शनिवार, 23 अगस्त 2025

अगर कुरान हो घर में तो कोरोना नहीं होता

 अगर कुरान हो घर में तो कोरोना नहीं होता

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कभी गंगा बुला रही,कभी गोमती बुला रही है,

नालायक अहमदाबाद लौट जा तेरी बीवी बुला रही है

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सिर्फ कब्रों की जमीनें देके मत बहलाइये

राजधानी दी थी,राजधानी चाहिए

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सौदा यहीं पे होता है हिंदोस्तान का

संसद भवन में आग लगा देनी चाहिए

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लहू में डूबी हुई आस्तीन जीती है

चुनाव तुम नहीं जीते मशीन जीती है

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निकाह ही न हुआ तो मर्द कैसा है(पहला मिसरा पूरा याद नहीं )

काम घुटनों से जब लिया ही नहीं ,फिर ये घुटनों में दर्द कैसा है 

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ऐसे जहरीले शेर कहने वाले राहत इंदौरी को फेसबुक पर सदी का महान शायर घोषित करने की मुहिम चल रही है.इस वकालत में हिंदी के लोग ज्यादे हैं,उर्दू के कम हैं.

जबसे नरेंद्र मोदी पीएम बने, तबसे राहत और इमरान प्रतापगढ़ी की शायरी एक जैसी हो गई थी,दोनों का काम मोदी को गाली दिए बिना नहीं चलता था.

किसी शायर के लिए उसका वतन पहले होता है,मजहब बाद में, मगर राहत मजहबी और सियासी शायरी करके मुशायरों को काबू में कर चुके थे या कहिए मुशायरों के काबू में आ चुके थे।मुशायरों से मिलने वाले लिफाफे के मोह ने उनको जमूरा बना दिया था.,अगर वे मिमिक्री करते हुए लड़खड़ाती जबान में ऐसी जेहादी बातें न करते तो मुशायरे से कबके बाहर हो चुके होते।अपने दौर के निदा फाजली,वसीम बरेलवी,शीन काफ निजाम आदि के मुकाबले उनकी शायरी कहीं नहीं ठहरती।

मर जाऊँ तो मेरे पेशानी पे हिन्दुस्तान लिख देना ….कहने से देशभक्ति प्रमाणित नहीं होती. यहाँ तो अदालतों में गीता, कुरान पर हाथ रखकर भी लोग झूठ बोलते हैं.

सत्ता किसी की हो ,अदीब हरदम विपक्ष में होता है,मगर व्यक्तिगत स्तर पर उतर कर घटिया और ओछी बातें करने लग जाना,न्यायालय को झूठा बताने लग जाना,चंद फायदों के लिए अपना ज़मीर बेच देने का उदाहरण देखना हो तो राहत उसके सबसे बड़े उदाहरण हैं.

कोई कवि/शायर अदब‌ की दुनिया में लंबे समय तक तब याद किया जाता है जब वह परतदार शायरी करता है.लक्षणा,व्यंजना का सहारा लेते हुए सामाजिक सरोकारों से जुड़ी गहरी बातें करता है.ऐसी बातें जो लोगों को चिंतन के लिए विवश करती हैं.

मेरा बाप , तेरा बाप की टुच्ची भाषा तो गली के बिगड़ैल शोहदे बोलते 

कौन सा शब्द कहाँ बरतना है,कैसे बरतना है,इसका शऊर लोग कवि/लेखकों से सीखते हैं/शायरों की ही जबान गुंडों की हो जाय तो उसका अपराध क्षम्य कैसे हो सकता है? कभी फैज ने कहा था - चले भी आओ कि खुशबू का कारोबार चले... कारोबार शब्द को उन्होंने इस तरह बरता कि मुँह से वाह  निकलता है और इधर किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है …..सुनकर मुँह से क्या निकलेगा, यह बताने की जरूरत नहीं है.

सर्वविदित है कि मुगलों ने इस देश को लूटा,अंग्रेजों ने संगीनों के बल पर उनसे राज छीना , पर यह कहने की हिम्मत कि राजधानी दी थी,राजधानी चाहिए….भारत जैसे देश में ही हो सकती है. कुछ देशों को छोड़कर तमाम मुस्लिम देशों में दूसरे धर्मों के लोग दोयम दर्जे के नागरिक हैं,उन्हें सारे मौलिक अधिकार प्राप्त नहीं हैं.मगर भारत में खुद को डरी सहमी हुई कौम बताने वाले लोग अगर इतने मुखर हैं तो निडर होकर क्या करेंगे ,यह भी साफ है

सियासी नारेबाजी करके थोड़े समय के लिए लोकप्रिय तो हुआ जा सकता है लेकिन साहित्य की दुनिया में लंबे समय तक टिका नहीं जा सकता.

गोधरा प्रकरण पर मुस्लिम कौम को क्लीन चिट देते हुए राहत ने कहा था -

जो अपने मुर्दों को भी जलाते नहीं

जिंदा लोगों को क्या जलाएंगें ?

यह दलील सुनकर तो अदालतों को मान लेना चाहिए कि इस्लाम को मानने वाले कभी दंगे में शामिल ही नहीं हुए.

शायरी की जबान वो है जो निदा ने कहा-

हिंदू भी मजे में हैं,मुसलमां भी मजे में 

इंसान परेशान यहाँ भी है , वहाँ भी 

जैसे शाहिद अंजुम कहते हैं -

अब इस्लामाबाद में भी महफूज नहीं

अच्छे खासे रामनगर में रहते थे.

शायर किसी पार्टी का झंडा नहीं उठाता,लेकिन यह जरूर बता देता है कि कौन क्या है?

शायर का काम है लोगों को जोड़ना और नफरत की दीवारों को गिराना , न कि नफरत की दीवार खड़ी करना.

कवि सम्मेलन / मुशायरों में सबसे अधिक पैसे उन्हें मिलते हैं जो अधिकाधिक तालियाँ बजवाते हैं,सनसनी फैलाते हैं.आयोजक इसी पर ध्यान देते हैं कि किसने कैसा मजमा लगाया. भीड़ किसने बढ़ाई और किसने घटाई... मुशायरे में भीड़ बनकर आने वालों की यह कमजोरी है कि वह सीधी सादी उपदेशात्मक बातों में कम रुचि लेते हैं,उत्तेजना, रोमांच और हास्य का पुट हो तो उसमें उनकी रुचि बढ़ जाती है.राहत को  सुनने वालों की  यह कमजोरी पता थी,इसलिए वे तात्कालिक मुद्दों पर उत्तेजना पैदा करने वाली शायरी करते थे.

उर्दू समीक्षकों ने उन्हें कभी गंभीरता से नहीं लिया.राहत की तरह ग़ज़ल कहने वाले हर महानगर में दो चार शायरहैं.उन्हें मुशायरों की मजमेबाजी नहीं आती,इसलिए उन्हें वह शोहरत ओर दौलत नहीं मिलती.हिंदी /उर्दू के मंचों पर ऐसे तमाम शायर हैं जो तात्कालिक और जज्बाती शायरी करके अपना वजूद बनाये हुए हैं लेकिन मोदी के खिलाफ एजेंडा नहीं चलाते,इसलिए उनकी नोटिस नहीं ली जाती है.राहत यह एजेंडा सेट करने में सफल रहे.

अदबी हलका पहले इतना अलग कभी नहीं था.

फिलहाल देश में दो ही तरह के कवि/लेखक बड़े हैं ,वे या तो मोदी समर्थक हैं या मोदी विरोधी.बाकी किसी की चर्चा ही नहीं होती.

कोरोना काल में राहत का एक शेर वायरल हुआ था,जिसका एक ही मिसरा ध्यान में है-

अगर कुरान हो घर में तो कोरोना नहीं होता ….

इस वैज्ञानिक युग में इतनी अवैज्ञानिक बात ……फिर मौलाना शाद और इस शायर में फर्क क्या था ?

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