कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि || 47||
कर्मणि एव अधिकार:ते = तुम्हारा सिर्फ कर्म करने में हीअधिकार है ;
मा फलेषु कदाचन- उसके फलों में कभी नहीं,
मा कर्मफलहेतु: भू: - कर्म के फलों का हेतु मत हो ,
मा भू: ते सड़्गो अस्तु अकर्मणि - कर्म न करने में भी तेरी आसक्ति न हो।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्म करने में ही तेरा अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिये तू कर्मों के फल का हेतु मत हो और तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो ।
श्रीमद्भगवद्गीता के नाम पर दुनिया भर में सबसे अधिक यही श्लोक उद्धृत किया जाता है। भले ही कोई पूरे श्लोक को उद्धृत न कर पाए या इसका पूरा अर्थ न बता पाए लेकिन इतना तो सुना ही देगा- कर्मण्येवाधिकारस्ते ....कर्म करो,फल की चिंता मत करो।
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि कर्मण्येवाधिकारस्ते यानी सिर्फ कर्म में ही तुम्हारा अधिकार है। यहां कर्मणि एकवचन में है,अगर कहना होता कि कर्मों में ही तुम्हारा अधिकार है तो कहते कर्मसु एव अधिकार: ....इससे ज्ञात होता है कि भगवान श्रीकृष्ण एक समय में किसी एक ही कार्य को संपादित करने के बारे में कह रहे हैं यानी एकहि साधे सब सधे, सब साधे सब जाय।एक कर्म के अनेक फल हो सकते हैं-जैसे कोई छात्र अच्छी शिक्षा ग्रहण करता है तो वह एक सभ्य नागरिक बनता है, समाज में सम्मान पाता है, अच्छी नौकरी मिलती है, अच्छा घर पाता है,अच्छे परिवार में उसका विवाह होता है, लेकिन अगर कोई छात्र पहले से ही इन सारे
फलों के बारे में
सोच कर पढ़ाई कर रहा हो तो अपेक्षित परीक्षा फल नहीं आने पर वह अत्यंत दुखी हो जाएगा। कुछ छात्र इसी अवसाद में आत्महत्या तक कर लेते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण इसी फल की इच्छा का निषेध करते हैं।श्लोक के दूसरे चरण में वे तीन वाक्य कहते हैं -
मा फलेषु कदाचन ...
मा कर्म फल हेतु:भू: ....
मा ते सड़्ग:अस्तु अकर्मणि..
यहां मा का अर्थ माँ नहीं मत है...
मा फलेषु कदाचन ...फलों को प्राप्त करने में तेरा अधिकार कभी नहीं है.
84 लाख योनियों में सिर्फ मनुष्य ही ऐसा है जो कर्म कर सकता है। पशु पक्षी पेड़ पौधे या अन्य जीव-जंतु कार्य करने में असमर्थ हैं, अन्य सभी योनियां भोग के लिए हैं। वे पूर्व जन्म के कर्मों के फल का भोग मात्र करते हैं, नया कर्म नहीं कर सकते,किंतु मनुष्य योनि में हर व्यक्ति अपने स्वभाव के अनुसार कोई न कोई कार्य करता है। शिक्षक पढाता है,सैनिक लड़ता है,किसान खेती करता है...इसी तरह भिन्न भिन्न लोग भिन्न भिन्न कार्य करते हैं।
मान लीजिए यदि शिक्षक यह सोचने लगे कि मेरे विद्यार्थी उत्तीर्ण होंगे कि नहीं...सैनिक यह सोचने लगे कि हम युद्ध जीतेंगे कि नहीं...किसान यह सोचने लगे कि क्या पता बरसात होगी कि नहीं...यदि वे इस द्वंद्व में पड़ जाएंगे तो अपना कार्य उचित ढंग से नहीं कर पाएंगे क्योंकि फल में उनका कभी अधिकार है ही नहीं।वे फल के बारे में नहीं सोचते इसीलिए अच्छा कर्म कर पाते हैं।
मा कर्म फल हेतु:भू: का तात्पर्य है कि कर्मफल का हेतु मत बनो... यानी यह मत मानो कि किसी कार्य के संपन्न होने का कारण मैं हूं... अगर तुम यह मानोगे कि मेरी वजह से ही यह कर्म हुआ है तो भी कभी तुम्हें अवसाद का सामना करना पड़ सकता है क्योंकि संसार में कभी-कभी ऐसा भी होता है कि किसी दूसरे के कार्य का श्रेय कोई दूसरा ले लेता है या ऐसा भी होता है कि कार्य करने वाले को उसका श्रेय दिया ही नहीं जाता।ऐसे में स्वयं को कर्म फल का हेतु समझकर नाहक दुखी होगे।
मा ते सड़्ग:अस्तु अकर्मणि...अर्थात् अपना कर्म करने से तुम्हें विमुख भी नहीं होना है क्योंकि स्वभाव और परिस्थिति के अनुसार जिसका जो कर्म है उससे उसे मुख नहीं मोड़ना चाहिए।
जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए कर्म करना आवश्यक है। भगवान अर्जुन को यह समझा रहे हैं कि तुम जो यह सोच रहे हो कि युद्ध करने पर ऐसा ऐसा हो जाएगा,यह ठीक नहीं है। तुम्हारा कर्म सिर्फ युद्ध करना है ,उसके फल के बारे में सोचना नहीं है। तुम यह भी मत सोचो कि तुम इसके हेतु हो और युद्ध करोगे ही नहीं, ऐसा भी नहीं हो सकता क्योंकि क्षत्रिय होने के नाते अन्याय के प्रति लड़ना तुम्हारा कर्म और धर्म दोनों है?