शनिवार, 27 सितंबर 2025

गंगा

 १

देवता देख रहे नभ से जब गोमुख से गंगा निकली हैं ।

जोड़ खड़े कर संत महात्मा क्या कहिए छवि कैसी भली है।

शंख बजाते हैं आगे भगीरथ गंगा जी पीछे से ऐसे ढ़ली हैं।

जैसे कि गौरी गणेश को लेकर गोमुख से बंगाल चली हैं। 

लंबी औ चौड़ी कई नदियाँ पर गंगा के नीर का सानी नहीं है।

जो गंगा तट वास करे उस जैसा कोई सन्मानी नहीं है।

पूर्ण मनोरथ हों सबके गंगा सम कोई भी दानी नहीं है।

कृष्ण स्वयं कहते यह गीता में गंगा हूँ मैं ही ये पानी नहीं है।

कल्मषनाशी है, जीवनदाता है, मोक्षप्रदाता है, गंगा का पानी!

उज्ज्वल अमृत धार बहे, तिहुँ लोक को तारता गंगा का पानी।

रोग औ शोक को दूर करें, जलरूप में औषधि गंगा का पानी

बासी न होता कभी तुलसीदल बासी न हो कभी गंगा का पानी।

गीता, गणेश, गायत्री गऊ और गंगा जी हैं पंचप्राण कहाये।

संस्कृति औ संस्कार सभी इन पाँचों में भारत के हैं समाये।

वेद समाये मनुस्मृति में और विष्णु में हैं सब देव समाये ।

शास्त्र समाये हुये सब गीता में गंगा में तीरथ सारे समाये।

पातक ध्वंस समस्त करे और लोक तथा परलोक सँवारे।

जीवन मृत्यु जुड़ी हुई दोनों से ऐसे जुड़े संस्कार हमारे।

भारतभूमि में हैं बसते हम साध यही मन की है हमारे ।

जन्म कहीं पर होवे भले पर आखिरी कर्म हो गंगा किनारे।

काव्य पे रीझ गये जिनके शिव जी उगना बने सेवक आई।

वे विद्यापति गंगा के भक्त थे भक्ति रही उनकी जग छाई।

अंत समय मुझे दर्शन दो कवि ने जब गंगा से टेर लगाई।

मीलों से धारा को मोड़ के गंगा जी पास स्वयं बहती चली आई।

- रासबिहारी पाण्डेय


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