जरूरत है जावेद अख्तर जैसे प्रगतिशीलों की !
- रासबिहारी पाण्डेय
सन्1983 में भारतीय टीम पाकिस्तान टूर पर गई थी।सुनील गावस्कर एक डिनर पार्टी में टीम के मैनेजर के साथ खड़े थे।जब नूरजहां आईं तो वे उन्हें पहचान नहीं सके, टीम मैनेजर ने परिचय कराते हुए कहा कि ये गावस्कर हैं।नूरजहां ने पलट कर जवाब दिया मैं तो सिर्फ इमरान और जहीर अब्बास को जानती हूं,तब मैनेजर ने गावस्कर से कहा कि आप इन्हें (नूरजहां) तो जानते ही होंगे।गावस्कर ने भी अनमने ढंग से कह दिया- नहीं, मैं तो सिर्फ लता मंगेशकर को जानता हूं। तब बात बराबरी पर छूट गई थी लेकिन कुछ साल पहले डडडफैज फेस्टिवल में जाकर जावेद अख्तर ने आम हिंदुस्तानियों के मन में घुमड़ रहीं वे सारी बातें कह दीं जो किसी बड़े मंच से नहीं कही जा पा रही थीं।
संक्षेप में जावेद अख्तर की बातें,उन्हीं की जुबान में-
हमारे यहां मेंहदी हसन आए, निहायत पॉपुलर थे भारत में। नूरजहां का बहुत एहतराम किया गया जब वे मुंबई आईं। क्या कहें कि किस तरह का फंक्शन हुआ था उनका वहां। कमेंट्री शबाना ने दी , लिखी मैंने थी... और वो हॉल जिस तरह से उन्हें रिसीव किया... लता मंगेशकर, आशा भोंसले इस तरह की ग्रेट सिंगर्स ने एहतराम किया उनका।
फैज साहब आए तो ऐसा लगता था कि किसी स्टेट का हेड आया हुआ है। आगे-पीछे गाड़ियां चल रही होती थीं सायरन देते हुए। वे आते थे तो गर्वनर हाउस में ठहरते थे। वहां का ऐसा कोई टेलीविजन नहीं था, जिसने उनका इंटरव्यू नहीं किया। मगर पीटीवी पे तो कोई हिन्दुस्तानी कलाकार जा ही नहीं सकता था।
साहिर का,कैफी का या सरदार जाफरी का इंटरव्यू किया है आपने पीटीवी पे? हमारे यहां हुआ। ये बंदिश है आपके यहां थोड़ी ज्यादा है।
हमने नुसरत फतेह अली खान के बड़े-बड़े फंक्शन किए, मेंहदी हसन के बड़े-बड़े फंक्शन किए लेकिन पाकिस्तान में लता मंगेशकर पर कोई फंक्शन नहीं हुआ, हम एक दूसरे पर इल्जाम न दें, इससे मसला हल नहीं होगा। अहम बात यह है आजकल जो इतनी गरम है फिजा, वो कम होनी चाहिए।
मुंबई पर जो हमला हुआ था,वे लोग नॉर्वे से तो नहीं आए थे, न इजिप्ट से आए थे। वे लोग अब भी पाकिस्तान में ही घूम रहे हैं।
जावेद अख्तर को कुछ हद तक वामपंथी संगठनों और मुस्लिम बुद्धिजीवियों का भी समर्थन प्राप्त है,इसलिए वे कभी कभी ऐसी बातें कर जाते हैं और इस्लामिक संगठन अपने घर का आदमी मानकर चुपचाप सुन भी लेते हैं।लेकिन ऐसी कोई बात पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ या मनोज मुंतशिर जैसे लोग कर देते हैं तो उन्हें सांप्रदायिक बता दिया जाता है।
भारत पाकिस्तान का बँटवारा धर्म के आधार पर ही हुआ था।हिंदुस्तानी मुसलमानों को यह छूट मिली थी कि वे चाहें तो रहें या जाएं लेकिन पाकिस्तानी हिंदुओं के नसीब में ऐसा नहीं था। लाखों लोगों को मजबूरन पाकिस्तान छोड़ने के लिए विवश किया गया। वे रिफ्यूजी बनकर शरणार्थी कैंपों में रहे और जैसे-तैसे जिंदगी का सामना किया।अरब देशों के पासपोर्ट पर साफ साफ लिखा होता है- यह मुस्लिम राष्ट्र है।संयोग से भारत अब तक धर्मनिरपेक्ष देश है। सभी धर्म के लोगों को यहां समान अधिकार प्राप्त है। पाकिस्तान
हमारे इस तहजीब से जलता है और समय समय पर बहाने बहाने से इस देश को आतंकवाद के सहारे अस्थिर करने की कोशिश में लगा रहता है मगर भारत जैसे विशाल देश को तबाह करने की उसकी हर कोशिश बेकार चली जाती है।भारत चाँद तारे छूने में लगा है और पाकिस्तान अपनी खराब अर्थब्यवस्था के कारण विश्व के सामने भिखारी की मुद्रा में खड़ा है।जरूरत है जावेद अख्तर जैसे और प्रगतिशील शख्सियतों की जो मुसलमानों के मन में बैठे जाले को साफ कर सकें।
सांप्रदायिकता के नाम पर भारत में अच्छी खासी सियासत चल रही है।मोह मत
सियासी पार्टियों ने इसी खासियत को वोट का आधार बना लिया।जाति और धर्म के नाम पर लोगों के मन में भेद पैदा कर राजनीतिक रोटियां सेंकने लग गए। यह प्रेरणा भी उन्हें प्राचीन भारत के इतिहास से मिली। भारत सांप्रदायिक संकीर्णता का शिकार बहुत पहले से था,तभी तो मुगल,पठान,हूण,शक,यूनानी,पुर्तगाली और अंग्रेज भारत में आए और घृणा और विद्वेष का जहर बोकर हमें अलग करके राज करते रहे। मुस्लिमों में हिंदू कट्टरता का खौफ पैदा कर उनका सुरक्षा कवच बता कर खुद को मसीहा साबित करके उनका आका बनने की कोशिश में कई दल लगे हैं। उधर हिंदुओं में मुस्लिमों का खौफ पैदा करके हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण का काम भी जारी है। हर चुनाव में सांप्रदायिक तनाव प्रायोजित तौर पर बढ़ा दिया जाता है। इसके लिए बाकायदा मेहनत की जाती है।
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