गुरुवार, 4 सितंबर 2025

तंबाकू विज्ञापन और अभिनेता


 - रासबिहारी पाण्डेय

गत दिनों अजय देवगन,शाहरुख खान और अक्षय कुमार को टीवी पर पान मसाला का विज्ञापन करने के लिए उच्च न्यायालय के लखनऊ खंडपीठ ने कारण बताओ नोटिस जारी किया था।तीनों अभिनेताओं का कद बहुत बड़ा है।अभिनेता के रूप में उन्होंने समाज पर अपनी गहरी छाप छोड़ी है।इन्हें

फिल्म फेयर, नेशनल अवार्ड और पद्मश्री जैसे उच्च सम्मानों से विभूषित किया गया है।ये अभिनय की दुनिया में अभी पूर्ण सक्रिय हैं और किसी तरह के अभाव से बिल्कुल नहीं गुजर रहे हैं। तंबाकू और पान मसाला स्वास्थ्य के लिए कितना हानिकारक है,कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी तक का जनक है,वे इससे भी पूर्ण परिचित हैं;बावजूद 30 सेकंड के विज्ञापन के एवज में मिलने वाले करोड़ों रुपए का लोभ नहीं छोड़ सके और अपने काम के बदौलत बनी अपनी छवि की परवाह किए बगैर अपने लाखों चाहने वालों को संदेश देने लगे कि हम इसी ब्रांड को पसंद करते हैं,आप भी सेवन कीजिए।

टीवी पर शराब और तंबाकू जैसे उत्पादों के विज्ञापन पर रोक है लेकिन इस ब्रांड के अन्य उत्पादों का विज्ञापन वैध है। कंपनियां बड़े अभिनेताओं को मुंहमांगी रकम देकर माउथ फ्रेशनर या इलायची के नाम से विज्ञापन करवा कर अपने हक में इस्तेमाल कर लेती हैं।जनता बखूबी इस बात को समझती है कि यह किस ब्रांड का विज्ञापन है।कुछ वर्ष पूर्व सुनील गावस्कर,वीरेंद्र सहवाग और कपिल देव जैसे दिग्गज क्रिकेटरों ने भी एक तंबाकू ब्रांड का विज्ञापन किया था जबकि सचिन तेंदुलकर ने ऐसे एक ब्रांड के विज्ञापन के एवज में 20 करोड़ राशि का प्रस्ताव ठुकरा दिया था। सचिन ने अपने पिता साहित्यकार रमेश तेंदुलकर को वचन दिया था कि वे तंबाकू का विज्ञापन कभी नहीं करेंगे।काश हर पिता अपने बेटे से यह वचन लेता!


भारत में पान मसाले और तंबाकू का कारोबार बयालीस हजार करोड़ रुपए का है जो अगले वर्षों में तिरपन हजार करोड़ से अधिक हो जाने की उम्मीद है।एक आंकड़े के मुताबिक सताइस करोड़ से अधिक लोग इसका सेवन करते हैं। तंबाकू कंपनियों की नजर इन्हीं ग्राहकों पर है। अगर कोई कंपनी नियमित रूप से एक करोड़ ग्राहकों को भी अपना उत्पाद बेच लेती है तो वह खरबपति हो जाती है।इसलिए  विज्ञापन के रूप में पचीस पचास करोड़ खर्च करना उसके लिए घाटे का नहीं,मुनाफे का सौदा है।उत्पाद में लागत से कई गुना अधिक लाभ होता है।विज्ञापन ही इनके व्यापार का मूल है।

करोड़ों लोग जिन अभिनेताओं और क्रिकेटरों को अपना आदर्श मानते हैं,बैंक बैलेंस बढ़ाने के लोभ में वे नैतिकता ताक पर रखकर अपना जमीर बेच देते हैं।सोशल मीडिया पर ट्रोल होने के बाद अक्षय कुमार ने माफी मांगते हुए आगे से ऐसा कोई विज्ञापन न करने की शपथ ली , वहीं अमिताभ बच्चन ने करार खत्म हो जाने के बाद भी दिखाये जा रहे अपने विज्ञापन के लिए उक्त ब्रांड को नोटिस भेजी।

भारत सरकार को ऐसी ठोस नीति बनाना चाहिए कि ऐसे उत्पादों को टीवी और सिनेमा के जरिए किसी प्रकार का बढ़ावा न मिल सके।

आइए हम भी यह संदेश दें -

अगर जिंदगी से है प्यार 

तो तंबाकू से करें इनकार।

मंगलवार, 2 सितंबर 2025

स्त्री विमर्श का सच

 रासबिहारी पाण्डेय

हिंदी की विभिन्न साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में इधर के कुछ वर्षों में स्त्री विमर्श के नाम पर जो कुछ बातें होती रहीं हैं,उनमें प्रमुखत: स्त्री के प्रति समाज, समुदाय, धर्म एवं पुरुषों के दृष्टिकोण की ही चर्चा ज्यादातर रही है। इनमें यदि कहीं स्त्री के व्यक्तिगत दोष या कमी की बात आई भी है तो उसे भी पुरुष वर्चस्वता के खाते में डाल दिया गया है- जैसे बहू के प्रति सास का अन्यायपूर्ण क्रूर बर्ताव या दहेज हत्या। कहा गया कि ऐसे कृत्य सासें या ननदें अपने जेठों, देवरों,पतियों, भाइयों आदि पुरुषों के बहकावे या धमकियों से मजबूर होकर ही करने को विवश होती हैं। स्त्री की कमजोर आर्थिक स्थिति की भी चर्चा हुई है।इन सब बातों के साथ ही स्त्री विमर्श का दायरा पिछले कुछ वर्षों में व्यक्तिगत आरोपों-प्रत्यारोपों और लांछनाओं तक भी जा पहुंचा है।लेकिन इस समूची समस्या की जड़ में समाहित एक और अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू की ओर ध्यान देना अति आवश्यक है, वह यह कि अपनी कुछ क्षुद्र महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए कुछ स्त्रियां समाज के आगे खुद स्वयं को किस तरह एक बाजारू एवं  बिकाऊ वस्तु की समझौता के शर्त के तौर पर पेश करती हैं। मैं विज्ञापन जगत और फिल्म इंडस्ट्री की मॉडल और अभिनेत्रियों की बात नहीं कर रहा, कॉल गर्ल्स या वेश्याओं की भी नहीं,ये तो पूंजीवादी सामाजिक व्यवस्था की अभिन्न अंग हैं।मैं अशिक्षिताओं और गरीबी रेखा के नीचे जीने को विवश महिलाओं की भी बात नहीं कर रहा, बल्कि मध्यमवर्गीय- उच्च वर्गीय कुछ उन महिलाओं की बात कर रहा हूं जो पर्याप्त पढ़ी लिखी हैं,नौकरीशुदा या उपार्जनक्षम हैं लेकिन निहायत गैरजरूरी और क्षुद्र महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए नारी की गरिमा को गिराने वाले कृत्य पूरी योजना बद्धता के साथ चौकस होकर कर रही हैं।पुरुष स्त्री पर कितने अत्याचार करता है, उसके विकास में कितना बाधक होता है,इस मुद्दे पर मोटी मोटी पुस्तकें

 लिखने और शोध करने वाली 

कुछ महिलाएं यश और धन की लिप्सा में अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा दांव पर लगाने में कोई संकोच नहीं करतीं बल्कि गाहे-ब-गाहे इसका सार्वजनिक रूप से प्रदर्शन करके इतराती फिरती हैं।स्त्री विमर्श का आशय स्त्री चरित्र से या फिर त्रिया चरित्र से बिल्कुल नहीं,स्त्री जैसी भी हो समाज में उसकी स्थिति से है। उसके प्रति किए जा रहे अन्याय अत्याचार से है। उसकी दोयम दर्जे की हालत से है, लेकिन यह भी सच है कि इन सभी बातों पर भी यानी स्त्री के समग्र विकास, समूचे उन्नयन पर भी उपरोक्त मानसिकता वाली स्त्रियों के कार्यकलाप का नकारात्मक प्रभाव पड़ता ही है।पहले से ही बहुत बहुत बिगड़ी पुरुष मानसिकता ऐसी महिलाओं की वजह से और बिगड़ती है और समाज में स्त्री की छवि दूषित होती है।देश के तमाम महानगरों, नगरों, कस्बों में साहित्य के साथ ही विभिन्न कलाओं राजनीति आदि सभी क्षेत्रों में  यह दृष्टिगत होता है। महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान,आशापूर्णा देवी,महाश्वेता देवी  आदि को सीढियों की जरूरत नहीं पड़ी। कृष्णा सोबती,मन्नू भंडारी को बैसाखियों की जरूरत नहीं पड़ी, बल्कि इन्होंने अपने आसपास के परजीवियों को झाड़ बुहार कर निकाल फेंका। मात्र अपनी प्रतिभा, मेहनत और सच्चाई के बल पर खड़ी रहीं। पुरुष प्रधान समाज में भी नारी गरिमा का दायित्व स्वयं नारी के ही हाथों में है।जो अपना सम्मान स्वयं नहीं करते,दुनिया आगे बढकर उनका सम्मान कभी नहीं करती।

कब तक दोयम दरजा पाती रहेगी हिंदी?



रासबिहारी पाण्डेय


सिंह कुछ दूर चलने के बाद मुड़कर देखता है, इसे सिंहावलोकन कहते हैं। पंछी आकाश में उड़ते उड़ते धरती की ओर दृष्टिपात करते हैं, उसे विहंगावलोकन कहते हैं। इसी प्रकार भारत सरकार प्रतिवर्ष 14 सितंबर और 10 जनवरी को देश में हिंदी के कामकाज की वर्तमान स्थिति का अवलोकन करती है मगर हर बार इसी नतीजे पर पहुंचती है कि हिंदी अभी इस लायक नहीं हुई है कि उससे पूरी तरह देश की शासन व्यवस्था और न्याय व्यवस्था चलाई जा सके। 135 करोड़ की आबादी वाले हमारे देश की अपनी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। हिंदी को अभी मात्र राजभाषा का दरजा प्राप्त है। संविधान के अनुसार हिंदी के कारण समझ में कहीं कोई दुविधा की स्थिति आती है तो आशय को स्पष्ट करने के लिए संविधान का अंग्रेजी संस्करण ही मान्य होगा।


जापान, रूस , जर्मनी, ब्रिटेन आदि सभी विकसित देश अपनी भाषा में चिकित्सा (मेडिकल), अभियांत्रिकी (इंजीनियरिंग),प्रबंधन(मैनेजमेंट),अंतरिक्ष विज्ञान(स्पेस साइंस)आदि की पढ़ाई करा रहे हैं और नित नयी ऊँचाइयां छू रहे हैं। एक अपना देश है कि अंग्रेजी में ही ये पाठ्यक्रम उत्तीर्ण करने के लिए मजबूर कर रहा है। हिंदी माध्यम से ये डिग्रियां देने के लिए एक दो विश्वविद्यालय अपवाद की तरह खुल गए हैं,कामचलाऊ अध्ययन सामग्री भी बना ली गई है,मगर वहां से शिक्षा प्राप्त करने वालों को दोयम दर्जे का माना जाता है। उनकी वह प्रतिष्ठा नहीं है,जो अंग्रेजी माध्यम वालों की है। यह मानसिकता बदलने की जरूरत है।

जिस प्रकार माध्यमिक कक्षा में अंग्रेजी और गणित में उत्तीर्ण होने की अनिवार्यता के कारण देश के लाखों विद्यार्थी पढ़ाई छोड़कर घर बैठ जाते हैं,उसी प्रकार अंग्रेजी में निष्णात न होने की वजह से देश के लाखों विद्यार्थी डॉक्टर,इंजीनियर,वैज्ञानिक आदि बनने से वंचित रह जाते हैं।अंग्रेजी शिक्षा के नाम पर ही कोचिंग संस्थानों और कान्वेंट स्कूलों का गोरखधंधा भी चल रहा है। इनकी महंगी फीस देना सामान्य या मध्यमवर्गीय परिवारों के बस में नहीं है।    पटना,दिल्ली,कोटा,प्रयागराज समेत

कई शहरों में

आइआइटी,आइआइएम,मेडिकल आदि पाठ्यक्रमों के कोचिंग के नाम पर लाखों रुपये वसूले जाते हैं।ये पाठ्यक्रम यदि हिंदी भाषा में हों तो विद्यार्थियों की आधी समस्या ऐसे ही सुलझ जाय। अंग्रेजी का ताला लगाकर देश की एक बड़ी आबादी को प्रगति की सीढ़ियां चढ़ने से रोक दिया गया है।

एक बात यह भी आती है कि दक्षिण भारतीय सांसद हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का विरोध करते हैं,इसलिए हमारी सरकार उन्हें खुश रखने के लिए कदम पीछे हटा लेती है। अगर धारा ३७० और राम मंदिर जैसे पेचीदे मसले को सुलझाया जा सकता है तो भाषा के मुद्दे पर एकजुट होकर समाधान क्यों नहीं निकाला जा सकता ? यह सर्वविदित है कि हिंदी के अतिरिक्त ऐसी कोई अन्य भाषा नहीं है जिसमें राष्ट्रभाषा बनने की क्षमता हो। पूरे देश में बोली और समझे जाने वाली एकमात्र भाषा हिंदी है। हमें इस मुहिम को एक अभियान की शक्ल देनी ही होगी और इसके लिए निम्नांकित बिंदुओं पर भी अमल करना जरूरी है।


१जहां भी संभव हो हिंदी में आवेदन करें।

२हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित करने के लिए हस्ताक्षर अभियान चलायें और हर जगह अपने हस्ताक्षर हिंदी में करें।

३न्यायालयों में वकीलों और जजों को हिंदी में बहस करने और निर्णय सुनाने के लिए दबाव बनायें।

४अपने बच्चों को हिंदी साहित्य से परिचित करायें।

५हम हिंदी बोलने में गर्व का अनुभव करें,जो लोग झिझकते हैं उन्हें प्रोत्साहित करें। 

दुष्यंत कुमार का शेर है - 

' कैसे आकाश में सुराख नहीं हो सकता

एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।'

हमें पत्थर उछालने की पहल करनी ही होगी।



रविवार, 31 अगस्त 2025

साधो कर बैठी मैं प्रीत!

 साधो कर बैठी मैं प्रीत

वह है राम रहीम हमारा,मैं उसकी हनीप्रीत।

आँख का अंधा गाँठ का पूरा मिला मुझे मनमीत।

भैंसे सा है रंग, स्यार सा चतुर सुनाए गीत।

आधा हिंदू, तुर्क है आधा, वर्णसंकरी रीत।

सुन्नत भी करवा बैठा है, पहन जनेऊ पीत।

निज सखियन से जब मिलवाती, रहतीं वे भयभीत।

मगर मगन मन सुनती रहतीं, कुसुम भ्रमर संगीत।

है सवाल पेट का मेरे, मैं तो उससे क्रीत!

समझ नहीं पाती मैं इसको हार कहूँ या जीत।


जंग बिना ही मरेंगे लाखों मातम घर-घर देखेंगे!

 जंग बिना ही मरेंगे लाखों मातम घर-घर देखेंगे!


21'वीं सदी में ग़ज़ल सबसे लोकप्रिय काव्य विधा बनकर उभरी है।छंद में लिखने वाले लगभग सभी कवि ग़ज़ल कहने लगे हैं।जीवन की प्राथमिकताएं जिस प्रकार बदली हैं , उनमें किसी एक विषय पर ठहर कर देर तक सोचने और निकष तक पहुंचाने का समय नहीं रह गया है। ग़ज़ल कहने में यह सुविधा है कि दो पंक्तियों वाले हर शेर के बाद किसी अन्य विषय पर बात की जा सकती है ,बस रदीफ,काफिए और बहर का खयाल रखना है। हालांकि ग़ज़ल की दुनिया में इतने मील के पत्थर हैं कि उनके समकक्ष या उनसे आगे निकलकर शायरी कर पाना एक बड़ी चुनौती है किंतु कविता हर युग में अपने नए प्रतिमान गढ़ती है और अपने नए नुमाइंदों का इंतखाब करती है ।वरिष्ठ शायर विजय अरुण पिछले 50 सालों से ग़ज़लों पर काम कर रहे हैं।उर्दू के वरिष्ठ शायर और समीक्षक कालिदास गुप्ता रिज़ा के प्रिय शागिर्द के रूप में लंबे अरसे तक उन्होंने शायरी की बारीकियां सीखी हैं।रिजा साहब और उनका साथ नैरोबी में ही बन गया था, बाद में गुरू शिष्य दोनों मुंबई आ गए। 

87 वर्ष की उम्र में विजय अरुण जी का पहला ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हुआ है - 'ग़ज़ल कमल ग़ज़ल गुलाब'। पुस्तक में हिंदी उर्दू की कुल 188 ग़ज़लें संग्रहीत हैं जिनमें

जीवन और जगत के तमाम रहस्य उद्घाटित हुए हैं।

संसार को दुखालय कहा गया है क्योंकि यहां सुख की अपेक्षा दुख के लम्हे कहीं अधिक होते हैं,इस बात को शेर की शक्ल में पुख्ता उदाहरण के साथ वे कहते हैं-


दुख की निस्बत सुख बहुत ही कम है इस संसार में 

हो महाभारत कि रामायण यही पाया गया।


कोई कलाविद जब किसी सामंत का गुलाम हो जाए तो विजय अरुण की नजर में उसकी कला साधना में खोट आ जाती है-


कलाविद जब किसी सामंत की जागीर हो जाए 

तो उसकी ही कला उसके लिए जंजीर हो जाए।


मनुष्य को देवता और  दानव से श्रेष्ठ सिद्ध करते हुए वे कहते हैं-


कोई है देव तो कोई है दानव सृष्टि रचना में 

मैं इन दोनों सिरों को जोड़ता हूं और मानव हूं।


योग और प्राणायाम में हिंदू मुस्लिम कोण ढूंढने वालों के लिए वे कहते हैं-


मैं तो करता हूं अरुण तुमसे जरा योग की बात 

और तुम बीच में इस्लाम को ले आते हो। 


दीपक और आतिशबाजी की उपयोगिता का अत्यंत बारीक विश्लेषण करते हुए वे कहते हैं-


हम दीपक ही बनें अरुण जी और अंधेरा दूर करें 

आतिशबाजी का क्या बनना जो एक पल का जलवा हो।


कोरोना वायरस की भयावहता और उससे भी कहीं अधिक लेजर की लड़ाई की कल्पना करते हुए शायर कहता है-


कब बचपन में यह सोचा था यह भी मंजर देखेंगे ,

जंग बिना ही मरेंगे लाखों मातम घर-घर देखेंगे?

मरेंगे लोग न खंजर से अब लोग मरेंगे लेजर से 

किन्ही अजायब घरों में ही अब रक्खे खंजर देखेंगे।


अमीरी आ जाने पर कुछ लोगों की ज़बान तल्ख़ हो जाती है। ऐसे लोगों के लिए वे कहते हैं-


इन शरीफों को नहीं बात भी करने की तमीज़ 

जो हो तहज़ीब से खाली वो शराफत कैसी ?


दौलत की किस्मत पर तंज करते हुए वे कहते हैं-


उससे इज्ज़त भी है शोहरत भी है और ताक़त भी है 

ऐ अरुण पाई है दौलत ने भी किस्मत कैसी?


संग्रह में कुछ हास्य व्यंग्य की ग़ज़लें भी शामिल हैं। नए युग के मजनू और विवाहित पुरुष की भागदौड़ को अपने शेर में वे कुछ यूँ चित्रित करते हैं-


इसे देखिए, यह है नए समय का छैला 

कपड़ा जिसका घिसा पिटा और मैला मैला

वह है पुरुष विवाहित काम से जब घर लौटे

दौड़ा जाए, हाथ में हो भाजी का थैला


आधुनिक नेता के पारिवारिक जीवन और शायर की मुफलिसी पर तंज करते हुए वे कहते हैं-


गुंडा इक बेटा था अब इक है वकील 

अब मेरे लीडर को कोई डर नहीं।

की अरुण ने तोबा गुरबत के सबब

शेख  तेरे दीन से डरकर नहीं।


अभिनेता के जीवन की त्रासदी को बयान करते हुए वे कहते हैं -


'अरुण' के चेहरे पर मत जा, उसके तू दिल में झांक 

वह तो अभिनेता है , चेहरे से सदा मुस्काए ।


 धार्मिक रूढ़ियों में फंसे मनुष्य की चेतना को जागृत करते हुए वे कहते हैं -


जाकर मंदिर में ही क्यों दीपक जलाना है तुझे जिस जगह दीपक नहीं है उसे जगह दीपक जला।


दुनिया में हर समस्या का समाधान है और हर मर्ज का इलाज है,इस विचार को एक शेर में निरूपित करते हुए वे कहते हैं- 


लुकमान को पता न हो यह बात है अलग

 वैसे तो हर मरज का यहां पर इलाज है ।


विजय अरुण की गजलें  प्रेम,श्रृंगार,अध्यात्म और युगबोध की चाशनी में पगी हैं। पाठकों के लिए 'ग़ज़ल कमल ग़ज़ल गुलाब'एक अनुपम सौगात है।

अद्विक प्रकाशन,दिल्ली द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक का मूल्य मात्र ₹300 है।यह संग्रह अमेजॉन पर उपलब्ध है।

साधो! मैं हूं कवि बरियारा ।

 साधो! मैं हूं कवि बरियारा ।

संग में राखूं एक पतुरिया इन आंखिन को तारा।

सभा सजावत वही हमारी निज सखियन के द्वारा।

हर इक विधा में मुंह मारूं पर कोउ न पूछनिहारा।

निज कुटिया में निज चादर से हो सम्मान हमारा।

श्रेष्ठ कविन को देखत ही बस चढ़ता मेरा पारा।

रूप शिखंडी का धरकर मैं करता गारी गारा।

हूँ अतीक़ को चेला देखूं परधन औ परदारा।

चमचा मेरा दैत्यमणि अति हकलात बेचारा।

मद्यपान की खातिर लेकिन करत रहत

दरबारा। 

साधो! मैं हूं कवि बरियारा।।