जंग बिना ही मरेंगे लाखों मातम घर-घर देखेंगे!
21'वीं सदी में ग़ज़ल सबसे लोकप्रिय काव्य विधा बनकर उभरी है।छंद में लिखने वाले लगभग सभी कवि ग़ज़ल कहने लगे हैं।जीवन की प्राथमिकताएं जिस प्रकार बदली हैं , उनमें किसी एक विषय पर ठहर कर देर तक सोचने और निकष तक पहुंचाने का समय नहीं रह गया है। ग़ज़ल कहने में यह सुविधा है कि दो पंक्तियों वाले हर शेर के बाद किसी अन्य विषय पर बात की जा सकती है ,बस रदीफ,काफिए और बहर का खयाल रखना है। हालांकि ग़ज़ल की दुनिया में इतने मील के पत्थर हैं कि उनके समकक्ष या उनसे आगे निकलकर शायरी कर पाना एक बड़ी चुनौती है किंतु कविता हर युग में अपने नए प्रतिमान गढ़ती है और अपने नए नुमाइंदों का इंतखाब करती है ।वरिष्ठ शायर विजय अरुण पिछले 50 सालों से ग़ज़लों पर काम कर रहे हैं।उर्दू के वरिष्ठ शायर और समीक्षक कालिदास गुप्ता रिज़ा के प्रिय शागिर्द के रूप में लंबे अरसे तक उन्होंने शायरी की बारीकियां सीखी हैं।रिजा साहब और उनका साथ नैरोबी में ही बन गया था, बाद में गुरू शिष्य दोनों मुंबई आ गए।
87 वर्ष की उम्र में विजय अरुण जी का पहला ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हुआ है - 'ग़ज़ल कमल ग़ज़ल गुलाब'। पुस्तक में हिंदी उर्दू की कुल 188 ग़ज़लें संग्रहीत हैं जिनमें
जीवन और जगत के तमाम रहस्य उद्घाटित हुए हैं।
संसार को दुखालय कहा गया है क्योंकि यहां सुख की अपेक्षा दुख के लम्हे कहीं अधिक होते हैं,इस बात को शेर की शक्ल में पुख्ता उदाहरण के साथ वे कहते हैं-
दुख की निस्बत सुख बहुत ही कम है इस संसार में
हो महाभारत कि रामायण यही पाया गया।
कोई कलाविद जब किसी सामंत का गुलाम हो जाए तो विजय अरुण की नजर में उसकी कला साधना में खोट आ जाती है-
कलाविद जब किसी सामंत की जागीर हो जाए
तो उसकी ही कला उसके लिए जंजीर हो जाए।
मनुष्य को देवता और दानव से श्रेष्ठ सिद्ध करते हुए वे कहते हैं-
कोई है देव तो कोई है दानव सृष्टि रचना में
मैं इन दोनों सिरों को जोड़ता हूं और मानव हूं।
योग और प्राणायाम में हिंदू मुस्लिम कोण ढूंढने वालों के लिए वे कहते हैं-
मैं तो करता हूं अरुण तुमसे जरा योग की बात
और तुम बीच में इस्लाम को ले आते हो।
दीपक और आतिशबाजी की उपयोगिता का अत्यंत बारीक विश्लेषण करते हुए वे कहते हैं-
हम दीपक ही बनें अरुण जी और अंधेरा दूर करें
आतिशबाजी का क्या बनना जो एक पल का जलवा हो।
कोरोना वायरस की भयावहता और उससे भी कहीं अधिक लेजर की लड़ाई की कल्पना करते हुए शायर कहता है-
कब बचपन में यह सोचा था यह भी मंजर देखेंगे ,
जंग बिना ही मरेंगे लाखों मातम घर-घर देखेंगे?
मरेंगे लोग न खंजर से अब लोग मरेंगे लेजर से
किन्ही अजायब घरों में ही अब रक्खे खंजर देखेंगे।
अमीरी आ जाने पर कुछ लोगों की ज़बान तल्ख़ हो जाती है। ऐसे लोगों के लिए वे कहते हैं-
इन शरीफों को नहीं बात भी करने की तमीज़
जो हो तहज़ीब से खाली वो शराफत कैसी ?
दौलत की किस्मत पर तंज करते हुए वे कहते हैं-
उससे इज्ज़त भी है शोहरत भी है और ताक़त भी है
ऐ अरुण पाई है दौलत ने भी किस्मत कैसी?
संग्रह में कुछ हास्य व्यंग्य की ग़ज़लें भी शामिल हैं। नए युग के मजनू और विवाहित पुरुष की भागदौड़ को अपने शेर में वे कुछ यूँ चित्रित करते हैं-
इसे देखिए, यह है नए समय का छैला
कपड़ा जिसका घिसा पिटा और मैला मैला
वह है पुरुष विवाहित काम से जब घर लौटे
दौड़ा जाए, हाथ में हो भाजी का थैला
आधुनिक नेता के पारिवारिक जीवन और शायर की मुफलिसी पर तंज करते हुए वे कहते हैं-
गुंडा इक बेटा था अब इक है वकील
अब मेरे लीडर को कोई डर नहीं।
की अरुण ने तोबा गुरबत के सबब
शेख तेरे दीन से डरकर नहीं।
अभिनेता के जीवन की त्रासदी को बयान करते हुए वे कहते हैं -
'अरुण' के चेहरे पर मत जा, उसके तू दिल में झांक
वह तो अभिनेता है , चेहरे से सदा मुस्काए ।
धार्मिक रूढ़ियों में फंसे मनुष्य की चेतना को जागृत करते हुए वे कहते हैं -
जाकर मंदिर में ही क्यों दीपक जलाना है तुझे जिस जगह दीपक नहीं है उसे जगह दीपक जला।
दुनिया में हर समस्या का समाधान है और हर मर्ज का इलाज है,इस विचार को एक शेर में निरूपित करते हुए वे कहते हैं-
लुकमान को पता न हो यह बात है अलग
वैसे तो हर मरज का यहां पर इलाज है ।
विजय अरुण की गजलें प्रेम,श्रृंगार,अध्यात्म और युगबोध की चाशनी में पगी हैं। पाठकों के लिए 'ग़ज़ल कमल ग़ज़ल गुलाब'एक अनुपम सौगात है।
अद्विक प्रकाशन,दिल्ली द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक का मूल्य मात्र ₹300 है।यह संग्रह अमेजॉन पर उपलब्ध है।
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