बुधवार, 10 सितंबर 2025

फल की चिंता मत करो...गीता में ऐसा नहीं लिखी

 कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि || 47||


कर्मणि एव अधिकार:ते = तुम्हारा सिर्फ  कर्म करने में हीअधिकार है ; 

मा फलेषु कदाचन- उसके फलों में कभी नहीं,

मा कर्मफलहेतु: भू: - कर्म के फलों का हेतु मत हो ,

मा भू: ते सड़्गो अस्तु अकर्मणि - कर्म न करने में भी तेरी आसक्ति न हो।


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्म करने में ही तेरा अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिये तू कर्मों के फल का हेतु मत हो और तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो ।


श्रीमद्भगवद्गीता के नाम पर दुनिया भर में सबसे अधिक यही श्लोक उद्धृत किया जाता है। भले ही कोई पूरे श्लोक को उद्धृत न कर पाए या इसका पूरा अर्थ न बता पाए लेकिन इतना तो सुना ही देगा- कर्मण्येवाधिकारस्ते ....कर्म करो,फल की चिंता मत करो।

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि कर्मण्येवाधिकारस्ते यानी सिर्फ कर्म में ही तुम्हारा अधिकार है। यहां कर्मणि एकवचन में है,अगर कहना होता कि कर्मों में ही तुम्हारा अधिकार है तो कहते कर्मसु एव अधिकार: ....इससे ज्ञात होता है कि भगवान श्रीकृष्ण एक समय में किसी एक ही कार्य को संपादित करने के बारे में कह रहे हैं यानी एकहि साधे सब सधे, सब साधे सब जाय।एक कर्म के अनेक फल हो सकते हैं-जैसे कोई छात्र अच्छी शिक्षा ग्रहण करता है तो वह एक  सभ्य नागरिक बनता है, समाज में सम्मान पाता है, अच्छी नौकरी मिलती है, अच्छा घर पाता है,अच्छे परिवार में उसका विवाह होता है, लेकिन अगर कोई छात्र पहले से ही इन सारे 

फलों के बारे में 

सोच कर पढ़ाई कर रहा हो तो अपेक्षित परीक्षा फल नहीं आने पर  वह अत्यंत दुखी हो जाएगा। कुछ छात्र इसी अवसाद में आत्महत्या तक कर लेते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण इसी फल की इच्छा का निषेध करते हैं।श्लोक के दूसरे चरण में वे तीन वाक्य कहते हैं -

मा फलेषु कदाचन ...

मा कर्म फल हेतु:भू:  ....

मा ते सड़्ग:अस्तु अकर्मणि..

यहां मा का अर्थ माँ नहीं मत है...


मा फलेषु कदाचन ...फलों को प्राप्त करने में तेरा अधिकार कभी नहीं है.

84 लाख योनियों में सिर्फ मनुष्य ही ऐसा है जो कर्म कर सकता है। पशु पक्षी पेड़ पौधे या अन्य जीव-जंतु कार्य करने में असमर्थ हैं, अन्य सभी योनियां भोग के लिए हैं। वे पूर्व जन्म के कर्मों के फल का भोग मात्र करते हैं, नया कर्म नहीं कर सकते,किंतु मनुष्य योनि में हर व्यक्ति अपने स्वभाव के अनुसार कोई न कोई कार्य करता है। शिक्षक पढाता है,सैनिक लड़ता है,किसान खेती करता है...इसी तरह भिन्न भिन्न लोग भिन्न भिन्न कार्य करते हैं।

मान लीजिए यदि शिक्षक यह सोचने लगे कि मेरे विद्यार्थी उत्तीर्ण होंगे कि नहीं...सैनिक यह सोचने लगे कि हम युद्ध जीतेंगे कि नहीं...किसान यह सोचने लगे कि क्या पता बरसात होगी कि नहीं...यदि वे इस द्वंद्व में पड़ जाएंगे तो अपना कार्य उचित ढंग से नहीं कर पाएंगे क्योंकि फल में उनका कभी अधिकार है ही नहीं।वे फल के बारे में नहीं सोचते इसीलिए अच्छा कर्म कर पाते हैं।

मा कर्म फल हेतु:भू: का तात्पर्य है कि कर्मफल का हेतु मत बनो... यानी यह मत मानो कि किसी कार्य के संपन्न होने का कारण मैं हूं... अगर तुम यह मानोगे कि मेरी वजह से ही यह कर्म हुआ है तो भी कभी तुम्हें अवसाद का सामना करना पड़ सकता है क्योंकि संसार में कभी-कभी ऐसा भी होता है कि किसी दूसरे के कार्य का श्रेय कोई दूसरा ले लेता है या ऐसा भी होता है कि कार्य करने वाले को उसका श्रेय दिया ही नहीं जाता।ऐसे में स्वयं को कर्म फल का हेतु समझकर नाहक दुखी होगे।

मा ते सड़्ग:अस्तु अकर्मणि...अर्थात् अपना कर्म करने से तुम्हें विमुख भी नहीं होना है क्योंकि स्वभाव और परिस्थिति के अनुसार जिसका जो कर्म है उससे उसे मुख नहीं मोड़ना चाहिए।

जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए कर्म करना आवश्यक है। भगवान अर्जुन को यह समझा रहे हैं कि तुम जो यह सोच रहे हो कि युद्ध करने पर ऐसा ऐसा हो जाएगा,यह ठीक नहीं है। तुम्हारा कर्म सिर्फ युद्ध करना है ,उसके फल के बारे में सोचना नहीं है। तुम यह भी मत सोचो कि तुम इसके हेतु हो और युद्ध करोगे ही नहीं, ऐसा भी नहीं हो सकता क्योंकि क्षत्रिय होने के नाते अन्याय के प्रति लड़ना तुम्हारा कर्म और धर्म दोनों है?


सोमवार, 8 सितंबर 2025

अक्षय तृतीया से जुड़ी कथायें

 अक्षय तृतीया से जुड़ी कथायें


रासबिहारी पाण्डेय


वैशाख मास में शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को अक्षय तृतीया के रूप में मनाया जाता है। ज्योतिषीय गणना के अनुसार सूर्य और चंद्रमा इस दिन उच्च फलदायक राशि में रहते हैं।इस तिथि से इतने पौराणिक संयोग जुटे हैं कि इसे स्वयं सिद्ध मुहूर्त मान लिया गया है, इसीलिए इस दिन लोग जीवन के विविध मांगलिक कार्यों का शुभारंभ करते हैं।विवाह, गृह प्रवेश,उपनयन संस्कार, सोने चांदी के आभूषण एवं वाहनों की खरीद तथा नए व्यापार की शुरुआत के लिए यह दिन अत्यंत शुभ माना गया है। इस दिन दान पुण्य का भी विशेष महत्व है। इस दिन को किए गए पुण्य कर्म व्यक्ति को अगले जन्म में कई गुना अधिक होकर मिलते हैं।यही नहीं यदि इस दिन कोई बुरा कार्य किया जाता है तो उसका भी कई गुना अधिक बुरा फल मिलता है और उसे नर्क में जाकर भोगना पड़ता है।

अक्षय शब्द का अर्थ होता है- न समाप्त होने वाला अर्थात् जिस तिथि में किए गए पुण्य कर्मों का फल कभी समाप्त न हो।अक्षय तृतीया उसी तिथि का नाम है। इस तिथि से कई कथाएं जुड़ी हुई हैं। आज ही के दिन भगवान विष्णु के छठे अवतार परशुराम जी की जयंती मनाई जाती है। शास्त्रों के अनुसार आज ही महर्षि वेदव्यास ने  महाभारत लिखना प्रारंभ किया और लेखन सहायक के रूप में मंगलमूर्ति गणेश को साथ रखा। इसी दिन द्रौपदी को अक्षय पात्र की प्राप्ति हुई थी। पांडवों के वनवास की अवधि में द्रोपदी को मिले इस पात्र की विशेषता यह थी कि जब तक द्रौपदी स्वयं नहीं खा लेती थी, इस पात्र से कितने भी लोगों को खिलाया जा सकता था। निर्धन सुदामा का द्वारकाधीश कृष्ण से मिलने और कृष्ण द्वारा दो लोकों की संपत्ति देने की कथा भी इसी तिथि से जुड़ी है।बंगाल में इस दिन व्यापारी अपने नए बही खाते की शुरुआत करते हैं।पंजाब के किसान इस दिन ब्रह्म मुहूर्त में खेतों पर जाते हैं और रास्ते में मिलने वाले पशु पक्षियों के मिलने पर आगामी मौसम को शुभ शगुन मानते हैं।   वैशाख मास में शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को अक्षय तृतीया के रूप में मनाया जाता है। ज्योतिषीय गणना के अनुसार सूर्य और चंद्रमा इस दिन उच्च फलदायक राशि में रहते हैं।इस तिथि से इतने पौराणिक संयोग जुटे हैं कि इसे स्वयं सिद्ध मुहूर्त मान लिया गया है, इसीलिए इस दिन लोग जीवन के विविध मांगलिक कार्यों का शुभारंभ करते हैं।विवाह, गृह प्रवेश,उपनयन संस्कार, सोने चांदी के आभूषण एवं वाहनों की खरीद तथा नए व्यापार की शुरुआत के लिए यह दिन अत्यंत शुभ माना गया है। इस दिन दान पुण्य का भी विशेष महत्व है। इस दिन को किए गए पुण्य कर्म व्यक्ति को अगले जन्म में कई गुना अधिक होकर मिलते हैं।यही नहीं यदि इस दिन कोई बुरा कार्य किया जाता है तो उसका भी कई गुना अधिक बुरा फल मिलता है और उसे नर्क में जाकर भोगना पड़ता है।

अक्षय शब्द का अर्थ होता है- न समाप्त होने वाला अर्थात् जिस तिथि में किए गए पुण्य कर्मों का फल कभी समाप्त न हो।अक्षय तृतीया उसी तिथि का नाम है। इस तिथि से कई कथाएं जुड़ी हुई हैं। आज ही के दिन भगवान विष्णु के छठे अवतार परशुराम जी की जयंती मनाई जाती है। शास्त्रों के अनुसार आज ही महर्षि वेदव्यास ने  महाभारत लिखना प्रारंभ किया और लेखन सहायक के रूप में मंगलमूर्ति गणेश को साथ रखा। इसी दिन द्रौपदी को अक्षय पात्र की प्राप्ति हुई थी। पांडवों के वनवास की अवधि में द्रोपदी को मिले इस पात्र की विशेषता यह थी कि जब तक द्रौपदी स्वयं नहीं खा लेती थी, इस पात्र से कितने भी लोगों को खिलाया जा सकता था। निर्धन सुदामा का द्वारकाधीश कृष्ण से मिलने और कृष्ण द्वारा दो लोकों की संपत्ति देने की कथा भी इसी तिथि से जुड़ी है।बंगाल में इस दिन व्यापारी अपने नए बही खाते की शुरुआत करते हैं।पंजाब के किसान इस दिन ब्रह्म मुहूर्त में खेतों पर जाते हैं और रास्ते में मिलने वाले पशु पक्षियों के मिलने पर आगामी मौसम को शुभ शगुन मानते हैं। इस दिन उड़ीसा के जगन्नाथपुरी में रथयात्रा भी निकाली जाती है। जैन धर्मावलंबी इस तिथि को अपने चौबीस तीर्थंकरों में से एक ऋषभदेव से जोड़कर देखते हैं। ऋषभदेव ने सांसारिक मोह माया त्याग कर अपने पुत्रों के बीच अपनी सारी संपत्ति बांट दी और संन्यस्त हो गए। बाद में वे सिद्ध संत आदिनाथ के रूप में जाने गए। इस दिन भगवान विष्णु और महालक्ष्मी की विशेष पूजा अर्चना की जाती है ,आज पूजन में उन्हें चावल चढ़ाने का विशेष महत्व है। अक्षय तृतीया को विवाह के लिए सबसे शुभ मुहूर्त माना जाता है। इस दिन हुए विवाहों में स्त्री पुरुष में प्रेम बना रहता है और संबंध विच्छेद/ तलाक आदि की स्थिति नहीं बनती। इसी दिन से त्रेता युग की शुरुआत भी मानी जाती है।

अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनं द्वयं।

परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनं।

अठारह पुराणों में महर्षि वेदव्यास ने निकष के रूप में दो ही बातें कही हैं- किसी पर उपकार करने से पुण्य मिलता है और किसी को कष्ट देने से पाप मिलता है।गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में यही बात कही है- 

परहित सरिस धर्म नहिं भाई।

परपीड़ा सम नहिं अधमाई।।

हमारे सभी पर्व त्यौहारों में प्रकारांतर से परोपकार और परहित की बात ही कही गई है।मनुष्य जीवन की सार्थकता इसी में है कि हम देश और समाज के  काम आ सकें।सिर्फ अपने लिए जिया तो क्या जिया!

जिसका कभी नाश नहीं होता है या जो स्थाई है, वही अक्षय कहलाता है। स्थाई वही रह सकता है, जो सर्वदा सत्य है। सत्य केवल परमपिता परमेश्वर ही हैं जो अक्षय, अखंड व सर्वव्यापक है। अक्षय तृतीया की तिथि ईश्वरीय तिथि है। इस बार यह तिथि 03 मई को है। अक्षय तृतीया का महात्म्य बताते हुए आचार्य पंडित धर्मेंद्रनाथ मिश्र ने कहा कि अक्षय तृतीया का दिन परशुरामजी का जन्मदिवस होने के कारण परशुराम तिथि भी कहलाती है। परशुराम जी की गिनती चिरंजीवी महात्माओं में की जाती है। इसलिए इस तिथि को चिरंजीवी तिथि भी कहते हैं।

आचार्य ने कहा कि भारतवर्ष धर्म-संस्कृति प्रधान देश है। खासकर हिंदू संस्कृति में व्रत और त्योहारों का विशेष महत्व है। क्योंकि व्रत एवं त्योहार नई प्रेरणा एवं स्फूर्ति का परिपोषण करते हैं। भारतीय मनीषियों द्वारा व्रत-पर्वों के आयोजन का उद्देश्य व्यक्ति एवं समाज को पथभ्रष्ट होने से बचाना है। आचार्य ने बताया कि अक्षय तृतीया तिथि को आखा तृतीया अथवा आखातीज भी कहते हैं। इसी तिथि को चारों धामों में से एक धाम भगवान बद्रीनारायण के पट खुलते हैं। साथ ही अक्षय तृतीया तिथि को ही वृंदावन में श्री बिहारी जी के चरणों के दर्शन वर्ष में एक बार होते हैं। इस दिन देश के कोने-कोने से श्रद्धालु बिहारी जी के चरण दर्शन के लिए वृंदावन पहुंचते हैं।

उन्होंने बताया कि भारतीय लोकमानस सदैव से ऋतु पर्व मनाता आ रहा है। अक्षय तृतीया का पर्व बसंत और ग्रीष्म के संधिकाल का महोत्सव है। इस तिथि में गंगा स्नान, पितरों का तिल व जल से तर्पण और पिंडदान भी पूर्ण विश्वास से किया जाता है जिसका फल भी अक्षय होता है। इस तिथि की गणना युगादि तिथियों में होती है। क्योंकि सतयुग का कल्पभेद से त्रेतायुग का आरंभ इसी तिथि से हुआ है।



जरूरत है जावेद अख्तर जैसे प्रगतिशीलों की

जरूरत है  जावेद अख्तर जैसे प्रगतिशीलों की !

- रासबिहारी पाण्डेय


सन्1983 में भारतीय टीम पाकिस्तान टूर पर गई थी।सुनील गावस्कर एक डिनर पार्टी में  टीम के मैनेजर के साथ खड़े थे।जब नूरजहां आईं तो वे उन्हें पहचान नहीं सके, टीम मैनेजर ने परिचय कराते हुए कहा कि  ये गावस्कर हैं।नूरजहां ने पलट कर जवाब दिया मैं तो सिर्फ इमरान और जहीर अब्बास को जानती हूं,तब मैनेजर ने गावस्कर से कहा कि आप इन्हें (नूरजहां) तो जानते ही होंगे।गावस्कर ने भी अनमने ढंग से कह दिया- नहीं, मैं तो सिर्फ लता मंगेशकर को जानता हूं। तब बात बराबरी पर छूट गई थी लेकिन कुछ साल पहले डडडफैज फेस्टिवल में जाकर जावेद अख्तर ने आम हिंदुस्तानियों के मन में घुमड़ रहीं वे सारी बातें कह दीं जो किसी बड़े मंच से नहीं कही जा पा रही थीं।

संक्षेप में जावेद अख्तर की बातें,उन्हीं की जुबान में-

हमारे यहां मेंहदी हसन आए, निहायत पॉपुलर थे भारत में। नूरजहां का बहुत एहतराम किया गया जब वे मुंबई आईं। क्या कहें कि किस तरह का फंक्शन हुआ था उनका वहां। कमेंट्री शबाना ने दी , लिखी मैंने थी... और वो हॉल जिस तरह से उन्हें रिसीव किया... लता मंगेशकर, आशा भोंसले इस तरह की ग्रेट सिंगर्स ने एहतराम किया उनका।

फैज साहब आए तो ऐसा लगता था कि किसी स्टेट का हेड आया हुआ है। आगे-पीछे गाड़ियां चल रही होती थीं सायरन देते हुए। वे आते थे तो गर्वनर हाउस में ठहरते थे। वहां का ऐसा कोई टेलीविजन नहीं था, जिसने उनका इंटरव्यू नहीं किया। मगर पीटीवी पे तो कोई हिन्दुस्तानी कलाकार जा ही नहीं सकता था।


साहिर का,कैफी का या सरदार जाफरी का इंटरव्यू किया है आपने पीटीवी पे?  हमारे यहां हुआ।  ये बंदिश है आपके यहां थोड़ी ज्यादा है। 


हमने नुसरत फतेह अली खान के बड़े-बड़े फंक्शन किए, मेंहदी हसन के बड़े-बड़े फंक्शन किए लेकिन पाकिस्तान  में लता मंगेशकर पर कोई फंक्शन नहीं हुआ,  हम एक दूसरे पर इल्जाम न दें, इससे मसला हल नहीं होगा। अहम बात यह है आजकल जो इतनी गरम है फिजा​​​​​​, वो कम होनी चाहिए।


मुंबई पर जो हमला हुआ था,वे लोग नॉर्वे से तो नहीं आए थे, न इजिप्ट से आए थे। वे लोग अब भी पाकिस्तान में ही घूम रहे हैं। 


जावेद अख्तर को कुछ हद तक वामपंथी संगठनों और मुस्लिम बुद्धिजीवियों का भी समर्थन प्राप्त है,इसलिए वे कभी कभी ऐसी बातें कर जाते हैं और इस्लामिक संगठन अपने घर का आदमी मानकर चुपचाप सुन भी लेते हैं।लेकिन ऐसी कोई बात पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ या मनोज मुंतशिर जैसे लोग कर देते हैं तो उन्हें सांप्रदायिक बता दिया जाता है।

 भारत पाकिस्तान का बँटवारा धर्म के आधार पर ही हुआ था।हिंदुस्तानी मुसलमानों को यह छूट मिली थी कि वे चाहें तो रहें या जाएं लेकिन पाकिस्तानी हिंदुओं के नसीब में ऐसा नहीं था। लाखों लोगों को मजबूरन पाकिस्तान छोड़ने के लिए विवश किया गया। वे रिफ्यूजी बनकर शरणार्थी कैंपों में रहे और जैसे-तैसे जिंदगी का सामना किया।अरब देशों के पासपोर्ट पर साफ साफ लिखा होता है- यह मुस्लिम राष्ट्र है।संयोग से भारत अब तक धर्मनिरपेक्ष देश है। सभी धर्म के लोगों को यहां समान अधिकार प्राप्त है। पाकिस्तान 

हमारे इस तहजीब से जलता है और समय समय पर बहाने बहाने से इस देश को आतंकवाद के सहारे अस्थिर करने की कोशिश में लगा रहता है मगर भारत जैसे विशाल देश को तबाह करने की उसकी हर कोशिश बेकार चली जाती है।भारत चाँद तारे छूने में लगा है और पाकिस्तान अपनी खराब अर्थब्यवस्था के कारण विश्व के सामने भिखारी की मुद्रा में खड़ा है।जरूरत है जावेद अख्तर जैसे और प्रगतिशील शख्सियतों की जो मुसलमानों के मन में बैठे जाले को साफ  कर सकें। 


सांप्रदायिकता के नाम पर भारत में अच्छी खासी सियासत चल रही है।मोह मत

सियासी पार्टियों ने इसी खासियत को वोट का आधार बना लिया।जाति और धर्म के नाम पर लोगों के मन में भेद पैदा कर राजनीतिक रोटियां सेंकने लग गए। यह प्रेरणा भी उन्हें प्राचीन भारत के इतिहास से मिली। भारत सांप्रदायिक संकीर्णता का शिकार बहुत पहले से था,तभी तो मुगल,पठान,हूण,शक,यूनानी,पुर्तगाली और अंग्रेज भारत में आए और घृणा और विद्वेष का जहर बोकर हमें अलग करके राज करते रहे। मुस्लिमों में हिंदू कट्टरता का खौफ पैदा कर उनका सुरक्षा कवच बता कर खुद को मसीहा साबित करके उनका आका बनने की कोशिश में कई दल लगे हैं। उधर हिंदुओं में मुस्लिमों का खौफ पैदा करके हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण का काम भी जारी है। हर चुनाव में सांप्रदायिक तनाव प्रायोजित तौर पर बढ़ा दिया जाता है। इसके लिए बाकायदा मेहनत की जाती है।


मेरी यादों में माहेश्वर तिवारी

 धूप में जब भी जले हैं पांव घर की याद आई ...


रासबिहारी पाण्डेय 

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गीतिकाव्य के शिखर पुरुष और नवगीत आंदोलन के पुरोधा गीतकार माहेश्वर तिवारी नवगीत दशक, नवगीत अर्द्धशती, यात्रा में साथ-साथ, गीतायन,स्वांत:सुखाय, पाँच जोड़ बांसुरी जैसे चर्चित संकलनों की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। हरसिंगार कोई तो हो, नदी का अकेलापन,फूल आए हैं कनेरों में, नींद में चुपचाप कविताएं, सागर मुद्राओं पर तर्जनी आदि काव्य संकलन उनकी रचनात्मकता के निकष हैं।


कहते हैं कि वट वृक्ष के नीचे कोई पौधा नहीं पनपता लेकिन वह गीत के ऐसे वटवृक्ष थे जिनकी छांव में हम जैसे अनेक रचनाकार पल्लवित पुष्पित हुए। मैं उन सौभाग्यशाली कवियों में हूं जिसे उनका निकट सान्निध्य पाने और संपर्क में रहने का सुखद सौभाग्य प्राप्त हुआ। मुंबई से उनका बड़ा आत्मीय रिश्ता था। यहां उनके ससुराल पक्ष के लोग रहते थे,  इस नाते भी और साहित्यिक आयोजनों के लिए भी लगभग हर वर्ष उनका आना होता था।मुंबई की कई संस्थाओं ने उन्हें विशेष रूप से सम्मानित किया।

 जब मुंबई में उन्हें परिवार पुरस्कार से सम्मानित किया गया तब मैंने उनका एक लंबा साक्षात्कार किया था।वह साक्षात्कार कई अखबारों सहित मेरी साक्षात्कार पुस्तक 'चेहरे' में भी शामिल है।जब मैंने उनसे पूछा कि आपकी रचना प्रक्रिया क्या होती है तो उनका जवाब था कि मैं अधिक से अधिक और नया से नया पढ़ने की कोशिश करता हूं।बच्चन जी के अनुसार १०० पंक्ति पढ़ने के बाद एक पंक्ति लिखने की बात सोचता हूं, यह जरूरी नहीं कि लिखूं ही। गीत खास कर एक बैठक में ही लिख लेता हूं।लिखकर रख देता हूं,जब कोई दूसरी नई रचना हो जाती है तो पुनः उसे देखता हूं, अच्छा लगता है और जरूरत समझ में आती है तो कुछ और संशोधन कर लेता हूं, अन्यथा छोड़ देता हूं। मात्र दो या तीन अंतरों के गीत लिखने के बारे में उनका कहना था कि गीत एक ऐसी प्रक्रिया है जो बहुत लंबी नहीं हो सकती।पुराने लोकगीतों में टेक ही मूल होता है।चूँकि चौपाल में देर तक बैठना होता है इसलिए कुछ और पंक्तियां जोड़ ली जाती हैं। गजलों में भी सैकड़ों शेर कहे जाते हैं लेकिन ५-७शेर ही गाए जाते हैं।

माहेश्वर जी के गीतों में जीवंतता भरी हुई है।पंक्तियां सुनते ही दिल में उतर जाती हैं।

नवगीतकार कहलाने के लिए ऐसे अनेक प्रयत्नज कवियों की भीड़ इकट्ठी हो गई जो प्रयोग के पीछे कुछ ज्यादे ही पड़ गए , लिहाजा गीत में लय बचा न उसमें सहजता और संप्रेषणीयता बची।माहेश्वर जी ने अपने गीतों में नवता के साथ-साथ सहजता का भी पूरा ख्याल रखा, इसलिए उनके  गीत श्रोताओं के कंठहार बन गए।वे जब गाते थे - धूप में जब भी जले हैं पांव घर की याद आई ...तो अक्सर लोगों की आंखें गीली हो जाती थीं।

' एक तुम्हारा होना क्या से क्या कर जाता है बेजुबान छत दीवारों को घर कर जाता है' को फेसबुक पर अपने नाम से टीप कर कितने ही रचनाकार अपना वैवाहिक वर्षगांठ मनाते हैं, इससे बेखबर कि इन पंक्तियों का रचनाकार भी फेसबुक पर पूरी सक्रियता के साथ मौजूद है।फेसबुक पर गत ५ अप्रैल को उन्होंने एक कविता पोस्ट की थी-

कितनी सदियाँ गुज़र गयीं लेकिन 

सारी दुनिया सफ़र में है अब भी। 

    धूप में तप रहा है वर्षों से, 

    छाँव बूढ़े शजर में है अब भी। 

हमारा सफर कठिन न हो और हम अपनी मंजिल तक पहुंच सकें, इसके लिए माहेश्वर तिवारी जैसे गीत के वट वृक्ष की छांव में थोड़ी देर छँहाना और सुस्ताना जरूरी है।

                  

मेरी यादों में फिल्म लेखक हृदय लानी!

 जीवन से कला की तरफ बढ़ें,कला से जीवन की तरफ नहीं


रासबिहारी पाण्डेय



जब कोई अपना मरता है तो थोड़े-थोड़े हम भी मर जाते हैं।जो लोग हमारे दिलों के करीब होते हैं,उनसे हमें संजीवनी मिलती है। कथाकार/ संवाद लेखक हृदय लानी  की असमय मृत्यु से एक ऐसी ही रिक्ति आ गई है जिसका भविष्य में कोई विकल्प संभव नहीं है। विकल्प दुनियावी चीजों का ही हो सकता है; कवि,लेखक या कलाकार अपने आप में अद्वितीय होता है, उसकी भरपाई कोई और नहीं कर सकता।लानी जी ने न सिर्फ अग्निसाक्षी, यशवंत, प्रहार,आर या पार,हीरो हीरालाल,युगपुरुष, सरफरोश जैसी व्यावसायिक फिल्मों के लिए संवाद लिखे बल्कि गमन, मिर्च मसाला, सलीम लंगड़े पर मत रो,सलाम बॉम्बे और सरदार जैसी समानांतर फिल्मों के भी संवाद लिखे।इससे उनकी लेखन क्षमता का पता चलता है।सन1999 में सरफरोश फिल्म के लिए उन्हें अपने साथी लेखक पथिक वत्स के साथ  सर्वश्रेष्ठ संवाद लेखक का फिल्म फेयर पुरस्कार भी मिला।

वे एक अरसे तक मुंबई के मीरा रोड उपनगर में रहते रहे। एक बार उनके घर जाने का संयोग बना। एक पत्रिका के लिए उनसे साक्षात्कार करना था।तबसे उनसे दोस्ती हो गई थी। जब-तब फोन पर बातें होती रहीं।सामना में छपने वाले मेरे स्तंभ के वे नियमित पाठक थे। मेरे छेड़े हुए मुद्दों पर वे अपनी राय रखते थे, इसी बहाने हम संपर्क में बने रहते थे।बहुत पहले एक बार मैंने उनसे पूछा था कि आपका नाम इतनी बड़ी फिल्मों से जुड़ा है फिर भी आपको मीरा रोड में रहना  पड़ रहा है तो उन्होंने हंसते हुए कहा कि मेरा अपना फ्लैट तो मीरा रोड में भी नहीं है। यह भी किराए का घर है। थोड़े पैसे हुए तो मैंने कल्याण में एक फ्लैट ले लिया था । फिल्मी सिटिंग्स के लिए वहां से आना-जाना दूर पड़ता है,इसलिए इधर रहना मजबूरी है।इधर कुछ सालों से वे कल्याण में ही रहने लगे थे। निर्माता निर्देशकों से उनकी दो शिकायतें थी। पहली यह कि वे स्क्रिप्ट बहुत कम समय में चाहते हैं,दूसरी यह कि कम से कम पैसा देना चाहते हैं।यही लोग एक्टर्स को मुंह मांगी रकम अग्रिम तौर पर देने के लिए तैयार रहते हैं;यह जानते हुए भी कि अगर स्क्रिप्ट अच्छी नहीं होगी तो एक्टर कुछ नहीं कर पाएगा। लानी  जी की कहानियां हिंदी की कई साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं में भी छप चुकी थीं। मैंने उनसे पूछा कि आप इतने अच्छे कथाकार हैं लेकिन फिल्मों में सिर्फ संवाद ही लिखते हैं, अपनी कहानियां निर्माता निर्देशकों को क्यों नहीं सुनाते ? इसके जवाब में उन्होंन बताया कि हिंदी फिल्मों के निर्माता निर्देशक हिंदी प्रदेश की कहानियों पर फिल्में बनाने में कोई रुचि नहीं रखते।दूसरी सबसे आपत्तिजनक बात यह होती है कि कहानी सुनने का उनका तरीका बड़ा अजीब होता है। टिप्पणियांऔर विमर्श तो और भी आपत्तिजनक! चार बार फोन रिसीव करेंगे... बोलेंगे .....रुकिए जरा, फिर कहेंगे अब सुनाइए। शुरुआती दौर में दो-चार बार मैंने यह सब  झेला फिर  तौबा कर लिया ।अब सीधे बोल देता हूं कि आप कहानी सुनाइए या लिखित रूप से दीजिए; मैं उसकी पटकथा/ संवाद लिखूंगा। जिन लोगों को काम करवाना होता है, वही संपर्क करते हैं, टाइम पास करने वाले नहीं मिलते। उनको पता होता है कि लिखवाने के लिए एग्रीमेंट करना होगा, पैसे देने होंगे।

वे कहते थे कि लेखक हों या निर्देशक जो फिल्मों से फिल्में बनाना सीखते हैं,वे पिष्टपेषण ही करते हैं;कुछ नया नहीं कर पाते।जीवन से कला की तरफ बढ़ना चाहिए न कि कला से जीवन की तरफ।

आओ पेड़ लगायें

 

रासबिहारी पाण्डेय


आओ पेड़ लगाएं, आओ पेड़ बचाएं

मूल मंत्र हो यह जीवन का, सबको याद कराएं।


तापमान सारी धरती का हर दिन बढ़ता जाए 

झुलस रहा तन, झुलस रहा मन, जीवन झुलसा जाए 

पेड़ लगाकर हम इस धरती का ताप घटाएं ।


जहां अधिक हों पेड़ वहां मेघों को लेकर आते

वातावरण करें शीतल बारिश भी करवाते

वृक्षारोपण करें प्रकृति का असंतुलन मिटायें।


औषधियां मिलती हैं इनसे फूल और फल हैं मिलते

वायु प्रदूषण दूर करें और  प्राण वायु हैं देते

कितने उपयोगी हैं ये जन जन को हम समझाएं ।

      

बात करता हूं दिल की पेड़ों से 

फूल इजहारे इश्क करते हैं 

धूप से,बादलों, हवाओं से 

रंग जीवन में सारे भरते हैं 

इनसे ही जिंदगी संवरती है

इनसे ही कहकशां उभरते हैं

लोग कुछ ऐसे भी हैं दुनिया में 

कत्ल का कारोबार करते हैं। 

पेड़ हो आदमी या पशु पंछी 

एक ही बात दिल में रखते हैं

कितनी बाजार में कीमत इसकी 

इसको पाने में है लागत कितनी

जब से दुनिया है खेल जारी है

पर अदीबो की जिम्मेदारी है 

यह बताते रहें कि कुछ भी हो 

हुस्न और इश्क के बिना आखिर 

सारी दुनिया की सल्तनत क्या है

देखकर जिससे लोग कतरायें

ऐसे  इंसान की अज़्मत क्या हेै?










ज़ुल्म सहने से भी जालिम की मदद होती है!

 कुछ न कहने से भी छिन जाता है एजाज़-ए-सुख़न

ज़ुल्म सहने से भी ज़ालिम की मदद होती है- 

मुज़फ़्फ़र वारसी


आप मंचों से साहित्य के नाम पर चल रहे गोरखधंधा के विरोध में हैं लेकिन खुद किसी की नजर में नहीं आना चाहते।अगर कोई लिखता है तो कमेंट करते हैं न शेयर करते हैं। इतने बड़े देश में कैसे अपनी बात लोगों तक पहुंचाएंगें ?आप संयोजकों के सामने क्या विकल्प दे रहे हैं? कितने मजबूत कवि आपके पाले में हैं जो सचमुच सार्थक कविता से लोगों को विस्मित कर सकते हैं!आप अपनी पसंद के चार नाम तक लिखने में कोताही बरत रहे हैं। फिर उनका मुकाबला कैसे करेंगे जो संगठित होकर देश विदेश हर जगह काबिज हैं?सोशल मीडिया हैंडल करने के लिए हजारों फेक एकाउंट और इसे संचालित करने के लिए तनख्वाह देकर  ट्रेंड लोगों को बिठा रखा है;जो चाहे जब आपका एकाउंट हैक कर सकते हैं।

वर्षों से जो व्यक्ति सिर्फ अपनी जयकार करने वालों वाह बेटा, पढ़ो बेटा टाइप लोगों को ढ़ो रहा है,उसकी ओर तृषित नेत्रों से देख रहे हैं कि क्या पता हमें भी किसी दिन बुला ले और इस प्रत्याशा में मौन साधे हुये हैं, फिर किस तरह यह उम्मीद रखते हैं कि माहौल बदल जाएगा ? नयी पीढ़ी तो पूरी तरह दिग्भ्रमित हो गई है और इस लफ्फाजी को ही कविता मान बैठी है। यह भ्रम दूर हो ,इसके लिए आप क्या कर रहे हैं? अगर आप कुछ नहीं कर रहे हैं तो आपको शिकायत करने का भी कोई अधिकार नहीं है।आईने के सामने तो खड़े होते होंगे,अपना सामना कैसे करते हैं?