रासबिहारी पाण्डेय
सिंह कुछ दूर चलने के बाद मुड़कर देखता है, इसे सिंहावलोकन कहते हैं। पंछी आकाश में उड़ते उड़ते धरती की ओर दृष्टिपात करते हैं, उसे विहंगावलोकन कहते हैं। इसी प्रकार भारत सरकार प्रतिवर्ष 14 सितंबर और 10 जनवरी को देश में हिंदी के कामकाज की वर्तमान स्थिति का अवलोकन करती है मगर हर बार इसी नतीजे पर पहुंचती है कि हिंदी अभी इस लायक नहीं हुई है कि उससे पूरी तरह देश की शासन व्यवस्था और न्याय व्यवस्था चलाई जा सके। 135 करोड़ की आबादी वाले हमारे देश की अपनी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। हिंदी को अभी मात्र राजभाषा का दरजा प्राप्त है। संविधान के अनुसार हिंदी के कारण समझ में कहीं कोई दुविधा की स्थिति आती है तो आशय को स्पष्ट करने के लिए संविधान का अंग्रेजी संस्करण ही मान्य होगा।
जापान, रूस , जर्मनी, ब्रिटेन आदि सभी विकसित देश अपनी भाषा में चिकित्सा (मेडिकल), अभियांत्रिकी (इंजीनियरिंग),प्रबंधन(मैनेजमेंट),अंतरिक्ष विज्ञान(स्पेस साइंस)आदि की पढ़ाई करा रहे हैं और नित नयी ऊँचाइयां छू रहे हैं। एक अपना देश है कि अंग्रेजी में ही ये पाठ्यक्रम उत्तीर्ण करने के लिए मजबूर कर रहा है। हिंदी माध्यम से ये डिग्रियां देने के लिए एक दो विश्वविद्यालय अपवाद की तरह खुल गए हैं,कामचलाऊ अध्ययन सामग्री भी बना ली गई है,मगर वहां से शिक्षा प्राप्त करने वालों को दोयम दर्जे का माना जाता है। उनकी वह प्रतिष्ठा नहीं है,जो अंग्रेजी माध्यम वालों की है। यह मानसिकता बदलने की जरूरत है।
जिस प्रकार माध्यमिक कक्षा में अंग्रेजी और गणित में उत्तीर्ण होने की अनिवार्यता के कारण देश के लाखों विद्यार्थी पढ़ाई छोड़कर घर बैठ जाते हैं,उसी प्रकार अंग्रेजी में निष्णात न होने की वजह से देश के लाखों विद्यार्थी डॉक्टर,इंजीनियर,वैज्ञानिक आदि बनने से वंचित रह जाते हैं।अंग्रेजी शिक्षा के नाम पर ही कोचिंग संस्थानों और कान्वेंट स्कूलों का गोरखधंधा भी चल रहा है। इनकी महंगी फीस देना सामान्य या मध्यमवर्गीय परिवारों के बस में नहीं है। पटना,दिल्ली,कोटा,प्रयागराज समेत
कई शहरों में
आइआइटी,आइआइएम,मेडिकल आदि पाठ्यक्रमों के कोचिंग के नाम पर लाखों रुपये वसूले जाते हैं।ये पाठ्यक्रम यदि हिंदी भाषा में हों तो विद्यार्थियों की आधी समस्या ऐसे ही सुलझ जाय। अंग्रेजी का ताला लगाकर देश की एक बड़ी आबादी को प्रगति की सीढ़ियां चढ़ने से रोक दिया गया है।
एक बात यह भी आती है कि दक्षिण भारतीय सांसद हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का विरोध करते हैं,इसलिए हमारी सरकार उन्हें खुश रखने के लिए कदम पीछे हटा लेती है। अगर धारा ३७० और राम मंदिर जैसे पेचीदे मसले को सुलझाया जा सकता है तो भाषा के मुद्दे पर एकजुट होकर समाधान क्यों नहीं निकाला जा सकता ? यह सर्वविदित है कि हिंदी के अतिरिक्त ऐसी कोई अन्य भाषा नहीं है जिसमें राष्ट्रभाषा बनने की क्षमता हो। पूरे देश में बोली और समझे जाने वाली एकमात्र भाषा हिंदी है। हमें इस मुहिम को एक अभियान की शक्ल देनी ही होगी और इसके लिए निम्नांकित बिंदुओं पर भी अमल करना जरूरी है।
१जहां भी संभव हो हिंदी में आवेदन करें।
२हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित करने के लिए हस्ताक्षर अभियान चलायें और हर जगह अपने हस्ताक्षर हिंदी में करें।
३न्यायालयों में वकीलों और जजों को हिंदी में बहस करने और निर्णय सुनाने के लिए दबाव बनायें।
४अपने बच्चों को हिंदी साहित्य से परिचित करायें।
५हम हिंदी बोलने में गर्व का अनुभव करें,जो लोग झिझकते हैं उन्हें प्रोत्साहित करें।
दुष्यंत कुमार का शेर है -
' कैसे आकाश में सुराख नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।'
हमें पत्थर उछालने की पहल करनी ही होगी।
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