोक करना तुम्हारी नासमझी है, अज्ञान है। भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को यह बताना चाहते हैं कि पृथ्वी,जल, अग्नि और वायु से भी बलशाली आत्मा तुम्हारे पास है।आत्मा की विलक्षणता को समझो।तुम आत्मा के स्तर पर सोच ही नहीं पा रहे हो, बस शारीरिक ढांचा देख रहे हो। शरीर का कटना, जलना, गलना और सूखना संभव है, किंतु आत्मा इन सबसे परे है।

मार्च का वित्तीय प्रदूषण

 

-रासबिहारी पाण्डेय

31 मार्च अजीब शै है । एक तरह से यह सरकारी कार्यालयों के लिए दीवाली का दिन है, जिस दिन वर्ष भर के तमाम

खाते बही,हिसाब-किताब रद्द कर नये बना लिये जाते हैं।भूल-चूक लेनी देनी और शुभ-लाभ लिखकर फिर से

शुरू होता है सारा हिसाब किताब। सब कुछ व्यापारियों की तरह होता है,गणेश 

लक्ष्मी की पूजा कर लड्डू का भोग भर नहीं लगाया जाता। 

सरकारी खाते में एक लाख हो या एक करोड़, इस दिन तक येन-केन प्रकारेण समाप्त करना ही है । अगर खाते में धनराशि बची हुई दिखा दी गई तो अगले वर्ष उतना पैसा कम करके ही

नया बजट मिलेगा।आगे से उस रकम से अधिक मांगने का मुँह भी न रहेगा, इसलिए अधिकारियों को बहुत दिमाग

दौड़ाना पड़ता है कि बजट को किस तरह समाप्त किया जाए ताकि

अपनी जेब भी गर्म हो जाए और कागजी घोड़े पर काम भी आगे

दौड़ जाए । डरपोक किस्म के अधिकारी जहां मार्च तक

अपना बजट बचा कर धीरे-धीरे खर्च करने में यकीन रखते हैं, वहीं दादा टाइप पैरवी पहुंच वाले अधिकारी मार्च से पहले ही डब्बा गोल कर देते हैं,

साथ ही अपनी पहुंच के कारण अगले सत्र में बजट बढ़ा लेने में भी सफल रहते हैं।लाख दिमाग खपाने पर भी यह समझ में नहीं आता कि यह

बाध्यता क्यों रखी गई है ? हां सीधे सीधे यह जरूर समझ में आता

है कि अगर नियम ऐसा नहीं होगा तो इन ऑफिसों में काम करने

वालों की ऊपरी आमदनी (जिसे पान-फूल, भेंट बख्शीश के नाम से

जाना जाता है) जरूर प्रभावित हो सकती है । 31 मार्च का ही

प्रताप है कि सारा लेन-देन बराबर हो जाता है । ऐसे कुछ ही विभाग हैं,

जहाँ पैसे मार्च के बाद भी बचे रह जाता है, लेकिन ऐसा

तभी होता है जब संस्थान में एक से अधिक असंतुष्ट पाए जाते हैं ।

ये असंतुष्ट लोग न तो स्वयं पैसे खाते हैं, न ही दूसरों को खाने देते हैं ।

 उन संस्थानों में भी पैसे बचे रह जाते हैं, जिनमें कुछ घाघ किस्म के अधिकारी होते हैं । ये अधिकारी मौका देखकर

सारा माल अकेले हड़पने के चक्कर में रहते हैं। अक्सर इन्हें मौका

मिल भी जाता है, लेकिन मौका नहीं मिलता तो रकम धरी की धरी

रह जाती है । उप और सहायक अधिकारी ताक झांक करते रह

जाते हैं । सर्वोच्च आंधकारी से भला कौन पंगा ले । अधिकाधिक

उप और सहायक तो

'इफ कीजिए न बट कीजिए,

जो साहब कहें उसे झट कीजिए'

फॉर्मूले के पक्षधर होते

हैं । बॉस को नाराज करके आफत कौन मोल ले।जैसे कुछ विद्यार्थी

वर्ष भर पढ़ाई से जी चुरा कर मनमानी कार्यों में लगे रहते हैं और परीक्षा

की तिथि आते ही "काकचेष्टा बकोध्यानम्" वाली स्थिति में आ जाते

हैं, मार्च में ठीक वही स्थिति सरकारी कर्मचारियों/अधिकारियों की

होती है । ज्यादा माथापच्ची तो क्लर्क, किरानी और टाइपिस्टों को ही करनी पड़ती है, लेकिन मुख्य अधिकारी को कार्यालय में

समय से आने जाने के साथ कार्यालय में पूरा समय देना पड़ता

है । उनके लिए यही सजा हो जाती है । समय से सोना, समय से

खाना और समय से कार्यालय आना... वह अधिकारी ही क्या, जो समय का

मोहताज हो जाए । समय तो अधिकारी का मोहताज हुआ करता है,

जब जो चाहा किया। नेताओं की तरह चुनाव वाला कोई मामला तो

है नहीं कि भविष्य की चिंता में घुलें। एक बार आ गए तो "साठा

तब पाठा" कहावत चरितार्थ करके ही घर लौटना है।मार्च महीने की एक और खासियत है । यह आयकर,

वृत्तिकर, जलकर,संपत्तिकर आदि जितने प्रकार के कर

हैं, उन्हें साथ लेकर आता है। आपको कुछ नहीं करना है,विभागवाले आपके एकाउंट से स्वयं सब हिसाब कर लेंगे ।

पूंजीपतियों का इनकमटैक्स भले ही लाखों में बकाया हो, आपका

टैक्स वसूलने में कोई कोताही नहीं होगी ।मार्च महीने का यह वित्तीय प्रदूषण देश की हवाओं में घुल रहे वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण आदि से कम खतरनाक नहीं है। इसकी निगरानी के लिए भी एक अलग विभाग बनाने की जरूरत है।


सब ते कठिन जाति अवमाना


रासबिहारी पाण्डेय



जद्यपि जग दारुण दुख नाना।

सब तें कठिन जाति अवमाना।।

यद्यपि दुनिया में और भी अनेक दुख है़ं, लेकिन जाति का अपमान सबसे बढ़कर है। यदि किसी की जाति को हीन बता कर उस पर तंज किया जाए तो इससे बड़ा अपमान कुछ और नहीं हो सकता। जातिगत अपमान सिर्फ दलितों और पिछड़ों का ही नहीं होता, सवर्णों का भी खूब होता है। लालू यादव ने मु्ख्यमंत्री रहते हुए एक समय बिहार में नारा दिया था- भूरा बाल काटो,यानी भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला (कायस्थ) को काटकर,इनका वर्चस्व खत्म करके इन्हें सत्ता से बेदखल करो।लालू अपने हर भाषण में एक जुमला उछालते थे- सीता को चुराने वाला रावण किस जाति का था? जनता कहती थी- ब्राह्मण।इस पर उनका जवाब होता था- ऐसी घटिया हरकत करने वाले ब्राह्मणों का बहिष्कार करो।

समाज में जातिवाद का जहर घोलकर लालू यादव 15 साल तक सत्ता पर काबिज रहे लेकिन आज सारा परिदृश्य साफ हो गया है।दलितोत्थान के नाम पर चरवाहा विद्यालय खोलकर चारा घोटाला करने वाले लालू यादव समय के साथ बेनकाब हो गए।अदालत ने उनकी जालसाजियों के एवज में दंडित करते हुए उनके चुनाव लड़ने तक पर रोक लगा रखी है।मायावती ने सवर्णों के लिए किन किन शब्दों का प्रयोग किया है,यह सबको पता है।


हाल ही में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने 

रविदास जयंती पर एक गैर जिम्मेदार वक्तव्य दिया - जातियां भगवान ने नहीं, पंडितों ने बनाई हैं। पंडितों से उनका तात्पर्य ब्राह्मणों से है।इस बात का कोई तथ्यात्मक आधार नहीं है।यह विशुद्ध झूठ है जो पिछड़ी जातियों की सहानुभूति और वोट प्राप्त करने के लिए बोला गया है।


'जाति पांति पूछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई।'संत कवियों ने राज दरबारों से दूर रहकर भी साहित्य और संगीत का एक समृद्ध जीवन जिया और दुनिया के सामने यह आदर्श प्रस्तुत किया कि सिर्फ धन और पद ही

प्राप्ति की वस्तु नहीं है। रैदास,वाल्मीकि और वेदव्यास तीनों पिछड़ी जातियों से आते हैं मगर गौर से सोचिए क्या इन्हें  इनकी जातियों की वजह से याद किया जाता है या उनके विचारों के लिए याद किया जाता है?आज तो जाति के आधार पर आरक्षण मिल रहा है।कितने ही सवर्णों ने आरक्षण का लाभ लेने के लिए अपनी जाति बदलने की कोशिश की है और पकड़े गए हैं।सही मायने में दुनिया में दो ही जातियां हैं- एक अमीर और एक गरीब। साहित्य,कला और राजनीति का एक ही लक्ष्य होना चाहिए अमीरी और गरीबी की इस खाईं को पाटने का काम करे, न कि उसे और गहरा करे। जो लोग जाति और धर्म के नाम पर समाज को बांटते हैं वे मानवता के दुश्मन हैं।समाज में पहले से ही जातिगत भेदभाव चरम पर है। मुसलमानों में शिया और सुन्नी का विवाद अक्सर कत्लेआम तक आ जाता है। हिंदू सवर्णों में इतना वर्ग भेद है कि गोत्र और कुरी के आधार पर एक दूसरे को नीचा दिखाया जाता है। दलितों ने भी अपने स्तर पर अपनी ऊंचाई नीचाई बांट रखी है। हिंदुस्तान और पाकिस्तान का बंटवारा जाति/ धर्म के आधार पर ही हुआ था। अगर यह आधार विकास करने में सक्षम होता तो पाकिस्तान बहुत विकसित देश होता लेकिन आज  विश्व में उसकी सबसे खराब हालत है।  दलितों का खैरख़्वाह बनने के लिए उनके हित में काम करने की जरूरत है ,उनके मानसिक अंधकार को दूर करने के लिए उन्हें शिक्षित करने की जरूरत है, समाज के मुख्यधारा में लाने के लिए नक्सलवाद से उबारने की जरूरत है। उन्हेंपंडितों के खिलाफ भड़का कर कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है। किसी शायर ने क्या खूब कहा है -

अगर बुरा न लगे एक मशवरा है मेरा 

तुम अगर मान लो तो अच्छा है 

सबको पहचानना जरूरी नहीं 

खुद को पहचान लो तो अच्छा है।

हर सियासी पार्टी को अपनी सीमाएँ जान लेनी चाहिए,जनता अब इतनी नादान नहीं रह गई कि ऐसे जुमलों से अपना मत बदल ले।किसी की छवि बनने और बिगड़ने में एक लंबा वक्त लगता है।

गंगा

 १

देवता देख रहे नभ से जब गोमुख से गंगा निकली हैं ।

जोड़ खड़े कर संत महात्मा क्या कहिए छवि कैसी भली है।

शंख बजाते हैं आगे भगीरथ गंगा जी पीछे से ऐसे ढ़ली हैं।

जैसे कि गौरी गणेश को लेकर गोमुख से बंगाल चली हैं। 

लंबी औ चौड़ी कई नदियाँ पर गंगा के नीर का सानी नहीं है।

जो गंगा तट वास करे उस जैसा कोई सन्मानी नहीं है।

पूर्ण मनोरथ हों सबके गंगा सम कोई भी दानी नहीं है।

कृष्ण स्वयं कहते यह गीता में गंगा हूँ मैं ही ये पानी नहीं है।

कल्मषनाशी है, जीवनदाता है, मोक्षप्रदाता है, गंगा का पानी!

उज्ज्वल अमृत धार बहे, तिहुँ लोक को तारता गंगा का पानी।

रोग औ शोक को दूर करें, जलरूप में औषधि गंगा का पानी

बासी न होता कभी तुलसीदल बासी न हो कभी गंगा का पानी।

गीता, गणेश, गायत्री गऊ और गंगा जी हैं पंचप्राण कहाये।

संस्कृति औ संस्कार सभी इन पाँचों में भारत के हैं समाये।

वेद समाये मनुस्मृति में और विष्णु में हैं सब देव समाये ।

शास्त्र समाये हुये सब गीता में गंगा में तीरथ सारे समाये।

पातक ध्वंस समस्त करे और लोक तथा परलोक सँवारे।

जीवन मृत्यु जुड़ी हुई दोनों से ऐसे जुड़े संस्कार हमारे।

भारतभूमि में हैं बसते हम साध यही मन की है हमारे ।

जन्म कहीं पर होवे भले पर आखिरी कर्म हो गंगा किनारे।

काव्य पे रीझ गये जिनके शिव जी उगना बने सेवक आई।

वे विद्यापति गंगा के भक्त थे भक्ति रही उनकी जग छाई।

अंत समय मुझे दर्शन दो कवि ने जब गंगा से टेर लगाई।

मीलों से धारा को मोड़ के गंगा जी पास स्वयं बहती चली आई।

- रासबिहारी पाण्डेय


अवसाद का आनंद-प्रसाद की सुचिंतित जीवनी

 

रासबिहारी पाण्डेय


रजा फ़ाउंडेशन और सेतु प्रकाशन के सह प्रकाशन में छपी सत्यदेव त्रिपाठी लिखित 'अवसाद का आनंद' सिर्फ जयशंकर प्रसाद की जीवनी नहीं बल्कि उनके व्यक्तित्व और वाड़्मय का एक समीक्षात्मक अध्ययन भी है।भाषा में तत्सम, तद्भव और देशज शब्दों की भरपूर रवानी है।प्रसंगों के अनुकूल लोकोक्तियों, सूक्तियों और मुहावरों का भी अच्छा खासा समावेश है। प्रसाद जी की यह जीवनी पुस्तक पाँच अध्यायों में विभक्त है। सभी अध्यायों के शीर्षक प्रसाद जी की कविता पंक्तियों से उद्धृत हैं और पूरी पृष्ठभूमि को व्यक्त करते है।पहला अध्याय है- 'तुम्हारा मुक्तामय उपहार' जिसमें प्रसाद जी की कुल परंपरा का विश्लेषण है।प्रसाद को पूर्वजों से क्या मिला और प्रसाद ने उस कुल को क्या दिया,इसकी पड़ताल की गई है। सातवीं शताब्दी में हर्ष के दरबार में उनके पूर्वज थे। तब से प्रसाद जी के काल तक की विस्तार से विवेचना है।दूसरे अध्याय 'बीती बातें कुछ मर्म कथा' में प्रसाद जी के साहित्य और जीवन के समानांतर विकास की चर्चा है। कई विधाओं को एक साथ उन्होंने कैसे साधा, इस पर विस्तृत बात की गई है।तीसरे अध्याय 'तरुण तपस्वी सा वह बैठा साधन करता सुर श्मशान' में प्रसाद जी के व्यक्तित्व को सोदाहरण पुष्ट किया गया है।  उनके जीवन की कतिपय घटनाओं के आलोक में उनके चरित्र को समझने की कोशिश की गई है। चौथे अध्याय 'उसकी स्मृति पाथेय बनी' में प्रसाद जी की कृति 'आँसू' की नायिका के साथ-साथ प्रसाद जी के जीवन में जितनी नायिकाएं आई हैं, उनकी विशद चर्चा है। नाचने गाने वालियों के मोहल्ले के पास दुकान होने के कारण  प्रसाद जी के बारे में जो भ्रांतियां फैलाई गई हैं, उनका तथ्यात्मक ढंग से निराकरण किया गया है।पांचवें अध्याय 'मृत्यु अरी चिर निद्रे तेरा अंक हिमानी सा शीतल'में प्रसाद जी की मृत्यु और बीमारी का मार्मिक वर्णन है। इस अध्याय में उनकी बीमारी साहित्यिक गुटबंदी और दाह संस्कार के बहाने दुनियादारी की अच्छी खासी पड़ताल है। एक विशेष परिशिष्ट प्रसाद जी की चयनित कविताओं और समकालीन रचनाकारों से पत्राचार का भी है।पुस्तक में प्रसाद के व्यक्तित्व कृतित्व के साथ-साथ जीवन के ढेर सारे उन पहलुओं की भी चर्चा की गई है जिससे अधिकांश हिंदी पाठक अनजान हैं।

 उनमें से कुछ घटनाओं का जिक्र करना समीचीन होगा।

 जयशंकर प्रसाद ने अपनी किसी भी पुस्तक की भूमिका किसी समकालीन या पूर्ववर्ती रचनाकार से नहीं लिखवाई और बहुत चिरौरी मिनती के बावजूद आजीवन स्वयं भी किसी अन्य कवि लेखक के पुस्तक की भूमिका नहीं लिखी। वे कवि सम्मेलनों में जाने से कतराते थे। गोष्ठियों में भी जब तक उनके आत्मीय लोग नहीं होते थे, वे कविता पाठ से बचते थे। प्रेमचंद द्वारा निकाली गई पत्रिका हंस का नामकरण उन्होंने ही किया था।

प्रसाद जी प्रतिदिन श्रीमद्भगवद्गीता के संपूर्ण पाठ के बाद ही अन्न जल ग्रहण करते थे।

शिवरात्रि के दिन वे पूरी आस्था के साथ व्रत रखते हुए शिव पूजा में समय व्यतीत करते।गले में बड़े मनकों वाले रुद्राक्ष की माला पहने शिव स्तोत्र का पाठ करते हुए प्रसाद जी बड़े दिव्य और भव्य लगते।वे अपने हाथों से शिव का श्रृंगार करते,अभिषेक करते और मस्तक पर महाकाल का भस्म प्रसाद धारण करते। शिवालय से उनका लगाव इतना प्रगाढ़ था कि कामायनी का आमुख और कुछ अन्य छंद वहीं बैठ कर लिखे गए। प्रसाद जी को नगर में या गंगा तट पर देखकर काशी निवासी हर हर महादेव का उद्घोष करते। यह सम्मान काशी में एकमात्र काशी नरेश को ही प्राप्त था।क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद को अंग्रेजों से बचाने के लिए उन्होंने कुछ समय तक अपने काली महल के मकान के भूगर्भ में रहने की ब्यवस्था की और उनकी सेवा में संतू नाम का एक नौकर भी रखा था।

स्वयं अपनी कविताओं की व्याख्या उन्होंने कभी नहीं की,कभी कोई छात्र उनसे इस निमित्त मिला भी तो उन्होंने बहुत विनम्रता से यह कह दिया कि पता नहीं किस भाव दशा में मैंने ये पंक्तियां लिखी थीं, अब उसको बता पाना असंभव है, इसलिए बेहतर होगा कि तुम अपने अध्यापक से ही इसे समझो। एक बार महावीर प्रसाद द्विवेदी ने कविता के बारे में प्रसाद जी को लंबा उपदेश दिया, यह बात उन्हें खल गई और उन्होंने महावीर प्रसाद द्विवेदी के संपादन में निकलने वाली पत्रिका सरस्वती में कभी रचनाएं नहीं भेजी।हालांकि महावीर प्रसाद द्विवेदी से उनका मिलना जुलना पूर्ववत् रहा।कामायनी का लज्जा सर्ग सुनकर द्विवेदी जी की आँखें भर आई थीं।

पहलवानी और वर्जिश प्रसाद जी का शौक था।वेअखाड़े में प्रतिदिन हजारों दंड बैठक करते और दही,दूध,घी वाली अच्छी खुराक लेते।

प्रसाद जी को मात्र ४७ वर्ष की अल्पायु मिली, लेकिन इसी अल्पायु में पारंपरिक व्यवसाय को सम्हालते हुए उन्होंने विपुल साहित्य सृजन किया।

पुस्तक में प्रसाद जी के जीवन को क्रमवार समझने के लिए दो-तीन पेज की संक्षिप्त जीवनवृत्त

की कमी खटकती है।


शिव तांडव स्तोत्र(हिंदी अनुवाद)


जटा के वन से गिर रहे गंग धार से पवित्र 

कंठ में लटक रहे भुजंग हार हैं विचित्र 

डमड् डमड् डमड् निनाद मंडित प्रचंड रूप 

में किया जिन्होंने नृत्य तांडव अजब अनूप।


दयालु हों कृपालु हों कराल महाकाल शिव!

जटा कड़ाह वेगवती देवनदी की तरंग 

लहराती शीश पर चंचल लता सी गंग 

चमक रहा ललाट जैसे अग्नि  प्रज्वलित

जिनके शीश है किशोर चंद्रमा विराजित


उनमें नित नवीन मेरा राग अनुराग हो...


दयालु हों कृपालु हों कराल महाकाल शिव!


गिरिजा आभूषण से दस दिशा प्रकाशित 

जिनका मन देख देख हो रहा है पुलकि

कृपा दृष्टि से जिनकी मिटती दारुण विपत्ति 

वे शिव कब करेंगे मेरा मन आनंदित!

दयालु हों कृपालु हों कराल महाकाल शिव!


जटा भुजंग फण के मणि पिंगल प्रकाशमान 

दिशा देवियों के मुख कुंकुम करें प्रदान 

मदमस्त गज चर्म धारण से स्निग्ध वर्ण अद्भुत छवि भूतनाथ को है मेरा प्रणाम।

दयालु हों कृपालु हों कराल महाकाल शिव!

इंद्रादि देव चरणों में शीश जब नवाएं 

पुष्प रज से धूमिल हों शिव की पादुकाएं 

शेषनाग हार से बंधी हुई जटा वाले 

शशिशेखर चिर संपत्ति दें यही मनाएं।


भाल वेदी अग्नि से भस्म किया काम को 

झुकते हैं इंद्र नित्य ही जिन्हें प्रणाम को

महादेव शिव हमको अक्षय संपत्ति दें

सुधा कांति चंद्र संग धारें मुंडमाल को

दयालु हों कृपालु हों कराल महाकाल शिव!

काम को हवन किया कराल भाल ज्वाल में 

गिरिजा कुच अग्रभाग चित्रकृति काल में 

एकमात्र चित्रकार हैं जो इतने निपुण

नित नवीन रति मेरी बढ़े महाकाल में

दयालु हों कृपालु हों कराल महाकाल शिव!


कंठ जिनका है नवीन मेघ से घिरा हुआ अमावस के अंधकार सी है जिसमें श्यामता 

गज चर्म पहनें जो शीश धारें चंद्रमा

गंगाधर शिव दें मुझको अपार संपदा।

दयालु हों कृपालु हों कराल महाकाल शिव!


प्रफुल्ल नील कमल श्याम प्रभा भूषित 

कंठ देश की शोभा अद्वितीय अद्भुत अंधक गजासुर यमराज औ त्रिपुर के 

जो हैं संहारक शिव हों हमसे प्रमुदित।

दयालु हों कृपालु हों कराल महाकाल शिव!

१०

पार्वती कला कदंब मंजरी रस के मधुप 

मकरंद माधुरी पी रहे सहज स्वरूप 

कामदेव अंधक त्रिपुर गजासुर हंता

दक्षयज्ञ नाशक, यम के यम हैं शिव अनूप।

दयालु हों कृपालु हों कराल महाकाल शिव!


११


माथे पर वेगपूर्ण सर्प की फुंकार से 

भाल अग्नि फैल रही विकराल ज्वार में

धिमि धिमि मृदंग घोष पर करें जो तांडव 

मेरा अनुराग बढ़े शिव महाकाल में


१२

तृण हो या तरुणी, सेज हो या शिला 

रत्न हो या मिट्टी , सर्प हो या मुक्ता 

प्रजा या महीप, मित्र शत्रु को विचारे बिन 

सबको समान मान शिव को कब भजूंगा मैं..

दयालु हों कृपालु हों कराल महाकाल शिव!


१३

गंगा तट के निकुंज में निवास करते हुए

त्याग कर बुरे विचार भालचंद्र भजते हुए 

कर जोड़े शीश पर डबडबायी आंखों से 

कब सुखी बनूंगा मैं शिव मंत्र जपते हुए।


१४

पाठ स्मरण वर्णन नित्य यह जो करता है 

शुद्ध सदा रहता शिव भक्ति प्राप्त करता है 

मनुज की विपत्ति हरे सद्गति मिले उसे 

शिव चिंतन माया और मोह नष्ट करता है...

- रासबिहारी पाण्डेय


कि तख्ते दिल्ली पे बैठा मिला फकीर कोई.

 नहीं इतिहास में ऐसी मिली नज़ीर कोई

कि तख्ते दिल्ली पे बैठा मिला फकीर कोई.


श्याम बाहों में भरें खुद ही लिपट जाते हैं 

देख लेते हैं अगर मीरा सा अधीर कोई.


गालियाँ दे रहा हो फिर भी लोग पाँव छुये

हुआ वो एक ही न दूसरा कबीर कोई.


अना का मोल बता देते हैं हम ही वर्ना

खरीद सकता नहीं कितना भी अमीर कोई.


कि जिस हिसाब से रीढ़ें निकल रही हैं यहाँ

किसी के पास बचेगा नहीं जमीर कोई.


रासबिहारी पाण्डेय


सफोकेसन

  निठल्ले घूम रहे युवकों के लिए सुरेंद्र सुकुमार की यह कविता अवश्य पढ़नी चाहिए....


" सफोकेशन " 

बात थोड़ी पुरानी है

प्यार की कहानी है

कड़कड़ाती ठंड की

शाम थी

हवा जवान थी

हमें कवि सम्मेलन में

जाना था

वहाँ काव्यपाठ 

जमाना था

रेल वहीं से चलती थी

समय काफ़ी था

पूरा डिब्बा खाली था

सो रेल के डिब्बे में

खिड़की के सहारे 

बैठ गए

सर्दी में ऐंठ गए

ठंड से दाँत 

किटकिटाने लगे

हमें रजाई गद्दे बहुत

याद आने लगे

हमने अटैची में से 

शाल निकाला 

तो चौंक गए

जल्दवाजी पत्नी का

कामदार शॉल ले आए थे

उस दिन हम

बहुत शरमाए थे 

मरता क्या न करता 

उसी शॉल से 

अपने आप को मुंह तक 

लपेट लिया

बस हमारे 

लंबे घुँघराले बाल 

हवा के लहरा रहे थे

बहुत इठला रहे थे

तभी अचानक 

एक लड़का 

हमारे डिब्बे में आया

हमें अकेला देख कर

बहुत मुस्कुराया

हमारे सामने वाली

सीट पर बैठ कर

फिल्मी पत्रिका 

पढ़ने लगा 

और पत्रिका की 

आड़ से हमें देखने लगा

तब हमारी 

समझ में आया कि

बरखुरदार लेडीज 

शॉल में भटक गए हैं

हमारे घुँघराले 

बालों में अटक गए हैं

फिर उसने परिचय 

करने के लिए

बातचीत शुरू की

आज बहुत सर्दी है

हवा जवान हो गई है

मौसम हसीन है

बहुत ही रंगीन है

अकेली जा रही हैं क्या ?

हमने स्वीकार में सर 

हिलाया

उसे बहुत मज़ा आया 

हमने भी मज़ा 

लेने के लिए उसकी 

गलतफहमी को बनाए 

रखने के लिए

 और अपनी आँखों से

नशीले अंदाज़ से उसे देखा 

शरीर हल्का सा

खिसकाया

वो हमसे पत्रिका 

पढ़ने की ज़िद करने लगा

लीजिए लीजिए

पढ़िए बहुत अच्छी 

लवस्टोरी है

माधुरी दीक्षित 

के दिल की चोरी है

हमने नकारात्मक 

अंदाज़ में सर हिलाया 

उसे थोड़ा गुस्सा आया 

फिर उसने 

पत्रिका को अपने 

आँखों सामने कर लिया

और हमारे सामने 

एक कामुक सा 

सीन कर दिया

हमारा दिल घबराने लगा 

वो अपने 

सीधे पैर का 

पँजा धीरे धीरे

हमारे पँजे की ओर

बढ़ाने लगा

देखते देखते उसका

पँजा हमारे पँजे के

ऊपर आ गया

हमारा कलेजा मुंह

तक आ गया

फिर उसने धीरे से

अपने पँजे का 

दवाब हमारे पँजे पर 

बढाया

हमने भी अपना 

पंजा धीरे से ऊपर

उठाया 

अब तो वो कल्पना में 

बहने लगा

हमें अपने पास 

बैठने को कहने लगा 

और पत्रिका पढ़ने 

की ज़िद करने लगा

अब तो हम सचमुच ही 

डर गए

खाली डिब्बा 

रात का सन्नटा 

बंद खिड़की 

बंद दरवाजा

हमने सोचा थोड़ी देर 

अगर हम यूँही चुप

बैठे रहे तो आज

हमारा सबकुछ लुट

जाएगा और कोई

जान भी नहीं पाएगा

हमने झटपट 

अपने चेहरे से 

शॉल हटाया 

और अपनी मूँछों पर

हाथ फिराया

ज्यादा ज़िद करते हो

तो लाओ पड़ लेते हैं

आपकी बात भी रख

लेते हैं

अब तो वो बहुत घबराया

आसमान से 

जमीन पर आया

सर्दी में पसीने आने लगे 

पैर थरथराने लगे

यहाँ बहुत सफोकेशन है

यहाँ बहुत सफोकेशन है

कह कर जाने के लिए 

जैसे ही ब्रीफकेस थामा

तभी हमने उसका 

हाथ थामा 

हमने कहा

अभी तो बहुत कम 

सफोकेशन है

जब डिग्रियों से भरा 

ब्रीफकेस लेकर 

नेताओं अधकारियों 

और दलालों के पास 

जाओगे 

अपने अंदर बहुत 

सफोकेशन पाओगे 

इसलिए ये 

लवस्टोरी भूल जाओ

और पढ़ाई मन लगाओ


😊😊😊😊  सुरेन्द्र सुकुमार

शुक्रवार, 26 सितंबर 2025

बिहार चुनाव और महाठगबंधन




 कंस की मृत्यु के पश्चात उसका ससुर जरासन्ध बहुत ही क्रोधित था,

उसने कृष्ण व बलराम को मारने हेतु मथुरा पर 17 बार आक्रमण किया!


प्रत्येक पराजय के बाद वह अपने विचारों का समर्थंन करने वाले तमाम राजाओं से सम्पर्क करता और उनसे महागठबंधन बनाता और मथुरा पर हमला करता था


और श्री कृष्ण पूरी सेना को मार देते,मात्र जरासन्ध को ही छोड़ देते...

यह सब देख श्री बलराम जी बहुत क्रोधित हुये और श्री कृष्णजी से कहा... 

बार-बार जरासन्ध हारने के बाद पृथ्वी के कोनों कोनों से दुष्टों के साथ महागठबंधन कर हम पर आक्रमण कर रहा है और तुम पूरी सेना को मार देते हो किन्तु असली खुराफात करने वाले को ही छोड़ दे रहे हो...??


तब हंसते हुए श्री कृष्ण ने बलराम जी को समझाया...


हे भ्राताश्री मैं जरासन्ध को बार बार जानबूझकर इसलिए छोड़ दे रहा हूँ कि ये जरासन्ध पूरी पृथ्वी के दुष्टों को खोजकर उनके साथ महागठबंधन करता है और मेरे पास लाता है और मैं बहुत ही आसानी से एक ही जगह रहकर धरती के सभी दुष्टों को मार दे रहा हूँ नहीं तो मुझे इन दुष्टों को मारने के लिए पूरी पृथ्वी का चक्कर लगाना पड़ता, 

और

बिल में से खोज-खोज कर निकाल निकाल कर मारना पड़ता और बहुत कष्ट झेलना पड़ता। 

"दुष्टदलन" का मेरा यह कार्य जरासन्धने बहुत आसान कर दिया है:"...

" जब सभी दुष्टों को मार लूंगा तो सबसे आखिरी में इसे भी खत्म कर ही दूंगा "आप चिन्ता न करे भ्राताश्री...👌🏻


इस कथा को बिहार चुनाव के महाठगबंधन से जोड़कर देखना है या नहीं यह आप पर निर्भर है । हमने तो आपको एक महाभारत की सत्य कथा बताई है ।

बुधवार, 10 सितंबर 2025

फल की चिंता मत करो...गीता में ऐसा नहीं लिखी

 कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि || 47||


कर्मणि एव अधिकार:ते = तुम्हारा सिर्फ  कर्म करने में हीअधिकार है ; 

मा फलेषु कदाचन- उसके फलों में कभी नहीं,

मा कर्मफलहेतु: भू: - कर्म के फलों का हेतु मत हो ,

मा भू: ते सड़्गो अस्तु अकर्मणि - कर्म न करने में भी तेरी आसक्ति न हो।


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्म करने में ही तेरा अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिये तू कर्मों के फल का हेतु मत हो और तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो ।


श्रीमद्भगवद्गीता के नाम पर दुनिया भर में सबसे अधिक यही श्लोक उद्धृत किया जाता है। भले ही कोई पूरे श्लोक को उद्धृत न कर पाए या इसका पूरा अर्थ न बता पाए लेकिन इतना तो सुना ही देगा- कर्मण्येवाधिकारस्ते ....कर्म करो,फल की चिंता मत करो।

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि कर्मण्येवाधिकारस्ते यानी सिर्फ कर्म में ही तुम्हारा अधिकार है। यहां कर्मणि एकवचन में है,अगर कहना होता कि कर्मों में ही तुम्हारा अधिकार है तो कहते कर्मसु एव अधिकार: ....इससे ज्ञात होता है कि भगवान श्रीकृष्ण एक समय में किसी एक ही कार्य को संपादित करने के बारे में कह रहे हैं यानी एकहि साधे सब सधे, सब साधे सब जाय।एक कर्म के अनेक फल हो सकते हैं-जैसे कोई छात्र अच्छी शिक्षा ग्रहण करता है तो वह एक  सभ्य नागरिक बनता है, समाज में सम्मान पाता है, अच्छी नौकरी मिलती है, अच्छा घर पाता है,अच्छे परिवार में उसका विवाह होता है, लेकिन अगर कोई छात्र पहले से ही इन सारे 

फलों के बारे में 

सोच कर पढ़ाई कर रहा हो तो अपेक्षित परीक्षा फल नहीं आने पर  वह अत्यंत दुखी हो जाएगा। कुछ छात्र इसी अवसाद में आत्महत्या तक कर लेते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण इसी फल की इच्छा का निषेध करते हैं।श्लोक के दूसरे चरण में वे तीन वाक्य कहते हैं -

मा फलेषु कदाचन ...

मा कर्म फल हेतु:भू:  ....

मा ते सड़्ग:अस्तु अकर्मणि..

यहां मा का अर्थ माँ नहीं मत है...


मा फलेषु कदाचन ...फलों को प्राप्त करने में तेरा अधिकार कभी नहीं है.

84 लाख योनियों में सिर्फ मनुष्य ही ऐसा है जो कर्म कर सकता है। पशु पक्षी पेड़ पौधे या अन्य जीव-जंतु कार्य करने में असमर्थ हैं, अन्य सभी योनियां भोग के लिए हैं। वे पूर्व जन्म के कर्मों के फल का भोग मात्र करते हैं, नया कर्म नहीं कर सकते,किंतु मनुष्य योनि में हर व्यक्ति अपने स्वभाव के अनुसार कोई न कोई कार्य करता है। शिक्षक पढाता है,सैनिक लड़ता है,किसान खेती करता है...इसी तरह भिन्न भिन्न लोग भिन्न भिन्न कार्य करते हैं।

मान लीजिए यदि शिक्षक यह सोचने लगे कि मेरे विद्यार्थी उत्तीर्ण होंगे कि नहीं...सैनिक यह सोचने लगे कि हम युद्ध जीतेंगे कि नहीं...किसान यह सोचने लगे कि क्या पता बरसात होगी कि नहीं...यदि वे इस द्वंद्व में पड़ जाएंगे तो अपना कार्य उचित ढंग से नहीं कर पाएंगे क्योंकि फल में उनका कभी अधिकार है ही नहीं।वे फल के बारे में नहीं सोचते इसीलिए अच्छा कर्म कर पाते हैं।

मा कर्म फल हेतु:भू: का तात्पर्य है कि कर्मफल का हेतु मत बनो... यानी यह मत मानो कि किसी कार्य के संपन्न होने का कारण मैं हूं... अगर तुम यह मानोगे कि मेरी वजह से ही यह कर्म हुआ है तो भी कभी तुम्हें अवसाद का सामना करना पड़ सकता है क्योंकि संसार में कभी-कभी ऐसा भी होता है कि किसी दूसरे के कार्य का श्रेय कोई दूसरा ले लेता है या ऐसा भी होता है कि कार्य करने वाले को उसका श्रेय दिया ही नहीं जाता।ऐसे में स्वयं को कर्म फल का हेतु समझकर नाहक दुखी होगे।

मा ते सड़्ग:अस्तु अकर्मणि...अर्थात् अपना कर्म करने से तुम्हें विमुख भी नहीं होना है क्योंकि स्वभाव और परिस्थिति के अनुसार जिसका जो कर्म है उससे उसे मुख नहीं मोड़ना चाहिए।

जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए कर्म करना आवश्यक है। भगवान अर्जुन को यह समझा रहे हैं कि तुम जो यह सोच रहे हो कि युद्ध करने पर ऐसा ऐसा हो जाएगा,यह ठीक नहीं है। तुम्हारा कर्म सिर्फ युद्ध करना है ,उसके फल के बारे में सोचना नहीं है। तुम यह भी मत सोचो कि तुम इसके हेतु हो और युद्ध करोगे ही नहीं, ऐसा भी नहीं हो सकता क्योंकि क्षत्रिय होने के नाते अन्याय के प्रति लड़ना तुम्हारा कर्म और धर्म दोनों है?


सोमवार, 8 सितंबर 2025

अक्षय तृतीया से जुड़ी कथायें

 अक्षय तृतीया से जुड़ी कथायें


रासबिहारी पाण्डेय


वैशाख मास में शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को अक्षय तृतीया के रूप में मनाया जाता है। ज्योतिषीय गणना के अनुसार सूर्य और चंद्रमा इस दिन उच्च फलदायक राशि में रहते हैं।इस तिथि से इतने पौराणिक संयोग जुटे हैं कि इसे स्वयं सिद्ध मुहूर्त मान लिया गया है, इसीलिए इस दिन लोग जीवन के विविध मांगलिक कार्यों का शुभारंभ करते हैं।विवाह, गृह प्रवेश,उपनयन संस्कार, सोने चांदी के आभूषण एवं वाहनों की खरीद तथा नए व्यापार की शुरुआत के लिए यह दिन अत्यंत शुभ माना गया है। इस दिन दान पुण्य का भी विशेष महत्व है। इस दिन को किए गए पुण्य कर्म व्यक्ति को अगले जन्म में कई गुना अधिक होकर मिलते हैं।यही नहीं यदि इस दिन कोई बुरा कार्य किया जाता है तो उसका भी कई गुना अधिक बुरा फल मिलता है और उसे नर्क में जाकर भोगना पड़ता है।

अक्षय शब्द का अर्थ होता है- न समाप्त होने वाला अर्थात् जिस तिथि में किए गए पुण्य कर्मों का फल कभी समाप्त न हो।अक्षय तृतीया उसी तिथि का नाम है। इस तिथि से कई कथाएं जुड़ी हुई हैं। आज ही के दिन भगवान विष्णु के छठे अवतार परशुराम जी की जयंती मनाई जाती है। शास्त्रों के अनुसार आज ही महर्षि वेदव्यास ने  महाभारत लिखना प्रारंभ किया और लेखन सहायक के रूप में मंगलमूर्ति गणेश को साथ रखा। इसी दिन द्रौपदी को अक्षय पात्र की प्राप्ति हुई थी। पांडवों के वनवास की अवधि में द्रोपदी को मिले इस पात्र की विशेषता यह थी कि जब तक द्रौपदी स्वयं नहीं खा लेती थी, इस पात्र से कितने भी लोगों को खिलाया जा सकता था। निर्धन सुदामा का द्वारकाधीश कृष्ण से मिलने और कृष्ण द्वारा दो लोकों की संपत्ति देने की कथा भी इसी तिथि से जुड़ी है।बंगाल में इस दिन व्यापारी अपने नए बही खाते की शुरुआत करते हैं।पंजाब के किसान इस दिन ब्रह्म मुहूर्त में खेतों पर जाते हैं और रास्ते में मिलने वाले पशु पक्षियों के मिलने पर आगामी मौसम को शुभ शगुन मानते हैं।   वैशाख मास में शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को अक्षय तृतीया के रूप में मनाया जाता है। ज्योतिषीय गणना के अनुसार सूर्य और चंद्रमा इस दिन उच्च फलदायक राशि में रहते हैं।इस तिथि से इतने पौराणिक संयोग जुटे हैं कि इसे स्वयं सिद्ध मुहूर्त मान लिया गया है, इसीलिए इस दिन लोग जीवन के विविध मांगलिक कार्यों का शुभारंभ करते हैं।विवाह, गृह प्रवेश,उपनयन संस्कार, सोने चांदी के आभूषण एवं वाहनों की खरीद तथा नए व्यापार की शुरुआत के लिए यह दिन अत्यंत शुभ माना गया है। इस दिन दान पुण्य का भी विशेष महत्व है। इस दिन को किए गए पुण्य कर्म व्यक्ति को अगले जन्म में कई गुना अधिक होकर मिलते हैं।यही नहीं यदि इस दिन कोई बुरा कार्य किया जाता है तो उसका भी कई गुना अधिक बुरा फल मिलता है और उसे नर्क में जाकर भोगना पड़ता है।

अक्षय शब्द का अर्थ होता है- न समाप्त होने वाला अर्थात् जिस तिथि में किए गए पुण्य कर्मों का फल कभी समाप्त न हो।अक्षय तृतीया उसी तिथि का नाम है। इस तिथि से कई कथाएं जुड़ी हुई हैं। आज ही के दिन भगवान विष्णु के छठे अवतार परशुराम जी की जयंती मनाई जाती है। शास्त्रों के अनुसार आज ही महर्षि वेदव्यास ने  महाभारत लिखना प्रारंभ किया और लेखन सहायक के रूप में मंगलमूर्ति गणेश को साथ रखा। इसी दिन द्रौपदी को अक्षय पात्र की प्राप्ति हुई थी। पांडवों के वनवास की अवधि में द्रोपदी को मिले इस पात्र की विशेषता यह थी कि जब तक द्रौपदी स्वयं नहीं खा लेती थी, इस पात्र से कितने भी लोगों को खिलाया जा सकता था। निर्धन सुदामा का द्वारकाधीश कृष्ण से मिलने और कृष्ण द्वारा दो लोकों की संपत्ति देने की कथा भी इसी तिथि से जुड़ी है।बंगाल में इस दिन व्यापारी अपने नए बही खाते की शुरुआत करते हैं।पंजाब के किसान इस दिन ब्रह्म मुहूर्त में खेतों पर जाते हैं और रास्ते में मिलने वाले पशु पक्षियों के मिलने पर आगामी मौसम को शुभ शगुन मानते हैं। इस दिन उड़ीसा के जगन्नाथपुरी में रथयात्रा भी निकाली जाती है। जैन धर्मावलंबी इस तिथि को अपने चौबीस तीर्थंकरों में से एक ऋषभदेव से जोड़कर देखते हैं। ऋषभदेव ने सांसारिक मोह माया त्याग कर अपने पुत्रों के बीच अपनी सारी संपत्ति बांट दी और संन्यस्त हो गए। बाद में वे सिद्ध संत आदिनाथ के रूप में जाने गए। इस दिन भगवान विष्णु और महालक्ष्मी की विशेष पूजा अर्चना की जाती है ,आज पूजन में उन्हें चावल चढ़ाने का विशेष महत्व है। अक्षय तृतीया को विवाह के लिए सबसे शुभ मुहूर्त माना जाता है। इस दिन हुए विवाहों में स्त्री पुरुष में प्रेम बना रहता है और संबंध विच्छेद/ तलाक आदि की स्थिति नहीं बनती। इसी दिन से त्रेता युग की शुरुआत भी मानी जाती है।

अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनं द्वयं।

परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनं।

अठारह पुराणों में महर्षि वेदव्यास ने निकष के रूप में दो ही बातें कही हैं- किसी पर उपकार करने से पुण्य मिलता है और किसी को कष्ट देने से पाप मिलता है।गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में यही बात कही है- 

परहित सरिस धर्म नहिं भाई।

परपीड़ा सम नहिं अधमाई।।

हमारे सभी पर्व त्यौहारों में प्रकारांतर से परोपकार और परहित की बात ही कही गई है।मनुष्य जीवन की सार्थकता इसी में है कि हम देश और समाज के  काम आ सकें।सिर्फ अपने लिए जिया तो क्या जिया!

जिसका कभी नाश नहीं होता है या जो स्थाई है, वही अक्षय कहलाता है। स्थाई वही रह सकता है, जो सर्वदा सत्य है। सत्य केवल परमपिता परमेश्वर ही हैं जो अक्षय, अखंड व सर्वव्यापक है। अक्षय तृतीया की तिथि ईश्वरीय तिथि है। इस बार यह तिथि 03 मई को है। अक्षय तृतीया का महात्म्य बताते हुए आचार्य पंडित धर्मेंद्रनाथ मिश्र ने कहा कि अक्षय तृतीया का दिन परशुरामजी का जन्मदिवस होने के कारण परशुराम तिथि भी कहलाती है। परशुराम जी की गिनती चिरंजीवी महात्माओं में की जाती है। इसलिए इस तिथि को चिरंजीवी तिथि भी कहते हैं।

आचार्य ने कहा कि भारतवर्ष धर्म-संस्कृति प्रधान देश है। खासकर हिंदू संस्कृति में व्रत और त्योहारों का विशेष महत्व है। क्योंकि व्रत एवं त्योहार नई प्रेरणा एवं स्फूर्ति का परिपोषण करते हैं। भारतीय मनीषियों द्वारा व्रत-पर्वों के आयोजन का उद्देश्य व्यक्ति एवं समाज को पथभ्रष्ट होने से बचाना है। आचार्य ने बताया कि अक्षय तृतीया तिथि को आखा तृतीया अथवा आखातीज भी कहते हैं। इसी तिथि को चारों धामों में से एक धाम भगवान बद्रीनारायण के पट खुलते हैं। साथ ही अक्षय तृतीया तिथि को ही वृंदावन में श्री बिहारी जी के चरणों के दर्शन वर्ष में एक बार होते हैं। इस दिन देश के कोने-कोने से श्रद्धालु बिहारी जी के चरण दर्शन के लिए वृंदावन पहुंचते हैं।

उन्होंने बताया कि भारतीय लोकमानस सदैव से ऋतु पर्व मनाता आ रहा है। अक्षय तृतीया का पर्व बसंत और ग्रीष्म के संधिकाल का महोत्सव है। इस तिथि में गंगा स्नान, पितरों का तिल व जल से तर्पण और पिंडदान भी पूर्ण विश्वास से किया जाता है जिसका फल भी अक्षय होता है। इस तिथि की गणना युगादि तिथियों में होती है। क्योंकि सतयुग का कल्पभेद से त्रेतायुग का आरंभ इसी तिथि से हुआ है।



जरूरत है जावेद अख्तर जैसे प्रगतिशीलों की

जरूरत है  जावेद अख्तर जैसे प्रगतिशीलों की !

- रासबिहारी पाण्डेय


सन्1983 में भारतीय टीम पाकिस्तान टूर पर गई थी।सुनील गावस्कर एक डिनर पार्टी में  टीम के मैनेजर के साथ खड़े थे।जब नूरजहां आईं तो वे उन्हें पहचान नहीं सके, टीम मैनेजर ने परिचय कराते हुए कहा कि  ये गावस्कर हैं।नूरजहां ने पलट कर जवाब दिया मैं तो सिर्फ इमरान और जहीर अब्बास को जानती हूं,तब मैनेजर ने गावस्कर से कहा कि आप इन्हें (नूरजहां) तो जानते ही होंगे।गावस्कर ने भी अनमने ढंग से कह दिया- नहीं, मैं तो सिर्फ लता मंगेशकर को जानता हूं। तब बात बराबरी पर छूट गई थी लेकिन कुछ साल पहले डडडफैज फेस्टिवल में जाकर जावेद अख्तर ने आम हिंदुस्तानियों के मन में घुमड़ रहीं वे सारी बातें कह दीं जो किसी बड़े मंच से नहीं कही जा पा रही थीं।

संक्षेप में जावेद अख्तर की बातें,उन्हीं की जुबान में-

हमारे यहां मेंहदी हसन आए, निहायत पॉपुलर थे भारत में। नूरजहां का बहुत एहतराम किया गया जब वे मुंबई आईं। क्या कहें कि किस तरह का फंक्शन हुआ था उनका वहां। कमेंट्री शबाना ने दी , लिखी मैंने थी... और वो हॉल जिस तरह से उन्हें रिसीव किया... लता मंगेशकर, आशा भोंसले इस तरह की ग्रेट सिंगर्स ने एहतराम किया उनका।

फैज साहब आए तो ऐसा लगता था कि किसी स्टेट का हेड आया हुआ है। आगे-पीछे गाड़ियां चल रही होती थीं सायरन देते हुए। वे आते थे तो गर्वनर हाउस में ठहरते थे। वहां का ऐसा कोई टेलीविजन नहीं था, जिसने उनका इंटरव्यू नहीं किया। मगर पीटीवी पे तो कोई हिन्दुस्तानी कलाकार जा ही नहीं सकता था।


साहिर का,कैफी का या सरदार जाफरी का इंटरव्यू किया है आपने पीटीवी पे?  हमारे यहां हुआ।  ये बंदिश है आपके यहां थोड़ी ज्यादा है। 


हमने नुसरत फतेह अली खान के बड़े-बड़े फंक्शन किए, मेंहदी हसन के बड़े-बड़े फंक्शन किए लेकिन पाकिस्तान  में लता मंगेशकर पर कोई फंक्शन नहीं हुआ,  हम एक दूसरे पर इल्जाम न दें, इससे मसला हल नहीं होगा। अहम बात यह है आजकल जो इतनी गरम है फिजा​​​​​​, वो कम होनी चाहिए।


मुंबई पर जो हमला हुआ था,वे लोग नॉर्वे से तो नहीं आए थे, न इजिप्ट से आए थे। वे लोग अब भी पाकिस्तान में ही घूम रहे हैं। 


जावेद अख्तर को कुछ हद तक वामपंथी संगठनों और मुस्लिम बुद्धिजीवियों का भी समर्थन प्राप्त है,इसलिए वे कभी कभी ऐसी बातें कर जाते हैं और इस्लामिक संगठन अपने घर का आदमी मानकर चुपचाप सुन भी लेते हैं।लेकिन ऐसी कोई बात पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ या मनोज मुंतशिर जैसे लोग कर देते हैं तो उन्हें सांप्रदायिक बता दिया जाता है।

 भारत पाकिस्तान का बँटवारा धर्म के आधार पर ही हुआ था।हिंदुस्तानी मुसलमानों को यह छूट मिली थी कि वे चाहें तो रहें या जाएं लेकिन पाकिस्तानी हिंदुओं के नसीब में ऐसा नहीं था। लाखों लोगों को मजबूरन पाकिस्तान छोड़ने के लिए विवश किया गया। वे रिफ्यूजी बनकर शरणार्थी कैंपों में रहे और जैसे-तैसे जिंदगी का सामना किया।अरब देशों के पासपोर्ट पर साफ साफ लिखा होता है- यह मुस्लिम राष्ट्र है।संयोग से भारत अब तक धर्मनिरपेक्ष देश है। सभी धर्म के लोगों को यहां समान अधिकार प्राप्त है। पाकिस्तान 

हमारे इस तहजीब से जलता है और समय समय पर बहाने बहाने से इस देश को आतंकवाद के सहारे अस्थिर करने की कोशिश में लगा रहता है मगर भारत जैसे विशाल देश को तबाह करने की उसकी हर कोशिश बेकार चली जाती है।भारत चाँद तारे छूने में लगा है और पाकिस्तान अपनी खराब अर्थब्यवस्था के कारण विश्व के सामने भिखारी की मुद्रा में खड़ा है।जरूरत है जावेद अख्तर जैसे और प्रगतिशील शख्सियतों की जो मुसलमानों के मन में बैठे जाले को साफ  कर सकें। 


सांप्रदायिकता के नाम पर भारत में अच्छी खासी सियासत चल रही है।मोह मत

सियासी पार्टियों ने इसी खासियत को वोट का आधार बना लिया।जाति और धर्म के नाम पर लोगों के मन में भेद पैदा कर राजनीतिक रोटियां सेंकने लग गए। यह प्रेरणा भी उन्हें प्राचीन भारत के इतिहास से मिली। भारत सांप्रदायिक संकीर्णता का शिकार बहुत पहले से था,तभी तो मुगल,पठान,हूण,शक,यूनानी,पुर्तगाली और अंग्रेज भारत में आए और घृणा और विद्वेष का जहर बोकर हमें अलग करके राज करते रहे। मुस्लिमों में हिंदू कट्टरता का खौफ पैदा कर उनका सुरक्षा कवच बता कर खुद को मसीहा साबित करके उनका आका बनने की कोशिश में कई दल लगे हैं। उधर हिंदुओं में मुस्लिमों का खौफ पैदा करके हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण का काम भी जारी है। हर चुनाव में सांप्रदायिक तनाव प्रायोजित तौर पर बढ़ा दिया जाता है। इसके लिए बाकायदा मेहनत की जाती है।


मेरी यादों में माहेश्वर तिवारी

 धूप में जब भी जले हैं पांव घर की याद आई ...


रासबिहारी पाण्डेय 

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गीतिकाव्य के शिखर पुरुष और नवगीत आंदोलन के पुरोधा गीतकार माहेश्वर तिवारी नवगीत दशक, नवगीत अर्द्धशती, यात्रा में साथ-साथ, गीतायन,स्वांत:सुखाय, पाँच जोड़ बांसुरी जैसे चर्चित संकलनों की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। हरसिंगार कोई तो हो, नदी का अकेलापन,फूल आए हैं कनेरों में, नींद में चुपचाप कविताएं, सागर मुद्राओं पर तर्जनी आदि काव्य संकलन उनकी रचनात्मकता के निकष हैं।


कहते हैं कि वट वृक्ष के नीचे कोई पौधा नहीं पनपता लेकिन वह गीत के ऐसे वटवृक्ष थे जिनकी छांव में हम जैसे अनेक रचनाकार पल्लवित पुष्पित हुए। मैं उन सौभाग्यशाली कवियों में हूं जिसे उनका निकट सान्निध्य पाने और संपर्क में रहने का सुखद सौभाग्य प्राप्त हुआ। मुंबई से उनका बड़ा आत्मीय रिश्ता था। यहां उनके ससुराल पक्ष के लोग रहते थे,  इस नाते भी और साहित्यिक आयोजनों के लिए भी लगभग हर वर्ष उनका आना होता था।मुंबई की कई संस्थाओं ने उन्हें विशेष रूप से सम्मानित किया।

 जब मुंबई में उन्हें परिवार पुरस्कार से सम्मानित किया गया तब मैंने उनका एक लंबा साक्षात्कार किया था।वह साक्षात्कार कई अखबारों सहित मेरी साक्षात्कार पुस्तक 'चेहरे' में भी शामिल है।जब मैंने उनसे पूछा कि आपकी रचना प्रक्रिया क्या होती है तो उनका जवाब था कि मैं अधिक से अधिक और नया से नया पढ़ने की कोशिश करता हूं।बच्चन जी के अनुसार १०० पंक्ति पढ़ने के बाद एक पंक्ति लिखने की बात सोचता हूं, यह जरूरी नहीं कि लिखूं ही। गीत खास कर एक बैठक में ही लिख लेता हूं।लिखकर रख देता हूं,जब कोई दूसरी नई रचना हो जाती है तो पुनः उसे देखता हूं, अच्छा लगता है और जरूरत समझ में आती है तो कुछ और संशोधन कर लेता हूं, अन्यथा छोड़ देता हूं। मात्र दो या तीन अंतरों के गीत लिखने के बारे में उनका कहना था कि गीत एक ऐसी प्रक्रिया है जो बहुत लंबी नहीं हो सकती।पुराने लोकगीतों में टेक ही मूल होता है।चूँकि चौपाल में देर तक बैठना होता है इसलिए कुछ और पंक्तियां जोड़ ली जाती हैं। गजलों में भी सैकड़ों शेर कहे जाते हैं लेकिन ५-७शेर ही गाए जाते हैं।

माहेश्वर जी के गीतों में जीवंतता भरी हुई है।पंक्तियां सुनते ही दिल में उतर जाती हैं।

नवगीतकार कहलाने के लिए ऐसे अनेक प्रयत्नज कवियों की भीड़ इकट्ठी हो गई जो प्रयोग के पीछे कुछ ज्यादे ही पड़ गए , लिहाजा गीत में लय बचा न उसमें सहजता और संप्रेषणीयता बची।माहेश्वर जी ने अपने गीतों में नवता के साथ-साथ सहजता का भी पूरा ख्याल रखा, इसलिए उनके  गीत श्रोताओं के कंठहार बन गए।वे जब गाते थे - धूप में जब भी जले हैं पांव घर की याद आई ...तो अक्सर लोगों की आंखें गीली हो जाती थीं।

' एक तुम्हारा होना क्या से क्या कर जाता है बेजुबान छत दीवारों को घर कर जाता है' को फेसबुक पर अपने नाम से टीप कर कितने ही रचनाकार अपना वैवाहिक वर्षगांठ मनाते हैं, इससे बेखबर कि इन पंक्तियों का रचनाकार भी फेसबुक पर पूरी सक्रियता के साथ मौजूद है।फेसबुक पर गत ५ अप्रैल को उन्होंने एक कविता पोस्ट की थी-

कितनी सदियाँ गुज़र गयीं लेकिन 

सारी दुनिया सफ़र में है अब भी। 

    धूप में तप रहा है वर्षों से, 

    छाँव बूढ़े शजर में है अब भी। 

हमारा सफर कठिन न हो और हम अपनी मंजिल तक पहुंच सकें, इसके लिए माहेश्वर तिवारी जैसे गीत के वट वृक्ष की छांव में थोड़ी देर छँहाना और सुस्ताना जरूरी है।

                  

मेरी यादों में फिल्म लेखक हृदय लानी!

 जीवन से कला की तरफ बढ़ें,कला से जीवन की तरफ नहीं


रासबिहारी पाण्डेय



जब कोई अपना मरता है तो थोड़े-थोड़े हम भी मर जाते हैं।जो लोग हमारे दिलों के करीब होते हैं,उनसे हमें संजीवनी मिलती है। कथाकार/ संवाद लेखक हृदय लानी  की असमय मृत्यु से एक ऐसी ही रिक्ति आ गई है जिसका भविष्य में कोई विकल्प संभव नहीं है। विकल्प दुनियावी चीजों का ही हो सकता है; कवि,लेखक या कलाकार अपने आप में अद्वितीय होता है, उसकी भरपाई कोई और नहीं कर सकता।लानी जी ने न सिर्फ अग्निसाक्षी, यशवंत, प्रहार,आर या पार,हीरो हीरालाल,युगपुरुष, सरफरोश जैसी व्यावसायिक फिल्मों के लिए संवाद लिखे बल्कि गमन, मिर्च मसाला, सलीम लंगड़े पर मत रो,सलाम बॉम्बे और सरदार जैसी समानांतर फिल्मों के भी संवाद लिखे।इससे उनकी लेखन क्षमता का पता चलता है।सन1999 में सरफरोश फिल्म के लिए उन्हें अपने साथी लेखक पथिक वत्स के साथ  सर्वश्रेष्ठ संवाद लेखक का फिल्म फेयर पुरस्कार भी मिला।

वे एक अरसे तक मुंबई के मीरा रोड उपनगर में रहते रहे। एक बार उनके घर जाने का संयोग बना। एक पत्रिका के लिए उनसे साक्षात्कार करना था।तबसे उनसे दोस्ती हो गई थी। जब-तब फोन पर बातें होती रहीं।सामना में छपने वाले मेरे स्तंभ के वे नियमित पाठक थे। मेरे छेड़े हुए मुद्दों पर वे अपनी राय रखते थे, इसी बहाने हम संपर्क में बने रहते थे।बहुत पहले एक बार मैंने उनसे पूछा था कि आपका नाम इतनी बड़ी फिल्मों से जुड़ा है फिर भी आपको मीरा रोड में रहना  पड़ रहा है तो उन्होंने हंसते हुए कहा कि मेरा अपना फ्लैट तो मीरा रोड में भी नहीं है। यह भी किराए का घर है। थोड़े पैसे हुए तो मैंने कल्याण में एक फ्लैट ले लिया था । फिल्मी सिटिंग्स के लिए वहां से आना-जाना दूर पड़ता है,इसलिए इधर रहना मजबूरी है।इधर कुछ सालों से वे कल्याण में ही रहने लगे थे। निर्माता निर्देशकों से उनकी दो शिकायतें थी। पहली यह कि वे स्क्रिप्ट बहुत कम समय में चाहते हैं,दूसरी यह कि कम से कम पैसा देना चाहते हैं।यही लोग एक्टर्स को मुंह मांगी रकम अग्रिम तौर पर देने के लिए तैयार रहते हैं;यह जानते हुए भी कि अगर स्क्रिप्ट अच्छी नहीं होगी तो एक्टर कुछ नहीं कर पाएगा। लानी  जी की कहानियां हिंदी की कई साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं में भी छप चुकी थीं। मैंने उनसे पूछा कि आप इतने अच्छे कथाकार हैं लेकिन फिल्मों में सिर्फ संवाद ही लिखते हैं, अपनी कहानियां निर्माता निर्देशकों को क्यों नहीं सुनाते ? इसके जवाब में उन्होंन बताया कि हिंदी फिल्मों के निर्माता निर्देशक हिंदी प्रदेश की कहानियों पर फिल्में बनाने में कोई रुचि नहीं रखते।दूसरी सबसे आपत्तिजनक बात यह होती है कि कहानी सुनने का उनका तरीका बड़ा अजीब होता है। टिप्पणियांऔर विमर्श तो और भी आपत्तिजनक! चार बार फोन रिसीव करेंगे... बोलेंगे .....रुकिए जरा, फिर कहेंगे अब सुनाइए। शुरुआती दौर में दो-चार बार मैंने यह सब  झेला फिर  तौबा कर लिया ।अब सीधे बोल देता हूं कि आप कहानी सुनाइए या लिखित रूप से दीजिए; मैं उसकी पटकथा/ संवाद लिखूंगा। जिन लोगों को काम करवाना होता है, वही संपर्क करते हैं, टाइम पास करने वाले नहीं मिलते। उनको पता होता है कि लिखवाने के लिए एग्रीमेंट करना होगा, पैसे देने होंगे।

वे कहते थे कि लेखक हों या निर्देशक जो फिल्मों से फिल्में बनाना सीखते हैं,वे पिष्टपेषण ही करते हैं;कुछ नया नहीं कर पाते।जीवन से कला की तरफ बढ़ना चाहिए न कि कला से जीवन की तरफ।

आओ पेड़ लगायें

 

रासबिहारी पाण्डेय


आओ पेड़ लगाएं, आओ पेड़ बचाएं

मूल मंत्र हो यह जीवन का, सबको याद कराएं।


तापमान सारी धरती का हर दिन बढ़ता जाए 

झुलस रहा तन, झुलस रहा मन, जीवन झुलसा जाए 

पेड़ लगाकर हम इस धरती का ताप घटाएं ।


जहां अधिक हों पेड़ वहां मेघों को लेकर आते

वातावरण करें शीतल बारिश भी करवाते

वृक्षारोपण करें प्रकृति का असंतुलन मिटायें।


औषधियां मिलती हैं इनसे फूल और फल हैं मिलते

वायु प्रदूषण दूर करें और  प्राण वायु हैं देते

कितने उपयोगी हैं ये जन जन को हम समझाएं ।

      

बात करता हूं दिल की पेड़ों से 

फूल इजहारे इश्क करते हैं 

धूप से,बादलों, हवाओं से 

रंग जीवन में सारे भरते हैं 

इनसे ही जिंदगी संवरती है

इनसे ही कहकशां उभरते हैं

लोग कुछ ऐसे भी हैं दुनिया में 

कत्ल का कारोबार करते हैं। 

पेड़ हो आदमी या पशु पंछी 

एक ही बात दिल में रखते हैं

कितनी बाजार में कीमत इसकी 

इसको पाने में है लागत कितनी

जब से दुनिया है खेल जारी है

पर अदीबो की जिम्मेदारी है 

यह बताते रहें कि कुछ भी हो 

हुस्न और इश्क के बिना आखिर 

सारी दुनिया की सल्तनत क्या है

देखकर जिससे लोग कतरायें

ऐसे  इंसान की अज़्मत क्या हेै?










ज़ुल्म सहने से भी जालिम की मदद होती है!

 कुछ न कहने से भी छिन जाता है एजाज़-ए-सुख़न

ज़ुल्म सहने से भी ज़ालिम की मदद होती है- 

मुज़फ़्फ़र वारसी


आप मंचों से साहित्य के नाम पर चल रहे गोरखधंधा के विरोध में हैं लेकिन खुद किसी की नजर में नहीं आना चाहते।अगर कोई लिखता है तो कमेंट करते हैं न शेयर करते हैं। इतने बड़े देश में कैसे अपनी बात लोगों तक पहुंचाएंगें ?आप संयोजकों के सामने क्या विकल्प दे रहे हैं? कितने मजबूत कवि आपके पाले में हैं जो सचमुच सार्थक कविता से लोगों को विस्मित कर सकते हैं!आप अपनी पसंद के चार नाम तक लिखने में कोताही बरत रहे हैं। फिर उनका मुकाबला कैसे करेंगे जो संगठित होकर देश विदेश हर जगह काबिज हैं?सोशल मीडिया हैंडल करने के लिए हजारों फेक एकाउंट और इसे संचालित करने के लिए तनख्वाह देकर  ट्रेंड लोगों को बिठा रखा है;जो चाहे जब आपका एकाउंट हैक कर सकते हैं।

वर्षों से जो व्यक्ति सिर्फ अपनी जयकार करने वालों वाह बेटा, पढ़ो बेटा टाइप लोगों को ढ़ो रहा है,उसकी ओर तृषित नेत्रों से देख रहे हैं कि क्या पता हमें भी किसी दिन बुला ले और इस प्रत्याशा में मौन साधे हुये हैं, फिर किस तरह यह उम्मीद रखते हैं कि माहौल बदल जाएगा ? नयी पीढ़ी तो पूरी तरह दिग्भ्रमित हो गई है और इस लफ्फाजी को ही कविता मान बैठी है। यह भ्रम दूर हो ,इसके लिए आप क्या कर रहे हैं? अगर आप कुछ नहीं कर रहे हैं तो आपको शिकायत करने का भी कोई अधिकार नहीं है।आईने के सामने तो खड़े होते होंगे,अपना सामना कैसे करते हैं?




गुरुवार, 4 सितंबर 2025

तंबाकू विज्ञापन और अभिनेता


 - रासबिहारी पाण्डेय

गत दिनों अजय देवगन,शाहरुख खान और अक्षय कुमार को टीवी पर पान मसाला का विज्ञापन करने के लिए उच्च न्यायालय के लखनऊ खंडपीठ ने कारण बताओ नोटिस जारी किया था।तीनों अभिनेताओं का कद बहुत बड़ा है।अभिनेता के रूप में उन्होंने समाज पर अपनी गहरी छाप छोड़ी है।इन्हें

फिल्म फेयर, नेशनल अवार्ड और पद्मश्री जैसे उच्च सम्मानों से विभूषित किया गया है।ये अभिनय की दुनिया में अभी पूर्ण सक्रिय हैं और किसी तरह के अभाव से बिल्कुल नहीं गुजर रहे हैं। तंबाकू और पान मसाला स्वास्थ्य के लिए कितना हानिकारक है,कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी तक का जनक है,वे इससे भी पूर्ण परिचित हैं;बावजूद 30 सेकंड के विज्ञापन के एवज में मिलने वाले करोड़ों रुपए का लोभ नहीं छोड़ सके और अपने काम के बदौलत बनी अपनी छवि की परवाह किए बगैर अपने लाखों चाहने वालों को संदेश देने लगे कि हम इसी ब्रांड को पसंद करते हैं,आप भी सेवन कीजिए।

टीवी पर शराब और तंबाकू जैसे उत्पादों के विज्ञापन पर रोक है लेकिन इस ब्रांड के अन्य उत्पादों का विज्ञापन वैध है। कंपनियां बड़े अभिनेताओं को मुंहमांगी रकम देकर माउथ फ्रेशनर या इलायची के नाम से विज्ञापन करवा कर अपने हक में इस्तेमाल कर लेती हैं।जनता बखूबी इस बात को समझती है कि यह किस ब्रांड का विज्ञापन है।कुछ वर्ष पूर्व सुनील गावस्कर,वीरेंद्र सहवाग और कपिल देव जैसे दिग्गज क्रिकेटरों ने भी एक तंबाकू ब्रांड का विज्ञापन किया था जबकि सचिन तेंदुलकर ने ऐसे एक ब्रांड के विज्ञापन के एवज में 20 करोड़ राशि का प्रस्ताव ठुकरा दिया था। सचिन ने अपने पिता साहित्यकार रमेश तेंदुलकर को वचन दिया था कि वे तंबाकू का विज्ञापन कभी नहीं करेंगे।काश हर पिता अपने बेटे से यह वचन लेता!


भारत में पान मसाले और तंबाकू का कारोबार बयालीस हजार करोड़ रुपए का है जो अगले वर्षों में तिरपन हजार करोड़ से अधिक हो जाने की उम्मीद है।एक आंकड़े के मुताबिक सताइस करोड़ से अधिक लोग इसका सेवन करते हैं। तंबाकू कंपनियों की नजर इन्हीं ग्राहकों पर है। अगर कोई कंपनी नियमित रूप से एक करोड़ ग्राहकों को भी अपना उत्पाद बेच लेती है तो वह खरबपति हो जाती है।इसलिए  विज्ञापन के रूप में पचीस पचास करोड़ खर्च करना उसके लिए घाटे का नहीं,मुनाफे का सौदा है।उत्पाद में लागत से कई गुना अधिक लाभ होता है।विज्ञापन ही इनके व्यापार का मूल है।

करोड़ों लोग जिन अभिनेताओं और क्रिकेटरों को अपना आदर्श मानते हैं,बैंक बैलेंस बढ़ाने के लोभ में वे नैतिकता ताक पर रखकर अपना जमीर बेच देते हैं।सोशल मीडिया पर ट्रोल होने के बाद अक्षय कुमार ने माफी मांगते हुए आगे से ऐसा कोई विज्ञापन न करने की शपथ ली , वहीं अमिताभ बच्चन ने करार खत्म हो जाने के बाद भी दिखाये जा रहे अपने विज्ञापन के लिए उक्त ब्रांड को नोटिस भेजी।

भारत सरकार को ऐसी ठोस नीति बनाना चाहिए कि ऐसे उत्पादों को टीवी और सिनेमा के जरिए किसी प्रकार का बढ़ावा न मिल सके।

आइए हम भी यह संदेश दें -

अगर जिंदगी से है प्यार 

तो तंबाकू से करें इनकार।

मंगलवार, 2 सितंबर 2025

स्त्री विमर्श का सच

 रासबिहारी पाण्डेय

हिंदी की विभिन्न साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में इधर के कुछ वर्षों में स्त्री विमर्श के नाम पर जो कुछ बातें होती रहीं हैं,उनमें प्रमुखत: स्त्री के प्रति समाज, समुदाय, धर्म एवं पुरुषों के दृष्टिकोण की ही चर्चा ज्यादातर रही है। इनमें यदि कहीं स्त्री के व्यक्तिगत दोष या कमी की बात आई भी है तो उसे भी पुरुष वर्चस्वता के खाते में डाल दिया गया है- जैसे बहू के प्रति सास का अन्यायपूर्ण क्रूर बर्ताव या दहेज हत्या। कहा गया कि ऐसे कृत्य सासें या ननदें अपने जेठों, देवरों,पतियों, भाइयों आदि पुरुषों के बहकावे या धमकियों से मजबूर होकर ही करने को विवश होती हैं। स्त्री की कमजोर आर्थिक स्थिति की भी चर्चा हुई है।इन सब बातों के साथ ही स्त्री विमर्श का दायरा पिछले कुछ वर्षों में व्यक्तिगत आरोपों-प्रत्यारोपों और लांछनाओं तक भी जा पहुंचा है।लेकिन इस समूची समस्या की जड़ में समाहित एक और अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू की ओर ध्यान देना अति आवश्यक है, वह यह कि अपनी कुछ क्षुद्र महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए कुछ स्त्रियां समाज के आगे खुद स्वयं को किस तरह एक बाजारू एवं  बिकाऊ वस्तु की समझौता के शर्त के तौर पर पेश करती हैं। मैं विज्ञापन जगत और फिल्म इंडस्ट्री की मॉडल और अभिनेत्रियों की बात नहीं कर रहा, कॉल गर्ल्स या वेश्याओं की भी नहीं,ये तो पूंजीवादी सामाजिक व्यवस्था की अभिन्न अंग हैं।मैं अशिक्षिताओं और गरीबी रेखा के नीचे जीने को विवश महिलाओं की भी बात नहीं कर रहा, बल्कि मध्यमवर्गीय- उच्च वर्गीय कुछ उन महिलाओं की बात कर रहा हूं जो पर्याप्त पढ़ी लिखी हैं,नौकरीशुदा या उपार्जनक्षम हैं लेकिन निहायत गैरजरूरी और क्षुद्र महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए नारी की गरिमा को गिराने वाले कृत्य पूरी योजना बद्धता के साथ चौकस होकर कर रही हैं।पुरुष स्त्री पर कितने अत्याचार करता है, उसके विकास में कितना बाधक होता है,इस मुद्दे पर मोटी मोटी पुस्तकें

 लिखने और शोध करने वाली 

कुछ महिलाएं यश और धन की लिप्सा में अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा दांव पर लगाने में कोई संकोच नहीं करतीं बल्कि गाहे-ब-गाहे इसका सार्वजनिक रूप से प्रदर्शन करके इतराती फिरती हैं।स्त्री विमर्श का आशय स्त्री चरित्र से या फिर त्रिया चरित्र से बिल्कुल नहीं,स्त्री जैसी भी हो समाज में उसकी स्थिति से है। उसके प्रति किए जा रहे अन्याय अत्याचार से है। उसकी दोयम दर्जे की हालत से है, लेकिन यह भी सच है कि इन सभी बातों पर भी यानी स्त्री के समग्र विकास, समूचे उन्नयन पर भी उपरोक्त मानसिकता वाली स्त्रियों के कार्यकलाप का नकारात्मक प्रभाव पड़ता ही है।पहले से ही बहुत बहुत बिगड़ी पुरुष मानसिकता ऐसी महिलाओं की वजह से और बिगड़ती है और समाज में स्त्री की छवि दूषित होती है।देश के तमाम महानगरों, नगरों, कस्बों में साहित्य के साथ ही विभिन्न कलाओं राजनीति आदि सभी क्षेत्रों में  यह दृष्टिगत होता है। महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान,आशापूर्णा देवी,महाश्वेता देवी  आदि को सीढियों की जरूरत नहीं पड़ी। कृष्णा सोबती,मन्नू भंडारी को बैसाखियों की जरूरत नहीं पड़ी, बल्कि इन्होंने अपने आसपास के परजीवियों को झाड़ बुहार कर निकाल फेंका। मात्र अपनी प्रतिभा, मेहनत और सच्चाई के बल पर खड़ी रहीं। पुरुष प्रधान समाज में भी नारी गरिमा का दायित्व स्वयं नारी के ही हाथों में है।जो अपना सम्मान स्वयं नहीं करते,दुनिया आगे बढकर उनका सम्मान कभी नहीं करती।

कब तक दोयम दरजा पाती रहेगी हिंदी?



रासबिहारी पाण्डेय


सिंह कुछ दूर चलने के बाद मुड़कर देखता है, इसे सिंहावलोकन कहते हैं। पंछी आकाश में उड़ते उड़ते धरती की ओर दृष्टिपात करते हैं, उसे विहंगावलोकन कहते हैं। इसी प्रकार भारत सरकार प्रतिवर्ष 14 सितंबर और 10 जनवरी को देश में हिंदी के कामकाज की वर्तमान स्थिति का अवलोकन करती है मगर हर बार इसी नतीजे पर पहुंचती है कि हिंदी अभी इस लायक नहीं हुई है कि उससे पूरी तरह देश की शासन व्यवस्था और न्याय व्यवस्था चलाई जा सके। 135 करोड़ की आबादी वाले हमारे देश की अपनी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। हिंदी को अभी मात्र राजभाषा का दरजा प्राप्त है। संविधान के अनुसार हिंदी के कारण समझ में कहीं कोई दुविधा की स्थिति आती है तो आशय को स्पष्ट करने के लिए संविधान का अंग्रेजी संस्करण ही मान्य होगा।


जापान, रूस , जर्मनी, ब्रिटेन आदि सभी विकसित देश अपनी भाषा में चिकित्सा (मेडिकल), अभियांत्रिकी (इंजीनियरिंग),प्रबंधन(मैनेजमेंट),अंतरिक्ष विज्ञान(स्पेस साइंस)आदि की पढ़ाई करा रहे हैं और नित नयी ऊँचाइयां छू रहे हैं। एक अपना देश है कि अंग्रेजी में ही ये पाठ्यक्रम उत्तीर्ण करने के लिए मजबूर कर रहा है। हिंदी माध्यम से ये डिग्रियां देने के लिए एक दो विश्वविद्यालय अपवाद की तरह खुल गए हैं,कामचलाऊ अध्ययन सामग्री भी बना ली गई है,मगर वहां से शिक्षा प्राप्त करने वालों को दोयम दर्जे का माना जाता है। उनकी वह प्रतिष्ठा नहीं है,जो अंग्रेजी माध्यम वालों की है। यह मानसिकता बदलने की जरूरत है।

जिस प्रकार माध्यमिक कक्षा में अंग्रेजी और गणित में उत्तीर्ण होने की अनिवार्यता के कारण देश के लाखों विद्यार्थी पढ़ाई छोड़कर घर बैठ जाते हैं,उसी प्रकार अंग्रेजी में निष्णात न होने की वजह से देश के लाखों विद्यार्थी डॉक्टर,इंजीनियर,वैज्ञानिक आदि बनने से वंचित रह जाते हैं।अंग्रेजी शिक्षा के नाम पर ही कोचिंग संस्थानों और कान्वेंट स्कूलों का गोरखधंधा भी चल रहा है। इनकी महंगी फीस देना सामान्य या मध्यमवर्गीय परिवारों के बस में नहीं है।    पटना,दिल्ली,कोटा,प्रयागराज समेत

कई शहरों में

आइआइटी,आइआइएम,मेडिकल आदि पाठ्यक्रमों के कोचिंग के नाम पर लाखों रुपये वसूले जाते हैं।ये पाठ्यक्रम यदि हिंदी भाषा में हों तो विद्यार्थियों की आधी समस्या ऐसे ही सुलझ जाय। अंग्रेजी का ताला लगाकर देश की एक बड़ी आबादी को प्रगति की सीढ़ियां चढ़ने से रोक दिया गया है।

एक बात यह भी आती है कि दक्षिण भारतीय सांसद हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का विरोध करते हैं,इसलिए हमारी सरकार उन्हें खुश रखने के लिए कदम पीछे हटा लेती है। अगर धारा ३७० और राम मंदिर जैसे पेचीदे मसले को सुलझाया जा सकता है तो भाषा के मुद्दे पर एकजुट होकर समाधान क्यों नहीं निकाला जा सकता ? यह सर्वविदित है कि हिंदी के अतिरिक्त ऐसी कोई अन्य भाषा नहीं है जिसमें राष्ट्रभाषा बनने की क्षमता हो। पूरे देश में बोली और समझे जाने वाली एकमात्र भाषा हिंदी है। हमें इस मुहिम को एक अभियान की शक्ल देनी ही होगी और इसके लिए निम्नांकित बिंदुओं पर भी अमल करना जरूरी है।


१जहां भी संभव हो हिंदी में आवेदन करें।

२हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित करने के लिए हस्ताक्षर अभियान चलायें और हर जगह अपने हस्ताक्षर हिंदी में करें।

३न्यायालयों में वकीलों और जजों को हिंदी में बहस करने और निर्णय सुनाने के लिए दबाव बनायें।

४अपने बच्चों को हिंदी साहित्य से परिचित करायें।

५हम हिंदी बोलने में गर्व का अनुभव करें,जो लोग झिझकते हैं उन्हें प्रोत्साहित करें। 

दुष्यंत कुमार का शेर है - 

' कैसे आकाश में सुराख नहीं हो सकता

एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।'

हमें पत्थर उछालने की पहल करनी ही होगी।



रविवार, 31 अगस्त 2025

साधो कर बैठी मैं प्रीत!

 साधो कर बैठी मैं प्रीत

वह है राम रहीम हमारा,मैं उसकी हनीप्रीत।

आँख का अंधा गाँठ का पूरा मिला मुझे मनमीत।

भैंसे सा है रंग, स्यार सा चतुर सुनाए गीत।

आधा हिंदू, तुर्क है आधा, वर्णसंकरी रीत।

सुन्नत भी करवा बैठा है, पहन जनेऊ पीत।

निज सखियन से जब मिलवाती, रहतीं वे भयभीत।

मगर मगन मन सुनती रहतीं, कुसुम भ्रमर संगीत।

है सवाल पेट का मेरे, मैं तो उससे क्रीत!

समझ नहीं पाती मैं इसको हार कहूँ या जीत।


जंग बिना ही मरेंगे लाखों मातम घर-घर देखेंगे!

 जंग बिना ही मरेंगे लाखों मातम घर-घर देखेंगे!


21'वीं सदी में ग़ज़ल सबसे लोकप्रिय काव्य विधा बनकर उभरी है।छंद में लिखने वाले लगभग सभी कवि ग़ज़ल कहने लगे हैं।जीवन की प्राथमिकताएं जिस प्रकार बदली हैं , उनमें किसी एक विषय पर ठहर कर देर तक सोचने और निकष तक पहुंचाने का समय नहीं रह गया है। ग़ज़ल कहने में यह सुविधा है कि दो पंक्तियों वाले हर शेर के बाद किसी अन्य विषय पर बात की जा सकती है ,बस रदीफ,काफिए और बहर का खयाल रखना है। हालांकि ग़ज़ल की दुनिया में इतने मील के पत्थर हैं कि उनके समकक्ष या उनसे आगे निकलकर शायरी कर पाना एक बड़ी चुनौती है किंतु कविता हर युग में अपने नए प्रतिमान गढ़ती है और अपने नए नुमाइंदों का इंतखाब करती है ।वरिष्ठ शायर विजय अरुण पिछले 50 सालों से ग़ज़लों पर काम कर रहे हैं।उर्दू के वरिष्ठ शायर और समीक्षक कालिदास गुप्ता रिज़ा के प्रिय शागिर्द के रूप में लंबे अरसे तक उन्होंने शायरी की बारीकियां सीखी हैं।रिजा साहब और उनका साथ नैरोबी में ही बन गया था, बाद में गुरू शिष्य दोनों मुंबई आ गए। 

87 वर्ष की उम्र में विजय अरुण जी का पहला ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हुआ है - 'ग़ज़ल कमल ग़ज़ल गुलाब'। पुस्तक में हिंदी उर्दू की कुल 188 ग़ज़लें संग्रहीत हैं जिनमें

जीवन और जगत के तमाम रहस्य उद्घाटित हुए हैं।

संसार को दुखालय कहा गया है क्योंकि यहां सुख की अपेक्षा दुख के लम्हे कहीं अधिक होते हैं,इस बात को शेर की शक्ल में पुख्ता उदाहरण के साथ वे कहते हैं-


दुख की निस्बत सुख बहुत ही कम है इस संसार में 

हो महाभारत कि रामायण यही पाया गया।


कोई कलाविद जब किसी सामंत का गुलाम हो जाए तो विजय अरुण की नजर में उसकी कला साधना में खोट आ जाती है-


कलाविद जब किसी सामंत की जागीर हो जाए 

तो उसकी ही कला उसके लिए जंजीर हो जाए।


मनुष्य को देवता और  दानव से श्रेष्ठ सिद्ध करते हुए वे कहते हैं-


कोई है देव तो कोई है दानव सृष्टि रचना में 

मैं इन दोनों सिरों को जोड़ता हूं और मानव हूं।


योग और प्राणायाम में हिंदू मुस्लिम कोण ढूंढने वालों के लिए वे कहते हैं-


मैं तो करता हूं अरुण तुमसे जरा योग की बात 

और तुम बीच में इस्लाम को ले आते हो। 


दीपक और आतिशबाजी की उपयोगिता का अत्यंत बारीक विश्लेषण करते हुए वे कहते हैं-


हम दीपक ही बनें अरुण जी और अंधेरा दूर करें 

आतिशबाजी का क्या बनना जो एक पल का जलवा हो।


कोरोना वायरस की भयावहता और उससे भी कहीं अधिक लेजर की लड़ाई की कल्पना करते हुए शायर कहता है-


कब बचपन में यह सोचा था यह भी मंजर देखेंगे ,

जंग बिना ही मरेंगे लाखों मातम घर-घर देखेंगे?

मरेंगे लोग न खंजर से अब लोग मरेंगे लेजर से 

किन्ही अजायब घरों में ही अब रक्खे खंजर देखेंगे।


अमीरी आ जाने पर कुछ लोगों की ज़बान तल्ख़ हो जाती है। ऐसे लोगों के लिए वे कहते हैं-


इन शरीफों को नहीं बात भी करने की तमीज़ 

जो हो तहज़ीब से खाली वो शराफत कैसी ?


दौलत की किस्मत पर तंज करते हुए वे कहते हैं-


उससे इज्ज़त भी है शोहरत भी है और ताक़त भी है 

ऐ अरुण पाई है दौलत ने भी किस्मत कैसी?


संग्रह में कुछ हास्य व्यंग्य की ग़ज़लें भी शामिल हैं। नए युग के मजनू और विवाहित पुरुष की भागदौड़ को अपने शेर में वे कुछ यूँ चित्रित करते हैं-


इसे देखिए, यह है नए समय का छैला 

कपड़ा जिसका घिसा पिटा और मैला मैला

वह है पुरुष विवाहित काम से जब घर लौटे

दौड़ा जाए, हाथ में हो भाजी का थैला


आधुनिक नेता के पारिवारिक जीवन और शायर की मुफलिसी पर तंज करते हुए वे कहते हैं-


गुंडा इक बेटा था अब इक है वकील 

अब मेरे लीडर को कोई डर नहीं।

की अरुण ने तोबा गुरबत के सबब

शेख  तेरे दीन से डरकर नहीं।


अभिनेता के जीवन की त्रासदी को बयान करते हुए वे कहते हैं -


'अरुण' के चेहरे पर मत जा, उसके तू दिल में झांक 

वह तो अभिनेता है , चेहरे से सदा मुस्काए ।


 धार्मिक रूढ़ियों में फंसे मनुष्य की चेतना को जागृत करते हुए वे कहते हैं -


जाकर मंदिर में ही क्यों दीपक जलाना है तुझे जिस जगह दीपक नहीं है उसे जगह दीपक जला।


दुनिया में हर समस्या का समाधान है और हर मर्ज का इलाज है,इस विचार को एक शेर में निरूपित करते हुए वे कहते हैं- 


लुकमान को पता न हो यह बात है अलग

 वैसे तो हर मरज का यहां पर इलाज है ।


विजय अरुण की गजलें  प्रेम,श्रृंगार,अध्यात्म और युगबोध की चाशनी में पगी हैं। पाठकों के लिए 'ग़ज़ल कमल ग़ज़ल गुलाब'एक अनुपम सौगात है।

अद्विक प्रकाशन,दिल्ली द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक का मूल्य मात्र ₹300 है।यह संग्रह अमेजॉन पर उपलब्ध है।

साधो! मैं हूं कवि बरियारा ।

 साधो! मैं हूं कवि बरियारा ।

संग में राखूं एक पतुरिया इन आंखिन को तारा।

सभा सजावत वही हमारी निज सखियन के द्वारा।

हर इक विधा में मुंह मारूं पर कोउ न पूछनिहारा।

निज कुटिया में निज चादर से हो सम्मान हमारा।

श्रेष्ठ कविन को देखत ही बस चढ़ता मेरा पारा।

रूप शिखंडी का धरकर मैं करता गारी गारा।

हूँ अतीक़ को चेला देखूं परधन औ परदारा।

चमचा मेरा दैत्यमणि अति हकलात बेचारा।

मद्यपान की खातिर लेकिन करत रहत

दरबारा। 

साधो! मैं हूं कवि बरियारा।।



बुधवार, 27 अगस्त 2025

साहिर के बाद साहिर से बड़ा शायर नहीं हुआ:हसन कमाल





साहिर के बाद साहिर से कोई बड़ा शायर पैदा नहीं हुआ। जिंदगी और समाज के तकाजों को जिस गहराई के साथ महसूस कर उन्होंने अपनी रचनाओं में पिरोया है,वैसी मिसाल दुर्लभ है।'रसराज' द्वारा आयोजित 'साहिर स्मृति संध्या' में ये विचार वरिष्ठ उर्दू शायर और फिल्म गीतकार हसन कमाल ने व्यक्त किए। 

साहिर की नज्म ''वो सुबह कभी तो आएगी' का जिक्र करते हुए विजय अकेला ने कहा कि साहिर ने इस नज़्म में जिस तरह के समाज की परिकल्पना की है, हमें उसे समाज तक पहुंचने की जरूरत है।

सत्यदेव त्रिपाठी ने कहा कि ताजमहल को बिना देखे उस पर सबसे इतर कविता लिख कर साहिर ने यह सिद्ध कर दिया कि लोकानुभव से कहीं बड़ा होता है रचनाकार का स्वानुभव जो उसे महान बनाता है।

शाहिद लतीफ ने कहा कि सबसे ज्यादा महिलाओं की अस्मत और हिफाजत के लिए साहिर ने लिखा है।साहिर का पैगाम जमाने को समझाने की जरूरत है। 

कार्यक्रम के संयोजक और संचालक कवि रासबिहारी पाण्डेय ने कहा कि साहिर से पहले और साहिर के बाद फिल्मों में लिखने वाले अनेक गीतकार हुए लेकिन अदबी मेयारऔर व्यावसायिक सफलता को कायम रखते हुए जिस तरह साहिर ने अपना रुतबा बुलंद किया वह कोई और नहीं कर पाया।

दीपक खेर,अनुष्का निकम और रश्मि श्री ने साहिर के फिल्मी गीत प्रस्तुत किये।पं.विष्णु शर्मा,ओबेदआजमी,नीता वाजपेयी, मधुबाला शुक्ला और प्रज्ञा पद्मजा ने साहिर की नज्में पढ़ीं।कार्यक्रम के दौरान साहिर के निवास स्थान परछाइयाँ (जुहू)को स्मारक घोषित करने और यहाँ साहिर संग्रहालय स्थापित करने के लिए महाराष्ट्र सरकार को ज्ञापन देने पर भी चर्चा हुई।



सोमवार, 25 अगस्त 2025

क्या पुरुलिया आर्म्स ड्रॉप का आरोपी किम डेवी भारत प्रत्यर्पित किया जा सकेगा?


मुंबई में 26/11 हमलों के मास्टरमाइंड तहव्वुर राणा को अमेरिका से भारत प्रत्यर्पित करा लिया गया है।अब प्रश्न यह है कि क्या पुरुलिया आर्म्स ड्रॉप के आरोपी डेनमार्क नागरिक किम डेवी को भी प्रत्यर्पित कराया जा सकेगा?

17 दिसंबर 1995 को एक रूसी विमान, जिसमें पांच लातवियाई नागरिक, ब्रिटिश हथियार डीलर पीटर ब्लीचऔर डेनिश तस्कर किम डेवी शामिल थे, पश्चिम बंगाल के  पुरुलिया जिले के पांच गांवों पर 2,500 एके-47 हथियार और 1,500,000 राउंड गोला-बारूद गिराकर थाईलैंड चला गया।सुबह होते ही जंगल के आग की तरह यह बात चारों तरफ फैल गई। अधिकांश हथियार और गोला बारूदआनंद मार्गियों (जिनमें तत्कालीन सांसद पप्पू यादव भी शामिल थे।)

और गांव वालों ने लूट लिए,पुलिस बहुत कम  बरामद कर सकी। इन हथियारों की कीमत तब साढ़े चार हजार करोड़ आंकी गई थी।

इनमेंं से पंद्रह एके सैंतालीस बिहार के माफिया डॉन सूरजभान के हाथ लग गए थे जिसमें दो एक‌े सैंतालीस उसने यूपी के डॉन श्रीप्रकाश शुक्ला को दे दिए थे जिससे उसने बिहार सरकारके मंत्री बृज बिहारी प्रसाद और उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्री वीरेंद्र शाही समेत अन्य दर्जनों हत्यायें की थीं।

तीन दिनों बाद  उस‌ विमान  को थाइलैंड से करांची जाते हुए भारतीय वायु सेना के मिग-21 ने रोक लिया और मुंबई में उतरने के लिए बाध्य किया।

गिरफ्तार किए गए लोगों में से ब्रिटिश नागरिक पीटर ब्लीच, डेनमार्क  नागरिक नील्स क्रिश्चियन नीलसन उर्फ किम पीटर डेवी  और अन्य पांच लातवियाई नागरिक थे।

 उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई, लेकिन नील्स क्रिश्चियन नीलसन उर्फ किम पीटर डेवी  जो डेनमार्क का नागरिक था, मुंबई एयरपोर्ट से ही भाग निकला। टाइम्स नाऊ पर अर्णव गोस्वामी को दिए गए इंटरव्यू में किम ने स्वीकार किया था कि वह मुंबई से पुणे गया,पुणे से दिल्ली पप्पू यादव के घर पर गया जहां से उसे  दिल्ली से नेपाल बार्डर तक जाने वाली ट्रेन में बिठाया गया।पप्पू यादव के गुर्गों ने उसे नेपाल हवाई अड्डे तक छोड़ा जहां से किम विमान द्वारा डेनमार्क चला गया।

बाद में उसके खिलाफ इंटरपोल का रेड नोटिस जारी किया गया।उसने अपनी पुस्तक ' दे कॉल मी ए टेररिस्ट' में इस बात को स्वीकार किया है कि उसने लातविया में खरीदे गए विमान से हथियार गिराए थे । कहा जाता है कि तब कांग्रेस शासित पी वी नरसिंहाराव की पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्टों के आतंक से डरी हुई थी और आनंदमार्गियों को उनसे मुकाबला करने के लिए कुल 4 टन हथियारऔर गोला बारूद की तस्करी कराई गई थी। विमान के भारत में प्रवेश के समय कथित तौर पर उस निश्चित समय के लिए  राडार हैक कर लिए गए थे ताकि विमान सुरक्षित तौर पर भारत में प्रवेश कर सके। विमान बनारस में उतरने के बाद आठ घंटे तक रुका रहा,यहां से इंधन लेकर कोलकाता हवाई अड्डे पर उतरा और फिर वहां से पुरुलिया के आसपास बहुत नीचे से उड़ते हुए हथियारों के इस जखीरे को नीचे गिरा दिया। आनंदमार्ग का मुख्य कार्यालय पुरुलिया ही था जहां हथियार गिराने थे मगर पाइलट सही जगह न पहचान पाने की वजह से पुरुलिया के आसपास के गांवों में ही हथियार गिराकर चलते बना। सुबह होते ही जंगल के आग की तरह यह बात फैल गई कि खेतों में‌ ढ़ेर सारे  हथियार गिरे पड़े हैं। आनंदमार्गियों और गांव वालों ने अधिकांश हथियार लूट लिए,पुलिस के पहुंचने के बाद बहुत कम हथियारों की बरामदगी हो सकी। बनारस विमान उतरने के समय मंगला पटेल नामक  टैक्सी ड्राइवर  किम डेवी को दो बार  हवाई अड्डे से किसी होटल तक ले गया। बाद में इस केस की सुनवाई के दौरान वह कई बार अदालतों में भी आता रहा लेकिन सुनवाई पूरी होने से पहले ही उसकी हत्या हो गई और बिहार के किऊल स्टेशन पर उसकी लाश बरामद हुई।


2010 में डेनिश पुलिस ने किम डेवी के घर की तलाशी के दौरान ब्रिटिश नामों और नील्स की तस्वीर वाले दो जाली पासपोर्ट जब्त किए। रूस के राष्ट्रपति पुतिन के हस्तक्षेप के बाद लातवियाई चालक दल (जिन्होंने भारतीय हिरासत में रहते हुए रूसी नागरिकता प्राप्त की थी) को सन् 2000 में राष्ट्रपति द्वारा क्षमा दान के बाद रिहा कर दिया गया। पीटर ब्लीच को भी 4 फरवरी 2004 को भारत के राष्ट्रपति के क्षमादान से रिहा कर दिया गया । कथित तौर पर लगातार ब्रिटिश सरकार के दबाव के कारण 2007 में किम डेवी का पता डेनमार्क के अधिकारियों ने लगाया और 9 अप्रैल 2010 को डेनमार्क सरकार ने किम डेवी को भारत प्रत्यर्पित करने का फैसला किया लेकिन तब कुछ कानूनी अड़चनों के कारण भारत को इसे प्रत्यर्पित नहीं किया जा सका।पुरुलिया आर्म्स ड्रॉप का यह आरोपी यदि भारत लाया जा सका तो ढ़ेर सारे रहस्यों से पर्दा उठ सकता है। क्या अब भी उसके प्रत्यर्पण की उम्मीद शेष है?                              


रविवार, 24 अगस्त 2025

मन चंगा तो कठौती में गंगा....

 

मन चंगा तो कठौती में गंगा....

एक पंडित जी गंगा स्नान के लिए जा रहे थे।रास्ते में उनका जूता टूट गया,उसकी मरम्मत के लिए किसी को  ढ़ूँढ़ते ढ़ूँढ़ते वे किसी तरह रैदास की कुटिया पर पहुँच गये।रैदास ने उनके जूते ठीक किये और पंडित जी को दो सुपारी देते हुये कहा कि इन्हें गंगा जी में डाल दें।पंडित जी ने स्नान के बाद जब सुपारी गंगा में फेंकी तो उन्हें लगा जैसे किसी हाथ ने उन्हें लपक लिया।फिर जल से तत्काल एक हाथ बाहर आया जिसमें सोने का एक कंगन था... आवाज आई….इन्हें मेरी ओर से रैदास को दे देना।

सोने का कंगन देखकर पंडित जी लालच में आ गये।उन्होंने इसे एक सुनार को बेच दिया।सुनार के यहाँ से यह कंगन किसी प्रकार राजदरबार और फिर रानी तक पहुँचा।रानी इसे देखकर मोहित हो गईं।दूसरे हाथ के लिए वे ऐसा ही एक और कंगन चाहती थी।जौहरी लाख प्रयत्न के बाद भी ऐसा कंगन नहीं बना सके,तब खोज हुई उस व्यक्ति की जिससे पहली बार कंगन मिला।पंडित जी जल्द ही पकड़ में आ गये। राजदरबार से यह हुक्म जारी हुआ कि ऐसा ही एक और कंगन लाकर दें वर्ना उन्हें फाँसी दे दी जाएगी।

पंडित जी रोते रोते रैदास के पास पहुँचे और अपना अपराध स्वीकार करते हुए उनसे इस मुश्किल से निजात दिलाने की प्रार्थना की।रैदास जी मुस्कुराये।उन्होंने कठौती में जल भरा और माँ गंगा का स्मरण करते हुए उनसे एक और कंगन देने की प्रार्थना की।दूसरे ही क्षण उनके हाथ में वैसा ही एक और कंगन था। फिर बोले- मन चंगा तो कठौती में गंगा….
अगर गंगा से जुड़ी कोई अन्य कथा आपको भी ज्ञात हो तो कृपया शेयर करें।

शनिवार, 23 अगस्त 2025

लापता लेडीज' ....मेरी नजर में



रासबिहारी पाण्डेय

बॉलीवुड की मारधाड़ और मसाला फिल्मों के बीच 'लापता लेडीज' एक ठंडी बाजार की तरह है, बावजूद इसके मुकम्मल फिल्म के तौर पर इसका मूल्यांकन भी जरूरी है।फिल्में हम मनोरंजन के लिए देखते हैं। यह फिल्म हमें स्वस्थ मनोरंजन देती है।हिंदी फिल्मों से दूर होते जा रहे गांव कस्बे खेत खलिहान और बाजार भी आंखों को सुकून देते हैं।

ट्रेन से उतरने के दौरान घूंघट की वजह से दुल्हन बदलने की कई घटनाएं 50-60 साल पहले तक होती रही हैं जो अखबारों की सुर्खियां भी बनती रही हैं। रविंद्र नाथ ठाकुर के उपन्यास नौका डूबी की दुल्हन एक नाव हादसे के बाद बदले हुए पति के साथ  बनारस की जगह कोलकाता पहुंच जाती है।इस लिहाज से देखें तो यह सत्तर अस्सी के दशक की कहानी है।आज के जमाने से इसका कोई तआल्लुक नहीं है।लापता लेडीज में दो दुल्हनें ट्रेन के जनरल कंपार्टमेंट में बैठकर अपने ससुराल जा रही हैं। ट्रेन से उतरते वक्त हड़बड़ी में  एक दुल्हन जानबूझकर किसी और के साथ चली जाती है जबकि दूसरी दुल्हन  ट्रेन से उतरने के बाद खुद को असहाय महसूस करती है । प्लेटफार्म पर मिलने वाले  छोटू के जरिए वह चाय नास्ते का स्टाल चलाने वाली मंजू माई का सहारा पाती है और फिर दीवार पर लगे पोस्टर के कारण अपने पति दीपक तक पहुंच पाती है।जया जो जानबूझकर दीपक के साथ दुल्हन के वेश में उतर गई थी, पोस्टर उसी के द्वारा लगवाये गये थे ।वह आगे अपनी पढ़ाई जारी रखना चाहती है। इंस्पेक्टर रवि किशन के कारण उसे अपने दहेज लोभी पति से राहत मिलती है और वह कृषि विज्ञान की पढ़ाई करने देहरादून चली जाती है।

आजकल हर गांव कस्बे में अनपढ़ लड़कियां तक रील बना रही हैं और फेसबुक,इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर शेयर भी कर रही हैं। इतनी साक्षर और सावधान तो हैं ही कि अपने पति ,ससुराल और जगह का नाम पता और मोबाइल नंबर अपने पास रखती हैं। सो इस जमाने में दुल्हन की अदला बदली की बात समझ में नहीं आती। जितने सीधे-सादे सरल और सहयोगी लोग फूल और जया को मिलते हैं, दुनिया अभी इतनी सीधी नहीं हुई है।

रेल बस और वायुयान के ऐसे तमाम संस्मरण हमारे पास हैं जिसमें कर्मचारियों की अकर्मण्यता और बदतमीजी से हम रूबरू होते रहे हैं लेकिन लापता फूल को रेलवे और रेलवे प्लेटफार्म के आसपास किसी खल चरित्र से मुलाकात नहीं होती है। फूल स्टेशन पर दो मर्दों के बीच में सो जाती है जिसमें से एक नकली टांगों वाला बनकर दिन में भीख मांगता है और दूसरा छोटू मंजू माई के साथ काम करता है। यह दृश्य अविश्सनीय लगता है।

फिल्म में प्रमुख रूप से चार औरतों की कहानी है। पहली फूल है जो परंपरा से जुड़ी हुई है,उसकी अपनी कोई महत्वाकांक्षा नहीं है। वह चुपचाप अपने पति के साथ जा रही है। दूसरी जया है जिसके जीवन में शादी से महत्वपूर्ण उसका अपना करियर है। तीसरी मंजू माई जो अपने शराबी पति से दूर रहकर अपनी बची खुची जिंदगी सुकून से गुजारना चाहती है। चौथी दीपक के परिवार की लड़की बेला है जिसके पति ने उसे छोड़ दिया है और वह मायके में ही रहने को अभिशप्त है। फिल्म के तीन किरदारों को अपने मन के मुताबिक पुरुष नहीं मिलते इसलिए उन्हें अपने जिंदगी की लड़ाई खुद लड़नी है।भारत में हर रोज सैकड़ो लड़कियां लापता हो रही हैं।लेकिन उनका सच यह नहीं है जो किरण राव इस फिल्म में दिखाती हैं।यहां न दस साल  की बच्ची सुरक्षित है न अस्सी साल की औरत।पचास साठ साल की औरतें भी छेड़खानी की शिकार होती हैं,वहीं बूढी और अशक्तऔरतें लूटपाट की शिकार होती हैं। जिस तरह इस फिल्म में दिखाते हैं कि एक लड़की रेलवे प्लेटफार्म पर सुरक्षित है और दूसरी लड़की पराए घर में सुरक्षित है,ऐसा संयोग बहुत कम होता है।  चूंंकि हिंदी फिल्मों में हैप्पी एंडिंग दिखानी होती है इसलिए जान बूझकर ऐसी कहानी गढी गई है। यहां घूसखोर दरोगा तक चरित्रवान और औरतों की इज्जत करने वाला है।यहां तक कि गाना सुनने के एवज में घूस की रकम दस हजार तक घटा देता है।आमिर खान की एक्स वाइफ फिल्म की निर्देशक किरण राव खुद एक तलाकशुदा महिला हैं। वे लंबे समय तक आशुतोष गोवारीकर की असिस्टेंट रह चुकी हैं। औरतों के दुख दर्द और पुरुष मानसिकता की उन्हें अच्छी जानकारी है।कुछ साल पहले आमिर खान ने यह बताया भी था कि किरण को यहां रहने में डर लगता है लेकिन वही किरण जब फिल्म बनाने निकलीं तो उन्हें सब कुछ अच्छा अच्छा ही नजर आने लगा।

मनोरंजक फिल्म बनाने के चक्कर में वे हकीकत की ओर पीठ करके बैठ गई हैं।बावजूद इसके करण जौहर और यशराज के बिग बजट फिल्मों की दौड़ में शामिल न होकर उन्होंने अपनी अलग राह चुनी है,इसके लिए बधाई तो बनती ही है।




अगर कुरान हो घर में तो कोरोना नहीं होता

 अगर कुरान हो घर में तो कोरोना नहीं होता

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कभी गंगा बुला रही,कभी गोमती बुला रही है,

नालायक अहमदाबाद लौट जा तेरी बीवी बुला रही है

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सिर्फ कब्रों की जमीनें देके मत बहलाइये

राजधानी दी थी,राजधानी चाहिए

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सौदा यहीं पे होता है हिंदोस्तान का

संसद भवन में आग लगा देनी चाहिए

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लहू में डूबी हुई आस्तीन जीती है

चुनाव तुम नहीं जीते मशीन जीती है

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निकाह ही न हुआ तो मर्द कैसा है(पहला मिसरा पूरा याद नहीं )

काम घुटनों से जब लिया ही नहीं ,फिर ये घुटनों में दर्द कैसा है 

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ऐसे जहरीले शेर कहने वाले राहत इंदौरी को फेसबुक पर सदी का महान शायर घोषित करने की मुहिम चल रही है.इस वकालत में हिंदी के लोग ज्यादे हैं,उर्दू के कम हैं.

जबसे नरेंद्र मोदी पीएम बने, तबसे राहत और इमरान प्रतापगढ़ी की शायरी एक जैसी हो गई थी,दोनों का काम मोदी को गाली दिए बिना नहीं चलता था.

किसी शायर के लिए उसका वतन पहले होता है,मजहब बाद में, मगर राहत मजहबी और सियासी शायरी करके मुशायरों को काबू में कर चुके थे या कहिए मुशायरों के काबू में आ चुके थे।मुशायरों से मिलने वाले लिफाफे के मोह ने उनको जमूरा बना दिया था.,अगर वे मिमिक्री करते हुए लड़खड़ाती जबान में ऐसी जेहादी बातें न करते तो मुशायरे से कबके बाहर हो चुके होते।अपने दौर के निदा फाजली,वसीम बरेलवी,शीन काफ निजाम आदि के मुकाबले उनकी शायरी कहीं नहीं ठहरती।

मर जाऊँ तो मेरे पेशानी पे हिन्दुस्तान लिख देना ….कहने से देशभक्ति प्रमाणित नहीं होती. यहाँ तो अदालतों में गीता, कुरान पर हाथ रखकर भी लोग झूठ बोलते हैं.

सत्ता किसी की हो ,अदीब हरदम विपक्ष में होता है,मगर व्यक्तिगत स्तर पर उतर कर घटिया और ओछी बातें करने लग जाना,न्यायालय को झूठा बताने लग जाना,चंद फायदों के लिए अपना ज़मीर बेच देने का उदाहरण देखना हो तो राहत उसके सबसे बड़े उदाहरण हैं.

कोई कवि/शायर अदब‌ की दुनिया में लंबे समय तक तब याद किया जाता है जब वह परतदार शायरी करता है.लक्षणा,व्यंजना का सहारा लेते हुए सामाजिक सरोकारों से जुड़ी गहरी बातें करता है.ऐसी बातें जो लोगों को चिंतन के लिए विवश करती हैं.

मेरा बाप , तेरा बाप की टुच्ची भाषा तो गली के बिगड़ैल शोहदे बोलते 

कौन सा शब्द कहाँ बरतना है,कैसे बरतना है,इसका शऊर लोग कवि/लेखकों से सीखते हैं/शायरों की ही जबान गुंडों की हो जाय तो उसका अपराध क्षम्य कैसे हो सकता है? कभी फैज ने कहा था - चले भी आओ कि खुशबू का कारोबार चले... कारोबार शब्द को उन्होंने इस तरह बरता कि मुँह से वाह  निकलता है और इधर किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है …..सुनकर मुँह से क्या निकलेगा, यह बताने की जरूरत नहीं है.

सर्वविदित है कि मुगलों ने इस देश को लूटा,अंग्रेजों ने संगीनों के बल पर उनसे राज छीना , पर यह कहने की हिम्मत कि राजधानी दी थी,राजधानी चाहिए….भारत जैसे देश में ही हो सकती है. कुछ देशों को छोड़कर तमाम मुस्लिम देशों में दूसरे धर्मों के लोग दोयम दर्जे के नागरिक हैं,उन्हें सारे मौलिक अधिकार प्राप्त नहीं हैं.मगर भारत में खुद को डरी सहमी हुई कौम बताने वाले लोग अगर इतने मुखर हैं तो निडर होकर क्या करेंगे ,यह भी साफ है

सियासी नारेबाजी करके थोड़े समय के लिए लोकप्रिय तो हुआ जा सकता है लेकिन साहित्य की दुनिया में लंबे समय तक टिका नहीं जा सकता.

गोधरा प्रकरण पर मुस्लिम कौम को क्लीन चिट देते हुए राहत ने कहा था -

जो अपने मुर्दों को भी जलाते नहीं

जिंदा लोगों को क्या जलाएंगें ?

यह दलील सुनकर तो अदालतों को मान लेना चाहिए कि इस्लाम को मानने वाले कभी दंगे में शामिल ही नहीं हुए.

शायरी की जबान वो है जो निदा ने कहा-

हिंदू भी मजे में हैं,मुसलमां भी मजे में 

इंसान परेशान यहाँ भी है , वहाँ भी 

जैसे शाहिद अंजुम कहते हैं -

अब इस्लामाबाद में भी महफूज नहीं

अच्छे खासे रामनगर में रहते थे.

शायर किसी पार्टी का झंडा नहीं उठाता,लेकिन यह जरूर बता देता है कि कौन क्या है?

शायर का काम है लोगों को जोड़ना और नफरत की दीवारों को गिराना , न कि नफरत की दीवार खड़ी करना.

कवि सम्मेलन / मुशायरों में सबसे अधिक पैसे उन्हें मिलते हैं जो अधिकाधिक तालियाँ बजवाते हैं,सनसनी फैलाते हैं.आयोजक इसी पर ध्यान देते हैं कि किसने कैसा मजमा लगाया. भीड़ किसने बढ़ाई और किसने घटाई... मुशायरे में भीड़ बनकर आने वालों की यह कमजोरी है कि वह सीधी सादी उपदेशात्मक बातों में कम रुचि लेते हैं,उत्तेजना, रोमांच और हास्य का पुट हो तो उसमें उनकी रुचि बढ़ जाती है.राहत को  सुनने वालों की  यह कमजोरी पता थी,इसलिए वे तात्कालिक मुद्दों पर उत्तेजना पैदा करने वाली शायरी करते थे.

उर्दू समीक्षकों ने उन्हें कभी गंभीरता से नहीं लिया.राहत की तरह ग़ज़ल कहने वाले हर महानगर में दो चार शायरहैं.उन्हें मुशायरों की मजमेबाजी नहीं आती,इसलिए उन्हें वह शोहरत ओर दौलत नहीं मिलती.हिंदी /उर्दू के मंचों पर ऐसे तमाम शायर हैं जो तात्कालिक और जज्बाती शायरी करके अपना वजूद बनाये हुए हैं लेकिन मोदी के खिलाफ एजेंडा नहीं चलाते,इसलिए उनकी नोटिस नहीं ली जाती है.राहत यह एजेंडा सेट करने में सफल रहे.

अदबी हलका पहले इतना अलग कभी नहीं था.

फिलहाल देश में दो ही तरह के कवि/लेखक बड़े हैं ,वे या तो मोदी समर्थक हैं या मोदी विरोधी.बाकी किसी की चर्चा ही नहीं होती.

कोरोना काल में राहत का एक शेर वायरल हुआ था,जिसका एक ही मिसरा ध्यान में है-

अगर कुरान हो घर में तो कोरोना नहीं होता ….

इस वैज्ञानिक युग में इतनी अवैज्ञानिक बात ……फिर मौलाना शाद और इस शायर में फर्क क्या था ?

कौशल विकास के साथ आत्मविश्वास भी जरूरी


रासबिहारी पाण्डेय



       अधिकांश विद्यार्थी प्रारंभ से अपने कौशल को नहीं पहचान पाते और बी.ए.,एम. ए. की डिग्री लेने के बाद इस उहापोह में पड़ जाते हैं कि उन्हें अब क्या करना चाहिए?युवा इस दुविधा में न पड़े़ं, प्रारंभ से ही  अपने कौशल को पहचानें और उसके विकास के प्रति उनमें जागरूकता आए, इस उद्देश्य से यूनेस्को ने १५ जुलाई को विश्व युवा कौशल दिवस के रूप में चिन्हित किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जुलाई २०१५ में कौशल भारत अभियान  की शुरुआत की। इसके तहत भारत में ४० करोड़ से अधिक लोगों को विभिन्न कार्यों में प्रशिक्षित करने का उद्देश्य रखा गया है। मोदी जी ने युवाओं को यह संदेश दिया है कि वे फ्यूचर स्किल्स के लिए तैयार रहें और दुनिया में जो कुछ हो रहा है उससे स्वयं को जोड़ने का प्रयत्न करें।

कौशल भारत के अंतर्गत जो युवक  बेरोजगार हैं, स्कूल या कॉलेज छोड़ चुके हैं सभी को वैल्यू एडिशन दिया जाता है। इस मंत्रालय से एक प्रमाण पत्र जारी किया जाता है जिसे विदेशी संगठनों सहित सभी सार्वजनिक एवं निजी संस्थानों द्वारा मान्यता दी जाती है।योजना को गति देने के लिए तीन अन्य संस्थानों द्वारा समर्थित किया गया है - राष्ट्रीय कौशल विकास एजेंसी (NSDA), राष्ट्रीय कौशल विकास निगम (NSDC) एवं प्रशिक्षण महानिदेशालय (DGT)। पहले लक्ष्य को पूरा करने की जिम्मेदारी विभिन्न मंत्रालयों में विभाजित की जाती थी किन्तु अब ये एक दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं।कौशल विकास और इंटरप्रेन्योर्शिप मंत्रालय मुख्य मंत्रालय है जो अन्य मंत्रालयों एवं संस्थानों के साथ समन्वय बना रहा है।युवाओं के लिए यह एक स्वर्णिम अवसर है।प्रशिक्षित होकर युवा बेहतर 

अवसरों की तलाश कर सकें,इसके लिए भारत सरकार न सिर्फ नि:शुल्क प्रशिक्षण दे रही है बल्कि कौशल भारत अभियान के तहत प्रशिक्षत युवाओं को बैंकों से ऋण देने की भी ब्यवस्था है। पहले परंपरागत नौकरियों पर जोर दिया जाता था किन्तु इस योजना के तहत सभी प्रकार की नौकरियों के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। मनचाहे क्षेत्रों में युवा रोजगार पा सकें, इसके लिए भारत सरकार की यह एक सराहनीय पहल है। डॉक्टर,इंजीनियर बनाने वाले कोचिंग हब के रूप में प्रतिष्ठित कोटा शहर से हर वर्ष कुछ छात्रों के आत्महत्या की खबरें आती हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि कुछ छात्रों के माता-पिता उन्हें मनचाहे क्षेत्र में नहीं जाने देते और उनकी इच्छा के विरुद्ध डॉक्टर, इंजीनियर, मैनेजमेंट आदि कोर्स की तैयारी के लिए बाध्य करते हैं।कहा गया है- मन के हारे हार है,मन के जीते जीत...जो छात्र शुरुआती दौर में ही हतोत्साहित हो जाते हैं,वे डिप्रेसन का शिकार हो जाते हैं या नादानी में आत्महत्या तक कर लेते हैं। हमें अपनी शिक्षा प्रणाली में छात्रों को रोजगारपरक शिक्षा देने के साथ-साथ व्यवहारिक जीवन में हताशा निराशा और असफलता से कैसे लड़ें, हमारा आत्मविश्वास डगमगाए तो उसे पुनः कैसे प्राप्त करें? इससे संबंधित एक पाठ भी रखना ही चाहिए।                                     

पुरस्कारों से बहुत ऊपर है गीता प्रेस का स्थान





रासबिहारी पाण्डेय
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सनातन धर्म के ग्रंथों के सबसे बड़े प्रकाशक गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार दिए जाने का जहां चारों तरफ भरपूर स्वागत हुआ ,वहीं प्रगतिशीलता की खाल ओढ़े कुछ सेकुलर इसके विरोध में भी लग गए।
दुनिया के तमाम धार्मिक ग्रंथों से ऐसी बातें निकाली जा सकती हैं जो मानवता और संविधान विरोधी हैं लेकिन यह भी सच है कि इन ग्रंथों को पढ़कर हम अपने विवेक से उन चीजों को दरकिनार करके आगे बढ़ जाते हैं। बहुत संभव है कि ये ग्रंथ जिस समय लिखे गए थे, ये बातें उस समय की स्थितियों ;के अनुकूल रही हों। देश, काल और परिस्थिति केअनुसार हमें स्वयं यह निर्णय लेना होता है कि आज के लिए क्या उचित है? अगर गीता प्रेस न होता तो रामचरितमानस, रामायण, गीता, महाभारत, पुराण औ उपनिषद घर-घर तक सुलभ न हो पाते। गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित धार्मिक मासिक पत्रिका कल्याण के फिलहाल दो लाख से अधिक सदस्य हैं। अगर यह प्रकाशन चाहता तो प्रति महीने कई लाख के सरकारी/गैर सरकारी विज्ञापन इसमें छप सकते थे और इस तरह प्रेस का मुनाफा बढ़ सकता था।यही नहीं जो ग्रंथ जिस मूल्य पर यहां से मिल रहे हैं,अगर उसका दोगुना या तीन गुना दाम भी रखा जाए तो लोग उन्हें खरीदेंगे किंतु गीता प्रेस आमजन का ध्यान रखते हुए इसे न्यूनतम मूल्य पर उपलब्ध करा रहा है। कुछ खास दानदाताओं की उदारता के कारण प्रेस इस मिशन में सफल है। पिछले 100 वर्षों से अगर कोई संस्थान बिना किसी सरकारी अनुदान या कारपोरेट की सहायता के
सनातन धर्म के प्रचार में निरंतर लगा है तो क्या इसकी सराहना नहीं की जानी चाहिए? जो लोग धर्म को अफीम की संज्ञा देते हैं,क्या वे पूरी दुनिया से मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर और गुरुद्वारों का अस्तित्व समाप्त कर सकते हैं या अधिसंख्य आस्तिक आबादी को नास्तिक बना सकते हैं?यदि धर्म की शरण लेकर कोई सुख-शांति का अनुभव करता है और बिना कट्टरता को बढ़ावा दिए कोई इस कार्य में उसके लिए सहायक साबित हो रहा है तो इस पहल का स्वागत नहीं किया जाना चाहिए?गीता प्रेस को अपनी महानता सिद्ध करने के लिए किसी पुरस्कार या गांधी के नाम की जरूरत नहीं है। विगत चार पीढ़ियों से वह सनातन धर्म का पताका फहरा रहा है। महात्मा गांधी स्वयं कल्याण पत्रिका के लेखकों में रहे हैं। प्रेस के संस्थापकों से उनकी मित्रता जगजाहिर है।अन्य धर्मों की तरह सनातन धर्म की कोई एक किताब नहीं है लेकिन इन सभी किताबों का सार परोपकार और परहित ही है। जो छद्म सेकुलर गीता प्रेस का विरोध कर रहे हैं, वे कुरान और बाइबिल की आपत्तिजनक बातों पर कभी मुंह नहीं खोलते।गीता प्रेस की स्थापना के सौ वर्ष बाद उन्हें यह समझ में आ रहा है कि प्रेस समाज हित में काम नहीं कर रहा है।गत दिनों दो चौपाइयां निकालकर तुलसी कृत रामचरितमानस को प्रतिबंधित करने की मांग की जा रही थी, उसी तरह गीता प्रेस के सौ वर्ष के योगदान को अनदेखा करके गांधी शांति पुरस्कार दिए जाने की आलोचना की जा रही है। शरीर में ज्वर और पेट में अजीर्ण हो तो कितना भी स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ हो,हम उसका आनंद नहीं ले सकते। वैसे ही पार्टी की विचारधारा के खूंटे से बँधे लोग सरकार की आलोचना का कोई भी अवसर हाथ से जाने देना नहीं चाहते।समाज हित में गीता प्रेस का जो अवदान है,दुनिया का कोई भी पुरस्कार उसके लिए छोटा है।

बागेश्वर धाम का सच



रासबिहारी पाण्डेय


गत दिनों न्यूज चैनलों पर धार्मिक अंधविश्वास बनाम वैज्ञानिक सोच पर खूब बहस हुई।इसके केंद्र में थे बागेश्वर धाम के आचार्य धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री, जिनकी उम्र मात्र अभी मात्र २७ साल है।अभी उन्हें लंबा सफर सफर तय करना है,लेकिन इसी उम्र में उनको जो उपलब्धियां हासिल हुई हैं, उस पर रश्क किया जा सकता है। पौराणिक आख्यानों के अनुसार ध्रुव और प्रह्लाद को बहुत बचपन में ही सिद्धियां प्राप्त हो गई थीं।कहा गया है- तेजसां वयःन समीक्ष्यते।


धीरेंद्रकृष्ण चित्रकूट पीठाधीश्वर श्रीरामभद्राचार्य जी के शिष्य हैं जिन्हें रामायण,रामचरितमानस, श्रीमद्भगवद्गीता,श्रीमद्भागवत जैसे कितने ही ग्रंथ कंठस्थ हैं। कौन सा श्लोक किस अध्याय में कितने नंबर पर है,प्रज्ञा चक्षु होने के बावजूद उन्हें याद है।क्या यह किसी चमत्कार से कम है? श्रीरामजन्मभूमि के मुकदमे में जीत दिलाने में वेद शास्त्रों से उद्धरण निकाल कर उक्त स्थान की प्रामाणिकता सिद्ध करने में उनका अहम योगदान है।श्रीरामभद्राचार्य जी सहित हिंदू धर्म के कई आचार्यों ने धीरेंद्र की उपलब्धियों को उनकी साधना का चमत्कार बतलाया है।हनुमान जी के आराधक होने के नाते उन्हें प्रकाम्य सिद्धि प्राप्त है,जिसके अनुसार साधक प्रार्थी के मन की बात जान जाता है।


गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं-

कलि बिलोकि जग हित हर गिरिजा।

साबर मंत्र जाल जिन्ह सिरजा।।

अनमिल आखर अरथ न जापू।

प्रगट प्रभाव महेश प्रतापू।।

 देवाधिदेव महादेव और पार्वती ने कलिकाल के प्रकोप को देखते हुए ऐसे साबर मंत्रों की रचना की जिनके मंत्रों के अक्षर बेमेल हैं और जिनका कोई ठीक अर्थ नहीं लेकिन शिव जी के प्रताप से उनका प्रभाव प्रत्यक्ष है।लोक में कितने ही ओझा गुनी शारीरिक पीड़ाओं के निवारण और सांप बिच्छू के काटने पर इन मंत्रों से उपचार करते देखे जा सकते हैं।

हिंदू धर्म में आस्था रखने वाले व्यक्तियों को सनातन ग्रंथों के अतिरिक्त इस सदी में प्रकाशित दो पुस्तकों को अवश्य पढ़ना चाहिए।पहला 'हिमालय के साधु संत'और दूसरा 'योगी कथामृत', इन दोनों पुस्तकों में पिछले सौ दो सौ वर्षों के भीतर हुए अनेक सिद्ध संतों के चमत्कारिक कारनामों का विस्तार से वर्णन है। उत्तर भारत के लोग देवरहवा बाबा के नाम से खूब परिचित हैं। राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद बहुत बचपन में अपनी दादी के साथ उनके दर्शन करने गए थे तभी उन्होंने बता दिया था कि यह बालक एक दिन देश के एक महत्वपूर्ण पद पर बैठेगा। राष्ट्रपति बनने के बाद डाक्टर राजेंद्र प्रसाद उनके दर्शन के निमित्त पुनः गए थे।देवरहवा बाबा को पिछली चार पीढ़ियों से लोग देखते आ रहे थे और उनकी उम्र के बारे में किसी को ठीक-ठीक अंदाजा नहीं था।सभी कहते थे कि हमारे दादा भी मिले थे, हमारे परदादा भी मिले थे। अगर दो तीन सौ वर्षों से कोई व्यक्ति उसी रूप में मौजूद है तो यह भी किसी चमत्कार से कम नहीं है। पानी पर चलने,हवा से कोई फल प्रकट कर किसी को प्रसाद दे देना,उसके मन की बात बता देना, आने वालों को बिना पूर्व परिचय के नाम से पुकारना आदि उनके चमत्कार को लोगों ने बरसों बरस देखा।

रामकृष्ण परमहंस को काली माता की सिद्धि प्राप्त थी।अपने शिष्य स्वामी विवेकानंद को उन्होंने देवी का साक्षात्कार भी कराया था। स्वामी विवेकानंद ने एक पत्र में स्वयं यह स्वीकार किया है कि तमिलनाडु में उन्हें एक ऐसे व्यक्ति का साक्षात्कार हुआ था जिसने उनके भूत,भविष्य और वर्तमान के बारे में बहुत सारी बातें बता कर उन्हें चमत्कृत कर दिया था।

संसार में उनका ही जीना सार्थक है जो परोपकार में रत हैं।अगर कोई संत समाज को सात्विकता के साथ सत्कर्म के रास्ते पर चलते हुए ईश्वर आराधना के लिए प्रेरित कर रहा है और हर परीक्षा से गुजरने के लिए भी तैयार है तो टीआरपी की लालच में उसका मीडिया ट्रायल करना निंदनीय है।

परहित सरिस धर्म नहिं भाई।

पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।

दाद लोगों की, गला अपना, ग़ज़ल उस्ताद की



रासबिहारी पाण्डेय


साहित्यिक गोष्ठियों/ कवि सम्मेलनों में नि:संकोच या कहिए धड़ल्ले से दूसरे की रचनाएं पढ़ने वालों की तादाद पहले की अपेक्षा अब कहीं अधिक हो गई है। रचनाओं के लिए पहले ऐसे जीव काव्य संग्रहों के भरोसे रहते थे मगर फेसबुक, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम आदि आ जाने के बाद उनके लिए८ ज्यादे आसानी हो गई है। सोशल मीडिया से चुराई हुई रचनाएं ये लोग अपने नाम से समारोहों में न सिर्फ प्रस्तुत करने लगे हैं बल्कि हूबहू या थोड़ा हेर फेर करके कविता संग्रहों में छपाने भी लगे हैं। दिल्ली,कोलकाता या सुदूर किसी ग्रामीण अंचल में बैठे किसी कवि को क्या पता कि किसी दूसरे शहर में उसकी लिखी कविता कौन सुना रहा है या अपने नाम से काव्य संग्रह में छपा रहा है?

फेसबुक से चुरा कर फेसबुक पर ही पोस्ट करने वालों की भी अच्छी खासी संख्या है। कुछ समय पहले गजब हुआ... एक लेखिका ने एक लेखक की कहानी हूबहू उठाकर हंस पत्रिका में छपा ली। भारी लानत मलामत के बावजूद उसने अपनी गलती भी नहीं स्वीकार की। राहत इंदौरी ने कभी एक शेर कहा था-

'मेरे कारोबार में सबने बड़ी इमदाद की 

दाद लोगों की, गला अपना, गजल उस्ताद की।'

ऐसे भी दु:साहसी भरे पड़े हैं कि मूल रचनाकार के सामने ही उसकी रचना सुना देंते हैं।इस हादसे से बड़े-बड़े रचनाकार रूबरू हो चुके हैं।फिराक  गोरखपुरी के सामने ही एक युवा शायर ने जब उनका कलाम सुनाया तो फिराक ने टोका- बरखुरदार!तुमने अपने नाम से मेरा कलाम कैसे सुना दिया? शायर ने कहा-  कभी-कभी खयालात टकरा जाते हैं फिराक साहब। फिराक ने कहा-' साइकिल से साइकिल तो टकरा सकती है लेकिन साइकिल से हवाई जहाज नहीं टकरा सकता।' इतना मारक जुमला सुनकर शायर पानी पानी हो गया।

 उर्दू में दो तरह की चोरी मानी गई है। पहले को सरका और दूसरे को तवारुद कहते हैं। जब किसी की रचना हूबहू चुरा ली जाए तो उसे सरका और थोड़ा घालमेल के साथ प्रस्तुत की जाय तो उसे तवारुद कहते हैं।ऐसे कवियों को लोग चरबा करने वाला शायर भी कहते हैं।मंच से अतिरिक्त ध्यान और सम्मान पाने के लिए कुछ कवि/ शायर पीएचडी न होने के बावजूद स्वघोषित डॉक्टर बन जाते हैं।ये अपने कुछ चेले भी पाल कर रखते हैं जो मंच के नीचे से उन्हें वाह डॉ. साहब,वाह डॉ.साहब की आवाज लगा कर दाद दिया करते हैं। किसी वरिष्ठ कवि ने डॉक्टरेट के बारे में पूछने की गुस्ताखी कर दी तो उससे उलझ जाएंगे या फिर कोई झूठ गढ़कर सुना देंगे- फलां यूनिवर्सिटी ने मुझे मानद डिग्री प्रदान की है।

हिंदी उर्दू कवि सम्मेलन /मुशायरों के मंच पर अनेक कवयित्रियां ऐसी हैं जिनके पास अपना कलाम नहीं है। लिखने का काम उनके उस्ताद या प्रेमी करते हैं,सज संवर कर नाजो अदा से सुनाने का काम उनका होता है।कवियों  और संचालकों के साथ उनका उत्तर प्रति उत्तर ऐसा होता है कि बड़े-बड़े कव्वाल शर्मा जाएँ। वाणी की वेश्यावृत्ति इसे ही कहते हैं। इनमें से कई इतनी शातिर हैं कि हिंदी उर्दू की मजलिसें चला रही हैं और उसके नाम पर अच्छा खासा चंदा भी वसूल रही हैं। इनकी असलियत जानने के बावजूद नई पुरानी उम्र के अधिकांश कवि शायर नजदीकियां बनाये रहने को न सिर्फ आतुर रहते हैं बल्कि उनके प्रोमोशन और उत्साहवर्द्धन में भी लगे रहते हैं। कभी विकल साकेती ने कहा था- 

भौरों से गीत लेकर कलियां सुना रही हैं

रसपान करने वाले रसपान कर रहे हैं।

समाज के कर्णधारों की यह जिम्मेदारी बनती है कि बरसात में खर पतवार की तरह उग आये इन नकली कवि शायरों को इनकी औकात बताएं और समाज को साहित्यिक प्रदूषण से बचाएँ।

शुक्रवार, 22 अगस्त 2025

कुमार विश्वास की धृष्टता


रासबिहारी पाण्डेय


दुनिया भर के वक्ता रामकथा के लिए वाल्मीकि और तुलसीदास रचित रामायण को आधार बनाते हैं ,मगर कुमार विश्वास ने एक उर्दू शायर की नज्म को आधार बनाकर यूट्यूब पर'किसके गुलाम हैं राम'शीर्षक से एक वीडियो डाला है जिसके अनुसार भगवान राम अपनी एक जाँघ पर सीता को और दूसरी जाँघ पर शबरी को लिटाकर बेर खिला रहे हैं,तभी लक्ष्मण पानी लेकर पहुँचते हैं और यह देखकर उनकी त्यौरी चढ़ जाती है। शबरी से राम का मिलन सीता हरण के बाद होता है।किसी भी रामायण में शबरी और सीता को जाँघ पर सुलाने का प्रसंग नहीं है।उर्दू शायर रामकथा के आचार्य कबसे हो गए ?क्या किसी हिंदी कवि में यह साहस है कि वह कुरआन में फेरबदल करके अपनी कविता का विषय बनाए؟ 'सर तन से जुदा'का फतवा जारी होने में एक दिन की भी देर नहीं लगेगी।कुमार विश्वास ने यह बहुत बड़ा दु:साहस किया है,उन्हें हिंदू समाज से माफी माँगते हुए तत्काल यह वीडियो हटा लेना चाहिए। 

इनके द्बारा एक और गलत उद्धरण दिया जा रहा है।बहेलिए द्वारा नर क्रौंच को निशाना बनाये जाने के बाद मादा क्रौंच के विलाप से द्रवित होकर वाल्मीकि ने पहला श्लोक रचा लेकिन स्वघोषित युग कवि उल्टी कथा सुना रहे हैं कि नर पक्षी रोने लगा तब वाल्मीकि के मुख से यह श्लोक फूटा,यही नहीं नर पक्षी के रुदन को विशेष महिमा मंडित भी कर रहे हैं। भगवान इन्हें सद्बुद्धि दे और श्रोताओं को विवेक ताकि इनके अनाप शनाप कथन को ग्रहण न करें।

इनकी कथा रामकथा कम,किसी मोटिवेसनल स्पीकर की स्पीच अधिक लगती है। 

वे जब तब भगवान राम के लिए इमामे हिंद शब्द का भी उपयोग करते हैं. इमाम का अर्थ मुस्लिम पुरोहित होता है. भगवान राम तो अनंतकोटि ब्रह्मांड नायक परम ब्रह्म हैं जिनसे करोड़ों हिंदुओं की आस्था जुड़ी है,उन्हें इमाम बता कर वे न सिर्फ अपनी अज्ञानता का परिचय दे रहे हैं बल्कि करोड़ों हिंदुओं की आस्था का भी निरादर कर रहे हैं।

आज ही कथा का स्वरूप बिगड़ा है,ऐसा नहीं है,आदिकाल से राक्षस/राक्षसियाँ अपने स्वार्थ बस साधु/साध्वी का वेष बनाते रहे हैं. रामचरितमानस में रावण और कालनेमि द्वारा भी कथा का जिक्र आता है.लेकिन यह भी कहा है कि- 

उघरहिं अंत न होय निबाहू/

कालनेमि जिमि रावन राहू//

एक न एक दिन इनका भाँडा फूट ही जाता है.बावजूद इसके कलिकाल में इनके समर्थकों को कोई फर्क नहीं पड़ता.आसाराम बापू अगर जेल से आज रिहा हो जायँ तो कल से पुन:इनके समर्थक जय जयकार करने में जुट जाएँगें.जिन लोगों ने किसी भी क्षेत्र में अपना नाम दाम बना लिया है,उनके समर्थक अपने लाभ के मद्देनजर आँख मूँदकर उनके लिए कुछ भी करने को तैयार हैं.

बहुतेरे कथावाचकों को सुनते हुए लगता है कि वे सिर्फ गप शप या जगत चर्चा में लगे हैं,कथा के बाद जब आरती होने लगती है तब राम कृष्ण का नाम सुनाई पड़ता है.

मानव मन की ऐसी कौन सी उलझन है जिसको सूर,तुलसी,मीरा,कबीर या भक्तिकाल के अन्य कवियों ने स्वर नहीं दिया है,बावजूद इसके कथाओं में फिल्मी गीत /ग़ज़लों का सहारा लिया जा रहा है.

कथावाचकों के सहारे  उनके अनुयायियों /संयोजकों को कमाई का भरपूर मौका मिलता है,इसलिए वे उनकी किसी भी बात का आँख मूँद कर समर्थन करते हैं .

जैसे वोट बैंक के लिए नेता " अल्पसंख्यक हितों " शब्द का सहारा लेते हैं,वैसे ही इनके समर्थक भी सर्वधर्म समभाव की बात करते हैं। व्यासपीठ से इस्लाम की वकालत करने वालों को सही कैसे ठहराया जा सकता है؟ सबसे अधिक सहिष्णु या नास्तिक हिंदुओं में ही हैं,मुस्लिम ,ईसाई,बौद्ध और सिक्खों में यह कंफ्यूजन नहीं है।


सुदर्शन न्यूज चैनल ने धर्म शुद्धि अभियान के तहत दावा किया था कि  उसके पास  प्रवचनकर्ताओं के इस्लाम प्रेम वाले ३२३ वीडियो हैं जिसमें ३४ वीडियो सिर्फ मोरारी बापू के हैं।चैनल ने यह भी वादा किया था कि धर्म संसद आयोजित करेगाऔर सबसे माफी मँगवाएगा,हिंदुओं को कथा जेहाद करने वालों के खिलाफ जागृत करेगा,लेकिन संसाधनों की कमी का बहाना बनाते हुए उसने जल्द ही यह अभियान बंद कर दिया। खोजी पत्रकारों के लिए यह भी एक बड़ा मुद्दा है.

कोरोना काल के दौरान मोरारी बापू और अन्य कई कथाकारों ने व्यास पीठ से अपने इस्लाम प्रेम वाले वक्तव्यों के लिए माफी माँगी।

तभी चित्रकूट पीठाधीश्वर स्वामी रामभद्राचार्य ने कथावाचकों को संदेश दिया कि प्रवचन के दौरान भारतीय वाड़मय से ही उद्धरण देना चाहिए न कि फिल्मी गाने और उर्दू शायरी का सत्र शुरू करना चाहिए. गोस्वामी तुलसीदास ने मानस में कहा है -

जेहि महँ आदि मध्य अवसाना/

प्रभु प्रतिपाद्य राम भगवाना//

इस मुद्दे पर जो बिल्कुल चुप हैं,उनके लिए दिनकर की यह पंक्ति सादर समर्पित है-

जो तटस्थ हैं,समय लिखेगा ,उनका भी अपराध|

गुरुवार, 21 अगस्त 2025

हिंदी कविता का वर्त्तमान परिदृश्य

 


रासबिहारी पाण्डेय

पिछले पचास साठ वर्षों से छंदमुक्त कविता फैशन में है। पत्र-पत्रिकाओं और अकादमी पुरस्कारों में इसी को वरीयता दी जा रही है।केंद्रीय साहित्य अकादमी,दिल्ली ने  माखनलाल चतुर्वेदी रचित 'हिम तरंगिणी' के अलावा किसी  छंदबद्ध काव्य संकलन को पुरस्कार के योग्य नहीं समझा। सुमित्रानंदन पंत,हरिवंश राय बच्चन, रामदरश मिश्र, भवानी प्रसाद मिश्र जैसे छंद में लिखने वाले समर्थ रचनाकारों के भी उस संकलन को पुरस्कृत नहीं किया गया जो छंदबद्ध था,सायास उस काव्य संकलन को चुना गया जो छंद में नहीं है।प्रश्न यह है कि क्या पिछले 67 वर्षों में  हिंदी जगत में ऐसा कोई काव्य संकलन आया ही नहीं जो साहित्य अकादमी पुरस्कार के योग्य हो या निर्णायकों ने जानबूझकर एक रणनीति के तहत छंद वाली कविता की उपेक्षा की?दूसरी बात सच के ज्यादा करीब है।निश्चित रूप से छंद में ऐसी कई कृतियांआई हैं लेकिन अकादमी के निर्णायकों ने अपने पूर्वाग्रहों के कारण उन कृतियों को अनदेखा किया?श्याम नारायण पांडेय,भारतभूषण, सोम ठाकुर,सूर्यभानु गुप्त,सत्यनारायण, माहेश्वर तिवारी, बुद्धिनाथ मिश्र,उमाकांत मालवीय,श्रीकृष्ण तिवारी,कैलाश गौतम समेत अन्य कई महत्त्वपूर्ण कवि हैं जिनके काव्य संकलन साहित्य अकादमी पुरस्कार के योग्य हैं।इन संकलनों की रचनाएं जनमानस में लोकप्रिय भी हैं। त्रिलोचन की एक कविता है_
दौड़ दौड़ कर असमय-समय न आगे आए 
वह कविता क्या जो कोने में बैठ लजाए!
अकादमी से पुरस्कृत कृतियों के संस्करण कुछ हजार लोगों के बीच सिमट कर रह जाते हैं।सबसे बड़े राजकीय पुरस्कार से पुरस्कृत कृति को आम पाठक छूता भी नहीं क्योंकि यह उसके समझ से बाहर की चीज होती है मगर पाठ्यक्रमों में लगाकर इन्हें छात्रों को पढ़ने के लिए विवश किया जाता है।छात्र परिश्रम से इन कविताओं पर लंबी व्याख्यायें लिखते हैं और परीक्षा पास होने के बाद फिर जीवन भर पलट कर नहीं देखते।
साहित्य अकादमी पुरस्कार देते समय कई बार वरिष्ठता और कनिष्ठता  का क्रम भी भूल जाती है। नामवर सिंह को अपने गुरु हजारी प्रसाद द्विवेदी से दो वर्ष पूर्व ही साहित्यअकादमी पुरस्कार मिल गया था। साहित्य की लगभग सभी विधाओं में विपुल साहित्य रचने वाले रामदरश मिश्र से बहुत पहले मंगलेश डबराल, राजेश जोशी और वीरेन डंगवाल को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल चुका था।यही नहीं हिंदी के कई महत्वपूर्ण रचनाकारों को साहित्य अकादमी पुरस्कार के योग्य नहीं समझा गया लेकिन उनका साहित्यिक सम्मान इससे रंच मात्र भी कम नहीं हुआ।कोई भी पुरस्कार किसी रचना को बड़ा या छोटा नहीं बना सकता। 

अब कुछ बातें वाचिक परंपरा के हवाले से हिंदी कवि सम्मेलनों की कर लें।हिंदी कवियों के भुगतान के नाम पर  आजकल करोड़ों रुपए का लेनदेन हो रहा है।अधिकांश पैसा ब्लैक में लिया दिया जाता है।कमीशनखोरी चरम पर है। कवि सम्मेलनों में सक्रिय बहुत कम कवि ऐसे हैं जो साहित्यिक मानकों पर खरे उतरते हैं। यहाँ अधिकांश सतही रचनाकार होते हैं। आजकल समाज का बुद्धिजीवी कहा जाने वाला तबका भी इन्हें प्रश्रय देने लगा है।
जानी बैरागी और मुन्ना बैटरी जैसे नमूने सिर्फ मेले ठेले में नहीं जा रहे हैं,इन्हें मोरारी बापू जैसे संत भी भरपूर पैसा देकर नीचे बैठ कर सुन रहे हैं। अब इन्हें कौन समझाए?देखादेखी अनेक यज्ञ मंडपों में भी तथाकथित हास्य कवि सम्मेलन होने लगे हैं।
अखबारों के वार्षिक आयोजन कभी समकालीन साहित्य की नुमाइंदगी करते थे,वरिष्ठ साहित्यकार / पत्रकार यहां मुख्य अतिथि हुआ करते थे,लेकिन अब यहां एहसान कुरेशी जैसे कॉमेडियन ससम्मान बुलाये जा रहे हैं।
 उत्तर प्रदेश और बिहार में कई समाचार पत्र कवि सम्मेलनों की सीरीज चलाते हैं जिसमें सात आठ कवियों से  एक साथ आठ दस कवि सम्मेलनों के लिए लाखों का कांट्रेक्ट किया जाता है,यहां भी लतीफेबाजों को प्रवेश मिल जाता है। स्तरीय हास्य व्यंग्य लिखने वालों को नॉन कमर्शियल कहके छांट दिया जाता है। जो संत और समाचारपत्र सामाजिक बुराइयों को दूर करने की वकालत करते हैं , वे अपने गिरेबान में खुद भी तो झांककर देखें!
कवि सम्मेलनों में प्रदूषण के जिम्मेदार सिर्फ लतीफेबाज और भड़ैत ही नहीं है बल्कि इससे अधिक जिम्मेदार वे संयोजक और अधिकारी / व्यापारी हैं जिन्हें चुटकुले सुनने में ज्यादा मजा आता है।वे कवियों से दांत निपोरते हैं कि भैया हास्य कवि सम्मेलन कराइये ...ज्यादा से ज्यादा हास्य कवियों को बुलाइए। ऐसी कवयित्री को बुलाइए जो डबल मीनिंग बातें करने के साथ साथ गुप्त मनोरंजन भी कर सके। आजकल दलाल हर जगह सक्रिय हैं ,उनकी मांगें आसानी से पूरी कर देते हैं।वे बेशर्मी से कहते भी हैं कि हम नहीं करेंगे तो कोई और कर देगा तो फिर हम यह मौका क्यों गँवाएं?
कुछ संयोजकों से मैंने पूछा कि अगर आपको स्टैंडअप कॉमेडियन जैसा ही मनोरंजन चाहिए तो फिर सीधे-सीधे उन्हें ही क्यों नहीं बुलाते ?उनका जवाब होता है कि भाई साहब वे बहुत महंगे पड़ते हैं, हमारा इतना बजट नहीं होता। संयोजकों की बढ़ती डिमांड के कारण बरसात में खरपतवार की तरह गली गली हास्य कवि पैदा हो गए क्योंकि उन्हें बस चुटकुलों की सीरीज बनानी थी। लड़कियों ने रचनाधर्मिता को  समय देने की बजाय देह बेचना शुरू कर दिया,क्योंकि उन्हें रातोंरात अमीर बनना था;नाम और दाम कमाना था। वे मंच पर नौटंकी वाली हरकतें करने लगीं। कवि जोकरों सी हरकतें करने लगे।वाणी की वेश्यावृत्ति  का नया ट्रेंड शुरू हो गया।
ये फूले फूले फिरने लगे कि हम तो बहुत बड़े सेलीब्रिटी हो गए हैं। 
 कवि सम्मेलनों में धड़ल्ले से दूसरे की रचनाएं पढ़ने वालों की तादाद पहले की अपेक्षा अधिक हो गई है। रचनाओं के लिए पहले ऐसे जीव काव्य संग्रहों के भरोसे रहते थे मगर फेसबुक, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम आदि आ जाने के बाद उनके लिए  ज्यादे आसानी हो गई है। सोशल मीडिया से चुराई हुई रचनाएं ये लोग अपने नाम से समारोहों में न सिर्फ प्रस्तुत करने लगे हैं बल्कि हूबहू या थोड़ा हेर फेर करके कविता संग्रहों में छपाने भी लगे हैं। दिल्ली,कोलकाता या सुदूर किसी ग्रामीण अंचल में बैठे किसी कवि को क्या पता कि किसी दूसरे शहर में उसकी लिखी कविता कौन सुना रहा है या अपने नाम से काव्य संग्रह में छपा रहा है?
फेसबुक से चुरा कर फेसबुक पर ही पोस्ट करने वालों की भी अच्छी खासी संख्या है। पिछले दिनों एक लेखिका ने फेसबुक से एक लेखक की पोस्ट हूबहू उठाकर हंस पत्रिका में कहानी के रूप में छपा ली। भारी लानत मलामत के बावजूद उसने अपनी गलती नहीं स्वीकार की। राहत इंदौरी ने कभी एक शेर कहा था-
'मेरे कारोबार में सबने बड़ी इमदाद की 
दाद लोगों की, गला अपना, गजल उस्ताद की।'
ऐसे भी दु:साहसी भरे पड़े हैं कि मूल रचनाकार के सामने ही उसकी रचना सुना देंते हैं।इस हादसे से बड़े-बड़े रचनाकार रूबरू हो चुके हैं।फिराक  गोरखपुरी के सामने ही एक युवा शायर ने जब उनका कलाम सुनाया तो फिराक ने टोका- बरखुरदार!तुमने अपने नाम से मेरा कलाम कैसे सुना दिया? शायर ने कहा-  कभी-कभी खयालात टकरा जाते हैं फिराक साहब।
 फिराक ने कहा-' साइकिल से साइकिल तो टकरा सकती है लेकिन साइकिल से हवाई जहाज नहीं टकरा सकता।' इतना मारक जुमला सुनकर शायर पानी पानी हो गया।
 उर्दू में दो तरह की चोरी मानी गई है। पहले को सरका और दूसरे को तवारुद कहते हैं। जब किसी की रचना हूबहू चुरा ली जाए तो उसे सरका और थोड़ा घालमेल के साथ प्रस्तुत की जाय तो उसे तवारुद कहते हैं।ऐसे कवियों को लोग चरबा करने वाला शायर भी कहते हैं।मंच से अतिरिक्त ध्यान और सम्मान पाने के लिए कुछ कवि/ शायर पीएचडी न होने के बावजूद स्वघोषित डॉक्टर बन जाते हैं।ये अपने कुछ चेले भी पाल कर रखते हैं जो मंच के नीचे से उन्हें वाह डॉ. साहब,वाह डॉ.साहब की आवाज लगा कर दाद दिया करते हैं। किसी वरिष्ठ कवि ने डॉक्टरेट के बारे में पूछने की गुस्ताखी कर दी तो उससे उलझ जाएंगे या फिर कोई झूठ गढ़कर सुना देंगे- फलां यूनिवर्सिटी ने मुझे मानद डिग्री प्रदान की है।
हिंदी उर्दू कवि सम्मेलन /मुशायरों के मंच पर अनेक कवयित्रियां ऐसी हैं जिनके पास अपना कलाम नहीं है। लिखने का काम उनके उस्ताद या प्रेमी करते हैं,सज संवर कर नाजो अदा से सुनाने का काम उनका होता है।कवियों  और संचालकों के साथ उनका उत्तर प्रति उत्तर ऐसा होता है कि बड़े-बड़े कव्वाल शर्मा जाएँ। वाणी की वेश्यावृत्ति इसे ही कहते हैं। इनमें से कई इतनी शातिर हैं कि हिंदी उर्दू की मजलिसें चला रही हैं और उसके नाम पर अच्छा खासा चंदा भी वसूल रही हैं। इनकी असलियत जानने के बावजूद नई पुरानी उम्र के अधिकांश कवि शायर नजदीकियां बनाये रहने को न सिर्फ आतुर रहते हैं बल्कि उनके प्रोमोशन और उत्साहवर्द्धन में भी लगे रहते हैं। कभी विकल साकेती ने कहा था- 
भौरों से गीत लेकर कलियां सुना रही हैं
रसपान करने वाले रसपान कर रहे हैं।
समाज के कर्णधारों की यह जिम्मेदारी बनती है कि बरसात में खर पतवार की तरह उग आये इन नकली कवि शायरों को इनकी औकात बताएं और समाज को साहित्यिक प्रदूषण से बचाएँ।
 कुछ लोगों का कहना है कि  ये भड़ैत और लतीफेबाज  मंचों पर इसलिए काबिज हैं क्योंकि  जनता का भरपूर मनोरंजन करते हैं। साहित्यिक कवि जनता का मनोरंजन करने में सफल नहीं होते, इसलिए उन्हें नहीं बुलाया जाता। मैं उनसे निवेदन करना चाहता हूं कि वे अपनी धारणा बदलें। कविता का उद्देश्य सिर्फ मनोरंजन नहीं होता, मनोरंजन के साथ-साथ वह हमें बेहतर मनुष्य बनने के लिए भी प्रेरित करती है। देश और समाज में फैली कुरीतियों से भी लड़ने का जज्बा देती है।साहित्यिक कवियों को मंचों पर नहीं बुलाया जाता है या वे सफल नहीं होते हैं,ऐसा बिलकुल नहीं है,लेकिन उस मात्रा में उन्हें नहीं बुलाया जाता इसलिए वे लोगों की नजर में नहीं हैं।चूंकि उन्होंने कविता को व्यापार नहीं बना रखा है और  दिन रात अपनी मार्केटिंग में नहीं लगे रहते, संयोजकों और कारपोरेट की दलाली  नहीं करते,लोग जब खुद संपर्क करते हैं तभी जाते हैं,इसलिए  वे उस तरह विज्ञापित नहीं हैं जिस तरह  नदी में उतराते हुए मुर्दे की तरह ये काव्यद्रोही दिखते हैं। सरकारी,गैर सरकारी उपक्रमों में जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों को इन कवियों को चिन्हित कर उन्हें बुलाना चाहिए और काव्य मंचों को प्रदूषण से दूर करना चाहिए। उदाहरण के तौर पर मैं कुछ नाम दे रहा हूं जिन्हें मैंने शुद्ध साहित्यक या भीड़ भरे कवि सम्मेलनों में भी कभी असफल होते नहीं देखा।जनता उन्हें भरपूर सराहती है।ये वे नाम हैं जो मुझे तत्काल याद आ रहे हैं, इससे इतर भी अनेक नाम ऐसे हैं जो कविता की कसौटी पर खरे उतरते हैं और काव्य मंचों पर भी भरपूर सफल होते हैं लेकिन गुटबाजी की वजह से उन्हें दरकिनार कर दिया जाता है। हर जिले और राज्य से ऐसे कवियों को आगे लाने की जरूरत है। इस सूची में आप अपनी तरफ से भी कुछ नाम जोड़ें  और काव्य मंच शुचिता के इस यज्ञ में अपनी आहुति डालें- 
नरेश सक्सेना , बुद्धिनाथ मिश्र,शिवओम अंबर,उदय प्रताप सिंह,गोविंद व्यास,दीक्षित दनकौरी,डॉ.सुरेश,नरेश कात्यायन,लक्ष्मी शंकर बाजपेयी,जमुना प्रसाद उपाध्याय,मंगल नसीम,रमेश शर्मा,गणेश गंभीर आदि और 
कवयित्रियों में दीप्ति मिश्र, प्रज्ञा विकास,रचना तिवारी, भावना तिवारी,रुचि चतुर्वेदी,भूमिका जैन,दीपशिखा सागर,सोनी सुगंधा,शिवा त्रिपाठी आदि की सहभागिता किसी भी कवि सम्मेलन की सफलता की गारंटी मानी जा सकती है।
एक सज्जन है जो आजकल खुद को युग कवि कहने लगे हैं । कवि सम्मेलनों को बिगाड़ने में इनका भी बहुत बड़ा हाथ है। इनको कौन समझाए कि एक युग में कई शताब्दियां शामिल होती हैं।अपनी खुशी के लिए हम मान भी लें तो 
हमारे युग कवि पंत,प्रसाद, निराला, दिनकर और बच्चन जैसे कवि हैं। हर पंक्ति के बाद चुटकुले सुनाने वाले व्यक्ति को तो कवि का भी दर्जा नहीं दिया जा सकता, उसे तो शुद्ध स्टैंड अप कॉमेडियन कहा जाता है।ये महोदय
बाबा की खाल ओढ़ कर देश के तमाम कवियों की कविताएं नाम लिए या न लिए बिना सुना कर दोनों हाथों से पैसा बटोर रहे हैं।
ऐसी कौन सी भावना है जिसे सूर,तुलसी, कबीर,मीरा,रैदास आदि ने  अपनी रचनाओं में व्यक्त नहीं किया है। धर्मग्रंथों और भक्त कवियों की रचनाओं के अध्ययन के लिए पर्याप्त समय चाहिए मगर कथा के व्यापारी के पास इतना
समय कहां ? दुख तो इस बात का है कि हिंदी के तमाम स्थापित कवि ऐसी हरकत का विरोध करने की बजाय मौन साधे हुए हैं। 
कवि सम्मेलनों में फूहड़ फिल्मी गीतों की तर्ज पर पैरोडी सुनते हुए ऐसा लगता है जैसे कानों में शीशा पिघलाया जा रहा हो किंतु संचालक न सिर्फ खुद  वाह वाह कर रहा होता है बल्कि पब्लिक को भी तालियां बजाने के लिए उकसाने में लगा रहता है। पब्लिक को यहां तक कहा जाता है कि अभी ताली नहीं बजायी तो अगले जन्म में घर-घर जाकर बजाना पड़ेगा, यानी अगले जन्म में हिजड़ा बनोगे ....तो भी लोग ही ही ही ही करते रहते हैं। इससे श्रोताओं के स्तर का भी पता चल जाता है।इधर एक वीडियो किसी ने भेजा- कोई कवयित्री ' झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में 'की तर्ज पर एक पैरोडी सुना रही थी...तथाकथित युग कवि जिन्हें अधिकांश लोग आजकल चुग कवि कहने लगे हैं, उछल उछल कर ताल देते हुए कह रहे थे....फिर क्या हुआ? वीभत्सता चरम पर थी।
ग़लिब का शेर याद आता है....
काबे किस मुँह से जाओगे ग़ालिब 
शर्म तुमको मगर नहीं आती !
 आपने गौर किया होगा कि आज के कवि सम्मेलनों में  देश की नामचीन हस्तियां और ब्यूरोक्रेट आने से परहेज करते हैं,जबकि ये संगीत समारोहों और कला महोत्सवो में खूब जाते हैं। अपने जमाने में  प्रधानमंत्री रहते हुए जवाहर लाल नेहरू,इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने भी बैठकर कवि सम्मेलन सुने हैं। धीरे-धीरे ऐसा दौर आया कि केंद्रीय मंत्रियों को छोड़िए विधायक और नगरसेवक भी कवि सम्मेलनों में जाने से कतराने लगे। इसका कारण पता है आपको ...कवि सम्मेलनों में कविता के नाम पर पैरोडियां और लतीफे सुनाये जाने लगे। यही नहीं कोई दो कौड़ी का रचनाकार भी बड़ी से बड़ी शख्सियत की टोपी उछालने लगा और उसके नाम से झूठे लतीफे गढ़ने लगा। विवादों से बचने के लिए ये हस्तियां इनसे किनारा करने लगीं।कुछ ऐसी घटनाएं हुईं कि उनके चमचों ने कवि की खूब लानत मलामत भी की। कवियों, आयोजकों और पूरे समाज की यह जिम्मेवारी बनती है कि कवि के वेश में ऐसे बदतमीज और घटिया रचनाकारों को आने से रोकें और  सरस्वती के इस पावन मंदिर को दूषित होने से बचाएं।