शनिवार, 23 अगस्त 2025

लापता लेडीज' ....मेरी नजर में



रासबिहारी पाण्डेय

बॉलीवुड की मारधाड़ और मसाला फिल्मों के बीच 'लापता लेडीज' एक ठंडी बाजार की तरह है, बावजूद इसके मुकम्मल फिल्म के तौर पर इसका मूल्यांकन भी जरूरी है।फिल्में हम मनोरंजन के लिए देखते हैं। यह फिल्म हमें स्वस्थ मनोरंजन देती है।हिंदी फिल्मों से दूर होते जा रहे गांव कस्बे खेत खलिहान और बाजार भी आंखों को सुकून देते हैं।

ट्रेन से उतरने के दौरान घूंघट की वजह से दुल्हन बदलने की कई घटनाएं 50-60 साल पहले तक होती रही हैं जो अखबारों की सुर्खियां भी बनती रही हैं। रविंद्र नाथ ठाकुर के उपन्यास नौका डूबी की दुल्हन एक नाव हादसे के बाद बदले हुए पति के साथ  बनारस की जगह कोलकाता पहुंच जाती है।इस लिहाज से देखें तो यह सत्तर अस्सी के दशक की कहानी है।आज के जमाने से इसका कोई तआल्लुक नहीं है।लापता लेडीज में दो दुल्हनें ट्रेन के जनरल कंपार्टमेंट में बैठकर अपने ससुराल जा रही हैं। ट्रेन से उतरते वक्त हड़बड़ी में  एक दुल्हन जानबूझकर किसी और के साथ चली जाती है जबकि दूसरी दुल्हन  ट्रेन से उतरने के बाद खुद को असहाय महसूस करती है । प्लेटफार्म पर मिलने वाले  छोटू के जरिए वह चाय नास्ते का स्टाल चलाने वाली मंजू माई का सहारा पाती है और फिर दीवार पर लगे पोस्टर के कारण अपने पति दीपक तक पहुंच पाती है।जया जो जानबूझकर दीपक के साथ दुल्हन के वेश में उतर गई थी, पोस्टर उसी के द्वारा लगवाये गये थे ।वह आगे अपनी पढ़ाई जारी रखना चाहती है। इंस्पेक्टर रवि किशन के कारण उसे अपने दहेज लोभी पति से राहत मिलती है और वह कृषि विज्ञान की पढ़ाई करने देहरादून चली जाती है।

आजकल हर गांव कस्बे में अनपढ़ लड़कियां तक रील बना रही हैं और फेसबुक,इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर शेयर भी कर रही हैं। इतनी साक्षर और सावधान तो हैं ही कि अपने पति ,ससुराल और जगह का नाम पता और मोबाइल नंबर अपने पास रखती हैं। सो इस जमाने में दुल्हन की अदला बदली की बात समझ में नहीं आती। जितने सीधे-सादे सरल और सहयोगी लोग फूल और जया को मिलते हैं, दुनिया अभी इतनी सीधी नहीं हुई है।

रेल बस और वायुयान के ऐसे तमाम संस्मरण हमारे पास हैं जिसमें कर्मचारियों की अकर्मण्यता और बदतमीजी से हम रूबरू होते रहे हैं लेकिन लापता फूल को रेलवे और रेलवे प्लेटफार्म के आसपास किसी खल चरित्र से मुलाकात नहीं होती है। फूल स्टेशन पर दो मर्दों के बीच में सो जाती है जिसमें से एक नकली टांगों वाला बनकर दिन में भीख मांगता है और दूसरा छोटू मंजू माई के साथ काम करता है। यह दृश्य अविश्सनीय लगता है।

फिल्म में प्रमुख रूप से चार औरतों की कहानी है। पहली फूल है जो परंपरा से जुड़ी हुई है,उसकी अपनी कोई महत्वाकांक्षा नहीं है। वह चुपचाप अपने पति के साथ जा रही है। दूसरी जया है जिसके जीवन में शादी से महत्वपूर्ण उसका अपना करियर है। तीसरी मंजू माई जो अपने शराबी पति से दूर रहकर अपनी बची खुची जिंदगी सुकून से गुजारना चाहती है। चौथी दीपक के परिवार की लड़की बेला है जिसके पति ने उसे छोड़ दिया है और वह मायके में ही रहने को अभिशप्त है। फिल्म के तीन किरदारों को अपने मन के मुताबिक पुरुष नहीं मिलते इसलिए उन्हें अपने जिंदगी की लड़ाई खुद लड़नी है।भारत में हर रोज सैकड़ो लड़कियां लापता हो रही हैं।लेकिन उनका सच यह नहीं है जो किरण राव इस फिल्म में दिखाती हैं।यहां न दस साल  की बच्ची सुरक्षित है न अस्सी साल की औरत।पचास साठ साल की औरतें भी छेड़खानी की शिकार होती हैं,वहीं बूढी और अशक्तऔरतें लूटपाट की शिकार होती हैं। जिस तरह इस फिल्म में दिखाते हैं कि एक लड़की रेलवे प्लेटफार्म पर सुरक्षित है और दूसरी लड़की पराए घर में सुरक्षित है,ऐसा संयोग बहुत कम होता है।  चूंंकि हिंदी फिल्मों में हैप्पी एंडिंग दिखानी होती है इसलिए जान बूझकर ऐसी कहानी गढी गई है। यहां घूसखोर दरोगा तक चरित्रवान और औरतों की इज्जत करने वाला है।यहां तक कि गाना सुनने के एवज में घूस की रकम दस हजार तक घटा देता है।आमिर खान की एक्स वाइफ फिल्म की निर्देशक किरण राव खुद एक तलाकशुदा महिला हैं। वे लंबे समय तक आशुतोष गोवारीकर की असिस्टेंट रह चुकी हैं। औरतों के दुख दर्द और पुरुष मानसिकता की उन्हें अच्छी जानकारी है।कुछ साल पहले आमिर खान ने यह बताया भी था कि किरण को यहां रहने में डर लगता है लेकिन वही किरण जब फिल्म बनाने निकलीं तो उन्हें सब कुछ अच्छा अच्छा ही नजर आने लगा।

मनोरंजक फिल्म बनाने के चक्कर में वे हकीकत की ओर पीठ करके बैठ गई हैं।बावजूद इसके करण जौहर और यशराज के बिग बजट फिल्मों की दौड़ में शामिल न होकर उन्होंने अपनी अलग राह चुनी है,इसके लिए बधाई तो बनती ही है।




अगर कुरान हो घर में तो कोरोना नहीं होता

 अगर कुरान हो घर में तो कोरोना नहीं होता

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कभी गंगा बुला रही,कभी गोमती बुला रही है,

नालायक अहमदाबाद लौट जा तेरी बीवी बुला रही है

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सिर्फ कब्रों की जमीनें देके मत बहलाइये

राजधानी दी थी,राजधानी चाहिए

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सौदा यहीं पे होता है हिंदोस्तान का

संसद भवन में आग लगा देनी चाहिए

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लहू में डूबी हुई आस्तीन जीती है

चुनाव तुम नहीं जीते मशीन जीती है

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निकाह ही न हुआ तो मर्द कैसा है(पहला मिसरा पूरा याद नहीं )

काम घुटनों से जब लिया ही नहीं ,फिर ये घुटनों में दर्द कैसा है 

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ऐसे जहरीले शेर कहने वाले राहत इंदौरी को फेसबुक पर सदी का महान शायर घोषित करने की मुहिम चल रही है.इस वकालत में हिंदी के लोग ज्यादे हैं,उर्दू के कम हैं.

जबसे नरेंद्र मोदी पीएम बने, तबसे राहत और इमरान प्रतापगढ़ी की शायरी एक जैसी हो गई थी,दोनों का काम मोदी को गाली दिए बिना नहीं चलता था.

किसी शायर के लिए उसका वतन पहले होता है,मजहब बाद में, मगर राहत मजहबी और सियासी शायरी करके मुशायरों को काबू में कर चुके थे या कहिए मुशायरों के काबू में आ चुके थे।मुशायरों से मिलने वाले लिफाफे के मोह ने उनको जमूरा बना दिया था.,अगर वे मिमिक्री करते हुए लड़खड़ाती जबान में ऐसी जेहादी बातें न करते तो मुशायरे से कबके बाहर हो चुके होते।अपने दौर के निदा फाजली,वसीम बरेलवी,शीन काफ निजाम आदि के मुकाबले उनकी शायरी कहीं नहीं ठहरती।

मर जाऊँ तो मेरे पेशानी पे हिन्दुस्तान लिख देना ….कहने से देशभक्ति प्रमाणित नहीं होती. यहाँ तो अदालतों में गीता, कुरान पर हाथ रखकर भी लोग झूठ बोलते हैं.

सत्ता किसी की हो ,अदीब हरदम विपक्ष में होता है,मगर व्यक्तिगत स्तर पर उतर कर घटिया और ओछी बातें करने लग जाना,न्यायालय को झूठा बताने लग जाना,चंद फायदों के लिए अपना ज़मीर बेच देने का उदाहरण देखना हो तो राहत उसके सबसे बड़े उदाहरण हैं.

कोई कवि/शायर अदब‌ की दुनिया में लंबे समय तक तब याद किया जाता है जब वह परतदार शायरी करता है.लक्षणा,व्यंजना का सहारा लेते हुए सामाजिक सरोकारों से जुड़ी गहरी बातें करता है.ऐसी बातें जो लोगों को चिंतन के लिए विवश करती हैं.

मेरा बाप , तेरा बाप की टुच्ची भाषा तो गली के बिगड़ैल शोहदे बोलते 

कौन सा शब्द कहाँ बरतना है,कैसे बरतना है,इसका शऊर लोग कवि/लेखकों से सीखते हैं/शायरों की ही जबान गुंडों की हो जाय तो उसका अपराध क्षम्य कैसे हो सकता है? कभी फैज ने कहा था - चले भी आओ कि खुशबू का कारोबार चले... कारोबार शब्द को उन्होंने इस तरह बरता कि मुँह से वाह  निकलता है और इधर किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है …..सुनकर मुँह से क्या निकलेगा, यह बताने की जरूरत नहीं है.

सर्वविदित है कि मुगलों ने इस देश को लूटा,अंग्रेजों ने संगीनों के बल पर उनसे राज छीना , पर यह कहने की हिम्मत कि राजधानी दी थी,राजधानी चाहिए….भारत जैसे देश में ही हो सकती है. कुछ देशों को छोड़कर तमाम मुस्लिम देशों में दूसरे धर्मों के लोग दोयम दर्जे के नागरिक हैं,उन्हें सारे मौलिक अधिकार प्राप्त नहीं हैं.मगर भारत में खुद को डरी सहमी हुई कौम बताने वाले लोग अगर इतने मुखर हैं तो निडर होकर क्या करेंगे ,यह भी साफ है

सियासी नारेबाजी करके थोड़े समय के लिए लोकप्रिय तो हुआ जा सकता है लेकिन साहित्य की दुनिया में लंबे समय तक टिका नहीं जा सकता.

गोधरा प्रकरण पर मुस्लिम कौम को क्लीन चिट देते हुए राहत ने कहा था -

जो अपने मुर्दों को भी जलाते नहीं

जिंदा लोगों को क्या जलाएंगें ?

यह दलील सुनकर तो अदालतों को मान लेना चाहिए कि इस्लाम को मानने वाले कभी दंगे में शामिल ही नहीं हुए.

शायरी की जबान वो है जो निदा ने कहा-

हिंदू भी मजे में हैं,मुसलमां भी मजे में 

इंसान परेशान यहाँ भी है , वहाँ भी 

जैसे शाहिद अंजुम कहते हैं -

अब इस्लामाबाद में भी महफूज नहीं

अच्छे खासे रामनगर में रहते थे.

शायर किसी पार्टी का झंडा नहीं उठाता,लेकिन यह जरूर बता देता है कि कौन क्या है?

शायर का काम है लोगों को जोड़ना और नफरत की दीवारों को गिराना , न कि नफरत की दीवार खड़ी करना.

कवि सम्मेलन / मुशायरों में सबसे अधिक पैसे उन्हें मिलते हैं जो अधिकाधिक तालियाँ बजवाते हैं,सनसनी फैलाते हैं.आयोजक इसी पर ध्यान देते हैं कि किसने कैसा मजमा लगाया. भीड़ किसने बढ़ाई और किसने घटाई... मुशायरे में भीड़ बनकर आने वालों की यह कमजोरी है कि वह सीधी सादी उपदेशात्मक बातों में कम रुचि लेते हैं,उत्तेजना, रोमांच और हास्य का पुट हो तो उसमें उनकी रुचि बढ़ जाती है.राहत को  सुनने वालों की  यह कमजोरी पता थी,इसलिए वे तात्कालिक मुद्दों पर उत्तेजना पैदा करने वाली शायरी करते थे.

उर्दू समीक्षकों ने उन्हें कभी गंभीरता से नहीं लिया.राहत की तरह ग़ज़ल कहने वाले हर महानगर में दो चार शायरहैं.उन्हें मुशायरों की मजमेबाजी नहीं आती,इसलिए उन्हें वह शोहरत ओर दौलत नहीं मिलती.हिंदी /उर्दू के मंचों पर ऐसे तमाम शायर हैं जो तात्कालिक और जज्बाती शायरी करके अपना वजूद बनाये हुए हैं लेकिन मोदी के खिलाफ एजेंडा नहीं चलाते,इसलिए उनकी नोटिस नहीं ली जाती है.राहत यह एजेंडा सेट करने में सफल रहे.

अदबी हलका पहले इतना अलग कभी नहीं था.

फिलहाल देश में दो ही तरह के कवि/लेखक बड़े हैं ,वे या तो मोदी समर्थक हैं या मोदी विरोधी.बाकी किसी की चर्चा ही नहीं होती.

कोरोना काल में राहत का एक शेर वायरल हुआ था,जिसका एक ही मिसरा ध्यान में है-

अगर कुरान हो घर में तो कोरोना नहीं होता ….

इस वैज्ञानिक युग में इतनी अवैज्ञानिक बात ……फिर मौलाना शाद और इस शायर में फर्क क्या था ?

कौशल विकास के साथ आत्मविश्वास भी जरूरी


रासबिहारी पाण्डेय



       अधिकांश विद्यार्थी प्रारंभ से अपने कौशल को नहीं पहचान पाते और बी.ए.,एम. ए. की डिग्री लेने के बाद इस उहापोह में पड़ जाते हैं कि उन्हें अब क्या करना चाहिए?युवा इस दुविधा में न पड़े़ं, प्रारंभ से ही  अपने कौशल को पहचानें और उसके विकास के प्रति उनमें जागरूकता आए, इस उद्देश्य से यूनेस्को ने १५ जुलाई को विश्व युवा कौशल दिवस के रूप में चिन्हित किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जुलाई २०१५ में कौशल भारत अभियान  की शुरुआत की। इसके तहत भारत में ४० करोड़ से अधिक लोगों को विभिन्न कार्यों में प्रशिक्षित करने का उद्देश्य रखा गया है। मोदी जी ने युवाओं को यह संदेश दिया है कि वे फ्यूचर स्किल्स के लिए तैयार रहें और दुनिया में जो कुछ हो रहा है उससे स्वयं को जोड़ने का प्रयत्न करें।

कौशल भारत के अंतर्गत जो युवक  बेरोजगार हैं, स्कूल या कॉलेज छोड़ चुके हैं सभी को वैल्यू एडिशन दिया जाता है। इस मंत्रालय से एक प्रमाण पत्र जारी किया जाता है जिसे विदेशी संगठनों सहित सभी सार्वजनिक एवं निजी संस्थानों द्वारा मान्यता दी जाती है।योजना को गति देने के लिए तीन अन्य संस्थानों द्वारा समर्थित किया गया है - राष्ट्रीय कौशल विकास एजेंसी (NSDA), राष्ट्रीय कौशल विकास निगम (NSDC) एवं प्रशिक्षण महानिदेशालय (DGT)। पहले लक्ष्य को पूरा करने की जिम्मेदारी विभिन्न मंत्रालयों में विभाजित की जाती थी किन्तु अब ये एक दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं।कौशल विकास और इंटरप्रेन्योर्शिप मंत्रालय मुख्य मंत्रालय है जो अन्य मंत्रालयों एवं संस्थानों के साथ समन्वय बना रहा है।युवाओं के लिए यह एक स्वर्णिम अवसर है।प्रशिक्षित होकर युवा बेहतर 

अवसरों की तलाश कर सकें,इसके लिए भारत सरकार न सिर्फ नि:शुल्क प्रशिक्षण दे रही है बल्कि कौशल भारत अभियान के तहत प्रशिक्षत युवाओं को बैंकों से ऋण देने की भी ब्यवस्था है। पहले परंपरागत नौकरियों पर जोर दिया जाता था किन्तु इस योजना के तहत सभी प्रकार की नौकरियों के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। मनचाहे क्षेत्रों में युवा रोजगार पा सकें, इसके लिए भारत सरकार की यह एक सराहनीय पहल है। डॉक्टर,इंजीनियर बनाने वाले कोचिंग हब के रूप में प्रतिष्ठित कोटा शहर से हर वर्ष कुछ छात्रों के आत्महत्या की खबरें आती हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि कुछ छात्रों के माता-पिता उन्हें मनचाहे क्षेत्र में नहीं जाने देते और उनकी इच्छा के विरुद्ध डॉक्टर, इंजीनियर, मैनेजमेंट आदि कोर्स की तैयारी के लिए बाध्य करते हैं।कहा गया है- मन के हारे हार है,मन के जीते जीत...जो छात्र शुरुआती दौर में ही हतोत्साहित हो जाते हैं,वे डिप्रेसन का शिकार हो जाते हैं या नादानी में आत्महत्या तक कर लेते हैं। हमें अपनी शिक्षा प्रणाली में छात्रों को रोजगारपरक शिक्षा देने के साथ-साथ व्यवहारिक जीवन में हताशा निराशा और असफलता से कैसे लड़ें, हमारा आत्मविश्वास डगमगाए तो उसे पुनः कैसे प्राप्त करें? इससे संबंधित एक पाठ भी रखना ही चाहिए।                                     

पुरस्कारों से बहुत ऊपर है गीता प्रेस का स्थान





रासबिहारी पाण्डेय
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सनातन धर्म के ग्रंथों के सबसे बड़े प्रकाशक गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार दिए जाने का जहां चारों तरफ भरपूर स्वागत हुआ ,वहीं प्रगतिशीलता की खाल ओढ़े कुछ सेकुलर इसके विरोध में भी लग गए।
दुनिया के तमाम धार्मिक ग्रंथों से ऐसी बातें निकाली जा सकती हैं जो मानवता और संविधान विरोधी हैं लेकिन यह भी सच है कि इन ग्रंथों को पढ़कर हम अपने विवेक से उन चीजों को दरकिनार करके आगे बढ़ जाते हैं। बहुत संभव है कि ये ग्रंथ जिस समय लिखे गए थे, ये बातें उस समय की स्थितियों ;के अनुकूल रही हों। देश, काल और परिस्थिति केअनुसार हमें स्वयं यह निर्णय लेना होता है कि आज के लिए क्या उचित है? अगर गीता प्रेस न होता तो रामचरितमानस, रामायण, गीता, महाभारत, पुराण औ उपनिषद घर-घर तक सुलभ न हो पाते। गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित धार्मिक मासिक पत्रिका कल्याण के फिलहाल दो लाख से अधिक सदस्य हैं। अगर यह प्रकाशन चाहता तो प्रति महीने कई लाख के सरकारी/गैर सरकारी विज्ञापन इसमें छप सकते थे और इस तरह प्रेस का मुनाफा बढ़ सकता था।यही नहीं जो ग्रंथ जिस मूल्य पर यहां से मिल रहे हैं,अगर उसका दोगुना या तीन गुना दाम भी रखा जाए तो लोग उन्हें खरीदेंगे किंतु गीता प्रेस आमजन का ध्यान रखते हुए इसे न्यूनतम मूल्य पर उपलब्ध करा रहा है। कुछ खास दानदाताओं की उदारता के कारण प्रेस इस मिशन में सफल है। पिछले 100 वर्षों से अगर कोई संस्थान बिना किसी सरकारी अनुदान या कारपोरेट की सहायता के
सनातन धर्म के प्रचार में निरंतर लगा है तो क्या इसकी सराहना नहीं की जानी चाहिए? जो लोग धर्म को अफीम की संज्ञा देते हैं,क्या वे पूरी दुनिया से मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर और गुरुद्वारों का अस्तित्व समाप्त कर सकते हैं या अधिसंख्य आस्तिक आबादी को नास्तिक बना सकते हैं?यदि धर्म की शरण लेकर कोई सुख-शांति का अनुभव करता है और बिना कट्टरता को बढ़ावा दिए कोई इस कार्य में उसके लिए सहायक साबित हो रहा है तो इस पहल का स्वागत नहीं किया जाना चाहिए?गीता प्रेस को अपनी महानता सिद्ध करने के लिए किसी पुरस्कार या गांधी के नाम की जरूरत नहीं है। विगत चार पीढ़ियों से वह सनातन धर्म का पताका फहरा रहा है। महात्मा गांधी स्वयं कल्याण पत्रिका के लेखकों में रहे हैं। प्रेस के संस्थापकों से उनकी मित्रता जगजाहिर है।अन्य धर्मों की तरह सनातन धर्म की कोई एक किताब नहीं है लेकिन इन सभी किताबों का सार परोपकार और परहित ही है। जो छद्म सेकुलर गीता प्रेस का विरोध कर रहे हैं, वे कुरान और बाइबिल की आपत्तिजनक बातों पर कभी मुंह नहीं खोलते।गीता प्रेस की स्थापना के सौ वर्ष बाद उन्हें यह समझ में आ रहा है कि प्रेस समाज हित में काम नहीं कर रहा है।गत दिनों दो चौपाइयां निकालकर तुलसी कृत रामचरितमानस को प्रतिबंधित करने की मांग की जा रही थी, उसी तरह गीता प्रेस के सौ वर्ष के योगदान को अनदेखा करके गांधी शांति पुरस्कार दिए जाने की आलोचना की जा रही है। शरीर में ज्वर और पेट में अजीर्ण हो तो कितना भी स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ हो,हम उसका आनंद नहीं ले सकते। वैसे ही पार्टी की विचारधारा के खूंटे से बँधे लोग सरकार की आलोचना का कोई भी अवसर हाथ से जाने देना नहीं चाहते।समाज हित में गीता प्रेस का जो अवदान है,दुनिया का कोई भी पुरस्कार उसके लिए छोटा है।

बागेश्वर धाम का सच



रासबिहारी पाण्डेय


गत दिनों न्यूज चैनलों पर धार्मिक अंधविश्वास बनाम वैज्ञानिक सोच पर खूब बहस हुई।इसके केंद्र में थे बागेश्वर धाम के आचार्य धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री, जिनकी उम्र मात्र अभी मात्र २७ साल है।अभी उन्हें लंबा सफर सफर तय करना है,लेकिन इसी उम्र में उनको जो उपलब्धियां हासिल हुई हैं, उस पर रश्क किया जा सकता है। पौराणिक आख्यानों के अनुसार ध्रुव और प्रह्लाद को बहुत बचपन में ही सिद्धियां प्राप्त हो गई थीं।कहा गया है- तेजसां वयःन समीक्ष्यते।


धीरेंद्रकृष्ण चित्रकूट पीठाधीश्वर श्रीरामभद्राचार्य जी के शिष्य हैं जिन्हें रामायण,रामचरितमानस, श्रीमद्भगवद्गीता,श्रीमद्भागवत जैसे कितने ही ग्रंथ कंठस्थ हैं। कौन सा श्लोक किस अध्याय में कितने नंबर पर है,प्रज्ञा चक्षु होने के बावजूद उन्हें याद है।क्या यह किसी चमत्कार से कम है? श्रीरामजन्मभूमि के मुकदमे में जीत दिलाने में वेद शास्त्रों से उद्धरण निकाल कर उक्त स्थान की प्रामाणिकता सिद्ध करने में उनका अहम योगदान है।श्रीरामभद्राचार्य जी सहित हिंदू धर्म के कई आचार्यों ने धीरेंद्र की उपलब्धियों को उनकी साधना का चमत्कार बतलाया है।हनुमान जी के आराधक होने के नाते उन्हें प्रकाम्य सिद्धि प्राप्त है,जिसके अनुसार साधक प्रार्थी के मन की बात जान जाता है।


गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं-

कलि बिलोकि जग हित हर गिरिजा।

साबर मंत्र जाल जिन्ह सिरजा।।

अनमिल आखर अरथ न जापू।

प्रगट प्रभाव महेश प्रतापू।।

 देवाधिदेव महादेव और पार्वती ने कलिकाल के प्रकोप को देखते हुए ऐसे साबर मंत्रों की रचना की जिनके मंत्रों के अक्षर बेमेल हैं और जिनका कोई ठीक अर्थ नहीं लेकिन शिव जी के प्रताप से उनका प्रभाव प्रत्यक्ष है।लोक में कितने ही ओझा गुनी शारीरिक पीड़ाओं के निवारण और सांप बिच्छू के काटने पर इन मंत्रों से उपचार करते देखे जा सकते हैं।

हिंदू धर्म में आस्था रखने वाले व्यक्तियों को सनातन ग्रंथों के अतिरिक्त इस सदी में प्रकाशित दो पुस्तकों को अवश्य पढ़ना चाहिए।पहला 'हिमालय के साधु संत'और दूसरा 'योगी कथामृत', इन दोनों पुस्तकों में पिछले सौ दो सौ वर्षों के भीतर हुए अनेक सिद्ध संतों के चमत्कारिक कारनामों का विस्तार से वर्णन है। उत्तर भारत के लोग देवरहवा बाबा के नाम से खूब परिचित हैं। राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद बहुत बचपन में अपनी दादी के साथ उनके दर्शन करने गए थे तभी उन्होंने बता दिया था कि यह बालक एक दिन देश के एक महत्वपूर्ण पद पर बैठेगा। राष्ट्रपति बनने के बाद डाक्टर राजेंद्र प्रसाद उनके दर्शन के निमित्त पुनः गए थे।देवरहवा बाबा को पिछली चार पीढ़ियों से लोग देखते आ रहे थे और उनकी उम्र के बारे में किसी को ठीक-ठीक अंदाजा नहीं था।सभी कहते थे कि हमारे दादा भी मिले थे, हमारे परदादा भी मिले थे। अगर दो तीन सौ वर्षों से कोई व्यक्ति उसी रूप में मौजूद है तो यह भी किसी चमत्कार से कम नहीं है। पानी पर चलने,हवा से कोई फल प्रकट कर किसी को प्रसाद दे देना,उसके मन की बात बता देना, आने वालों को बिना पूर्व परिचय के नाम से पुकारना आदि उनके चमत्कार को लोगों ने बरसों बरस देखा।

रामकृष्ण परमहंस को काली माता की सिद्धि प्राप्त थी।अपने शिष्य स्वामी विवेकानंद को उन्होंने देवी का साक्षात्कार भी कराया था। स्वामी विवेकानंद ने एक पत्र में स्वयं यह स्वीकार किया है कि तमिलनाडु में उन्हें एक ऐसे व्यक्ति का साक्षात्कार हुआ था जिसने उनके भूत,भविष्य और वर्तमान के बारे में बहुत सारी बातें बता कर उन्हें चमत्कृत कर दिया था।

संसार में उनका ही जीना सार्थक है जो परोपकार में रत हैं।अगर कोई संत समाज को सात्विकता के साथ सत्कर्म के रास्ते पर चलते हुए ईश्वर आराधना के लिए प्रेरित कर रहा है और हर परीक्षा से गुजरने के लिए भी तैयार है तो टीआरपी की लालच में उसका मीडिया ट्रायल करना निंदनीय है।

परहित सरिस धर्म नहिं भाई।

पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।

दाद लोगों की, गला अपना, ग़ज़ल उस्ताद की



रासबिहारी पाण्डेय


साहित्यिक गोष्ठियों/ कवि सम्मेलनों में नि:संकोच या कहिए धड़ल्ले से दूसरे की रचनाएं पढ़ने वालों की तादाद पहले की अपेक्षा अब कहीं अधिक हो गई है। रचनाओं के लिए पहले ऐसे जीव काव्य संग्रहों के भरोसे रहते थे मगर फेसबुक, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम आदि आ जाने के बाद उनके लिए८ ज्यादे आसानी हो गई है। सोशल मीडिया से चुराई हुई रचनाएं ये लोग अपने नाम से समारोहों में न सिर्फ प्रस्तुत करने लगे हैं बल्कि हूबहू या थोड़ा हेर फेर करके कविता संग्रहों में छपाने भी लगे हैं। दिल्ली,कोलकाता या सुदूर किसी ग्रामीण अंचल में बैठे किसी कवि को क्या पता कि किसी दूसरे शहर में उसकी लिखी कविता कौन सुना रहा है या अपने नाम से काव्य संग्रह में छपा रहा है?

फेसबुक से चुरा कर फेसबुक पर ही पोस्ट करने वालों की भी अच्छी खासी संख्या है। कुछ समय पहले गजब हुआ... एक लेखिका ने एक लेखक की कहानी हूबहू उठाकर हंस पत्रिका में छपा ली। भारी लानत मलामत के बावजूद उसने अपनी गलती भी नहीं स्वीकार की। राहत इंदौरी ने कभी एक शेर कहा था-

'मेरे कारोबार में सबने बड़ी इमदाद की 

दाद लोगों की, गला अपना, गजल उस्ताद की।'

ऐसे भी दु:साहसी भरे पड़े हैं कि मूल रचनाकार के सामने ही उसकी रचना सुना देंते हैं।इस हादसे से बड़े-बड़े रचनाकार रूबरू हो चुके हैं।फिराक  गोरखपुरी के सामने ही एक युवा शायर ने जब उनका कलाम सुनाया तो फिराक ने टोका- बरखुरदार!तुमने अपने नाम से मेरा कलाम कैसे सुना दिया? शायर ने कहा-  कभी-कभी खयालात टकरा जाते हैं फिराक साहब। फिराक ने कहा-' साइकिल से साइकिल तो टकरा सकती है लेकिन साइकिल से हवाई जहाज नहीं टकरा सकता।' इतना मारक जुमला सुनकर शायर पानी पानी हो गया।

 उर्दू में दो तरह की चोरी मानी गई है। पहले को सरका और दूसरे को तवारुद कहते हैं। जब किसी की रचना हूबहू चुरा ली जाए तो उसे सरका और थोड़ा घालमेल के साथ प्रस्तुत की जाय तो उसे तवारुद कहते हैं।ऐसे कवियों को लोग चरबा करने वाला शायर भी कहते हैं।मंच से अतिरिक्त ध्यान और सम्मान पाने के लिए कुछ कवि/ शायर पीएचडी न होने के बावजूद स्वघोषित डॉक्टर बन जाते हैं।ये अपने कुछ चेले भी पाल कर रखते हैं जो मंच के नीचे से उन्हें वाह डॉ. साहब,वाह डॉ.साहब की आवाज लगा कर दाद दिया करते हैं। किसी वरिष्ठ कवि ने डॉक्टरेट के बारे में पूछने की गुस्ताखी कर दी तो उससे उलझ जाएंगे या फिर कोई झूठ गढ़कर सुना देंगे- फलां यूनिवर्सिटी ने मुझे मानद डिग्री प्रदान की है।

हिंदी उर्दू कवि सम्मेलन /मुशायरों के मंच पर अनेक कवयित्रियां ऐसी हैं जिनके पास अपना कलाम नहीं है। लिखने का काम उनके उस्ताद या प्रेमी करते हैं,सज संवर कर नाजो अदा से सुनाने का काम उनका होता है।कवियों  और संचालकों के साथ उनका उत्तर प्रति उत्तर ऐसा होता है कि बड़े-बड़े कव्वाल शर्मा जाएँ। वाणी की वेश्यावृत्ति इसे ही कहते हैं। इनमें से कई इतनी शातिर हैं कि हिंदी उर्दू की मजलिसें चला रही हैं और उसके नाम पर अच्छा खासा चंदा भी वसूल रही हैं। इनकी असलियत जानने के बावजूद नई पुरानी उम्र के अधिकांश कवि शायर नजदीकियां बनाये रहने को न सिर्फ आतुर रहते हैं बल्कि उनके प्रोमोशन और उत्साहवर्द्धन में भी लगे रहते हैं। कभी विकल साकेती ने कहा था- 

भौरों से गीत लेकर कलियां सुना रही हैं

रसपान करने वाले रसपान कर रहे हैं।

समाज के कर्णधारों की यह जिम्मेदारी बनती है कि बरसात में खर पतवार की तरह उग आये इन नकली कवि शायरों को इनकी औकात बताएं और समाज को साहित्यिक प्रदूषण से बचाएँ।

शुक्रवार, 22 अगस्त 2025

कुमार विश्वास की धृष्टता


रासबिहारी पाण्डेय


दुनिया भर के वक्ता रामकथा के लिए वाल्मीकि और तुलसीदास रचित रामायण को आधार बनाते हैं ,मगर कुमार विश्वास ने एक उर्दू शायर की नज्म को आधार बनाकर यूट्यूब पर'किसके गुलाम हैं राम'शीर्षक से एक वीडियो डाला है जिसके अनुसार भगवान राम अपनी एक जाँघ पर सीता को और दूसरी जाँघ पर शबरी को लिटाकर बेर खिला रहे हैं,तभी लक्ष्मण पानी लेकर पहुँचते हैं और यह देखकर उनकी त्यौरी चढ़ जाती है। शबरी से राम का मिलन सीता हरण के बाद होता है।किसी भी रामायण में शबरी और सीता को जाँघ पर सुलाने का प्रसंग नहीं है।उर्दू शायर रामकथा के आचार्य कबसे हो गए ?क्या किसी हिंदी कवि में यह साहस है कि वह कुरआन में फेरबदल करके अपनी कविता का विषय बनाए؟ 'सर तन से जुदा'का फतवा जारी होने में एक दिन की भी देर नहीं लगेगी।कुमार विश्वास ने यह बहुत बड़ा दु:साहस किया है,उन्हें हिंदू समाज से माफी माँगते हुए तत्काल यह वीडियो हटा लेना चाहिए। 

इनके द्बारा एक और गलत उद्धरण दिया जा रहा है।बहेलिए द्वारा नर क्रौंच को निशाना बनाये जाने के बाद मादा क्रौंच के विलाप से द्रवित होकर वाल्मीकि ने पहला श्लोक रचा लेकिन स्वघोषित युग कवि उल्टी कथा सुना रहे हैं कि नर पक्षी रोने लगा तब वाल्मीकि के मुख से यह श्लोक फूटा,यही नहीं नर पक्षी के रुदन को विशेष महिमा मंडित भी कर रहे हैं। भगवान इन्हें सद्बुद्धि दे और श्रोताओं को विवेक ताकि इनके अनाप शनाप कथन को ग्रहण न करें।

इनकी कथा रामकथा कम,किसी मोटिवेसनल स्पीकर की स्पीच अधिक लगती है। 

वे जब तब भगवान राम के लिए इमामे हिंद शब्द का भी उपयोग करते हैं. इमाम का अर्थ मुस्लिम पुरोहित होता है. भगवान राम तो अनंतकोटि ब्रह्मांड नायक परम ब्रह्म हैं जिनसे करोड़ों हिंदुओं की आस्था जुड़ी है,उन्हें इमाम बता कर वे न सिर्फ अपनी अज्ञानता का परिचय दे रहे हैं बल्कि करोड़ों हिंदुओं की आस्था का भी निरादर कर रहे हैं।

आज ही कथा का स्वरूप बिगड़ा है,ऐसा नहीं है,आदिकाल से राक्षस/राक्षसियाँ अपने स्वार्थ बस साधु/साध्वी का वेष बनाते रहे हैं. रामचरितमानस में रावण और कालनेमि द्वारा भी कथा का जिक्र आता है.लेकिन यह भी कहा है कि- 

उघरहिं अंत न होय निबाहू/

कालनेमि जिमि रावन राहू//

एक न एक दिन इनका भाँडा फूट ही जाता है.बावजूद इसके कलिकाल में इनके समर्थकों को कोई फर्क नहीं पड़ता.आसाराम बापू अगर जेल से आज रिहा हो जायँ तो कल से पुन:इनके समर्थक जय जयकार करने में जुट जाएँगें.जिन लोगों ने किसी भी क्षेत्र में अपना नाम दाम बना लिया है,उनके समर्थक अपने लाभ के मद्देनजर आँख मूँदकर उनके लिए कुछ भी करने को तैयार हैं.

बहुतेरे कथावाचकों को सुनते हुए लगता है कि वे सिर्फ गप शप या जगत चर्चा में लगे हैं,कथा के बाद जब आरती होने लगती है तब राम कृष्ण का नाम सुनाई पड़ता है.

मानव मन की ऐसी कौन सी उलझन है जिसको सूर,तुलसी,मीरा,कबीर या भक्तिकाल के अन्य कवियों ने स्वर नहीं दिया है,बावजूद इसके कथाओं में फिल्मी गीत /ग़ज़लों का सहारा लिया जा रहा है.

कथावाचकों के सहारे  उनके अनुयायियों /संयोजकों को कमाई का भरपूर मौका मिलता है,इसलिए वे उनकी किसी भी बात का आँख मूँद कर समर्थन करते हैं .

जैसे वोट बैंक के लिए नेता " अल्पसंख्यक हितों " शब्द का सहारा लेते हैं,वैसे ही इनके समर्थक भी सर्वधर्म समभाव की बात करते हैं। व्यासपीठ से इस्लाम की वकालत करने वालों को सही कैसे ठहराया जा सकता है؟ सबसे अधिक सहिष्णु या नास्तिक हिंदुओं में ही हैं,मुस्लिम ,ईसाई,बौद्ध और सिक्खों में यह कंफ्यूजन नहीं है।


सुदर्शन न्यूज चैनल ने धर्म शुद्धि अभियान के तहत दावा किया था कि  उसके पास  प्रवचनकर्ताओं के इस्लाम प्रेम वाले ३२३ वीडियो हैं जिसमें ३४ वीडियो सिर्फ मोरारी बापू के हैं।चैनल ने यह भी वादा किया था कि धर्म संसद आयोजित करेगाऔर सबसे माफी मँगवाएगा,हिंदुओं को कथा जेहाद करने वालों के खिलाफ जागृत करेगा,लेकिन संसाधनों की कमी का बहाना बनाते हुए उसने जल्द ही यह अभियान बंद कर दिया। खोजी पत्रकारों के लिए यह भी एक बड़ा मुद्दा है.

कोरोना काल के दौरान मोरारी बापू और अन्य कई कथाकारों ने व्यास पीठ से अपने इस्लाम प्रेम वाले वक्तव्यों के लिए माफी माँगी।

तभी चित्रकूट पीठाधीश्वर स्वामी रामभद्राचार्य ने कथावाचकों को संदेश दिया कि प्रवचन के दौरान भारतीय वाड़मय से ही उद्धरण देना चाहिए न कि फिल्मी गाने और उर्दू शायरी का सत्र शुरू करना चाहिए. गोस्वामी तुलसीदास ने मानस में कहा है -

जेहि महँ आदि मध्य अवसाना/

प्रभु प्रतिपाद्य राम भगवाना//

इस मुद्दे पर जो बिल्कुल चुप हैं,उनके लिए दिनकर की यह पंक्ति सादर समर्पित है-

जो तटस्थ हैं,समय लिखेगा ,उनका भी अपराध|

गुरुवार, 21 अगस्त 2025

हिंदी कविता का वर्त्तमान परिदृश्य

 


रासबिहारी पाण्डेय

पिछले पचास साठ वर्षों से छंदमुक्त कविता फैशन में है। पत्र-पत्रिकाओं और अकादमी पुरस्कारों में इसी को वरीयता दी जा रही है।केंद्रीय साहित्य अकादमी,दिल्ली ने  माखनलाल चतुर्वेदी रचित 'हिम तरंगिणी' के अलावा किसी  छंदबद्ध काव्य संकलन को पुरस्कार के योग्य नहीं समझा। सुमित्रानंदन पंत,हरिवंश राय बच्चन, रामदरश मिश्र, भवानी प्रसाद मिश्र जैसे छंद में लिखने वाले समर्थ रचनाकारों के भी उस संकलन को पुरस्कृत नहीं किया गया जो छंदबद्ध था,सायास उस काव्य संकलन को चुना गया जो छंद में नहीं है।प्रश्न यह है कि क्या पिछले 67 वर्षों में  हिंदी जगत में ऐसा कोई काव्य संकलन आया ही नहीं जो साहित्य अकादमी पुरस्कार के योग्य हो या निर्णायकों ने जानबूझकर एक रणनीति के तहत छंद वाली कविता की उपेक्षा की?दूसरी बात सच के ज्यादा करीब है।निश्चित रूप से छंद में ऐसी कई कृतियांआई हैं लेकिन अकादमी के निर्णायकों ने अपने पूर्वाग्रहों के कारण उन कृतियों को अनदेखा किया?श्याम नारायण पांडेय,भारतभूषण, सोम ठाकुर,सूर्यभानु गुप्त,सत्यनारायण, माहेश्वर तिवारी, बुद्धिनाथ मिश्र,उमाकांत मालवीय,श्रीकृष्ण तिवारी,कैलाश गौतम समेत अन्य कई महत्त्वपूर्ण कवि हैं जिनके काव्य संकलन साहित्य अकादमी पुरस्कार के योग्य हैं।इन संकलनों की रचनाएं जनमानस में लोकप्रिय भी हैं। त्रिलोचन की एक कविता है_
दौड़ दौड़ कर असमय-समय न आगे आए 
वह कविता क्या जो कोने में बैठ लजाए!
अकादमी से पुरस्कृत कृतियों के संस्करण कुछ हजार लोगों के बीच सिमट कर रह जाते हैं।सबसे बड़े राजकीय पुरस्कार से पुरस्कृत कृति को आम पाठक छूता भी नहीं क्योंकि यह उसके समझ से बाहर की चीज होती है मगर पाठ्यक्रमों में लगाकर इन्हें छात्रों को पढ़ने के लिए विवश किया जाता है।छात्र परिश्रम से इन कविताओं पर लंबी व्याख्यायें लिखते हैं और परीक्षा पास होने के बाद फिर जीवन भर पलट कर नहीं देखते।
साहित्य अकादमी पुरस्कार देते समय कई बार वरिष्ठता और कनिष्ठता  का क्रम भी भूल जाती है। नामवर सिंह को अपने गुरु हजारी प्रसाद द्विवेदी से दो वर्ष पूर्व ही साहित्यअकादमी पुरस्कार मिल गया था। साहित्य की लगभग सभी विधाओं में विपुल साहित्य रचने वाले रामदरश मिश्र से बहुत पहले मंगलेश डबराल, राजेश जोशी और वीरेन डंगवाल को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल चुका था।यही नहीं हिंदी के कई महत्वपूर्ण रचनाकारों को साहित्य अकादमी पुरस्कार के योग्य नहीं समझा गया लेकिन उनका साहित्यिक सम्मान इससे रंच मात्र भी कम नहीं हुआ।कोई भी पुरस्कार किसी रचना को बड़ा या छोटा नहीं बना सकता। 

अब कुछ बातें वाचिक परंपरा के हवाले से हिंदी कवि सम्मेलनों की कर लें।हिंदी कवियों के भुगतान के नाम पर  आजकल करोड़ों रुपए का लेनदेन हो रहा है।अधिकांश पैसा ब्लैक में लिया दिया जाता है।कमीशनखोरी चरम पर है। कवि सम्मेलनों में सक्रिय बहुत कम कवि ऐसे हैं जो साहित्यिक मानकों पर खरे उतरते हैं। यहाँ अधिकांश सतही रचनाकार होते हैं। आजकल समाज का बुद्धिजीवी कहा जाने वाला तबका भी इन्हें प्रश्रय देने लगा है।
जानी बैरागी और मुन्ना बैटरी जैसे नमूने सिर्फ मेले ठेले में नहीं जा रहे हैं,इन्हें मोरारी बापू जैसे संत भी भरपूर पैसा देकर नीचे बैठ कर सुन रहे हैं। अब इन्हें कौन समझाए?देखादेखी अनेक यज्ञ मंडपों में भी तथाकथित हास्य कवि सम्मेलन होने लगे हैं।
अखबारों के वार्षिक आयोजन कभी समकालीन साहित्य की नुमाइंदगी करते थे,वरिष्ठ साहित्यकार / पत्रकार यहां मुख्य अतिथि हुआ करते थे,लेकिन अब यहां एहसान कुरेशी जैसे कॉमेडियन ससम्मान बुलाये जा रहे हैं।
 उत्तर प्रदेश और बिहार में कई समाचार पत्र कवि सम्मेलनों की सीरीज चलाते हैं जिसमें सात आठ कवियों से  एक साथ आठ दस कवि सम्मेलनों के लिए लाखों का कांट्रेक्ट किया जाता है,यहां भी लतीफेबाजों को प्रवेश मिल जाता है। स्तरीय हास्य व्यंग्य लिखने वालों को नॉन कमर्शियल कहके छांट दिया जाता है। जो संत और समाचारपत्र सामाजिक बुराइयों को दूर करने की वकालत करते हैं , वे अपने गिरेबान में खुद भी तो झांककर देखें!
कवि सम्मेलनों में प्रदूषण के जिम्मेदार सिर्फ लतीफेबाज और भड़ैत ही नहीं है बल्कि इससे अधिक जिम्मेदार वे संयोजक और अधिकारी / व्यापारी हैं जिन्हें चुटकुले सुनने में ज्यादा मजा आता है।वे कवियों से दांत निपोरते हैं कि भैया हास्य कवि सम्मेलन कराइये ...ज्यादा से ज्यादा हास्य कवियों को बुलाइए। ऐसी कवयित्री को बुलाइए जो डबल मीनिंग बातें करने के साथ साथ गुप्त मनोरंजन भी कर सके। आजकल दलाल हर जगह सक्रिय हैं ,उनकी मांगें आसानी से पूरी कर देते हैं।वे बेशर्मी से कहते भी हैं कि हम नहीं करेंगे तो कोई और कर देगा तो फिर हम यह मौका क्यों गँवाएं?
कुछ संयोजकों से मैंने पूछा कि अगर आपको स्टैंडअप कॉमेडियन जैसा ही मनोरंजन चाहिए तो फिर सीधे-सीधे उन्हें ही क्यों नहीं बुलाते ?उनका जवाब होता है कि भाई साहब वे बहुत महंगे पड़ते हैं, हमारा इतना बजट नहीं होता। संयोजकों की बढ़ती डिमांड के कारण बरसात में खरपतवार की तरह गली गली हास्य कवि पैदा हो गए क्योंकि उन्हें बस चुटकुलों की सीरीज बनानी थी। लड़कियों ने रचनाधर्मिता को  समय देने की बजाय देह बेचना शुरू कर दिया,क्योंकि उन्हें रातोंरात अमीर बनना था;नाम और दाम कमाना था। वे मंच पर नौटंकी वाली हरकतें करने लगीं। कवि जोकरों सी हरकतें करने लगे।वाणी की वेश्यावृत्ति  का नया ट्रेंड शुरू हो गया।
ये फूले फूले फिरने लगे कि हम तो बहुत बड़े सेलीब्रिटी हो गए हैं। 
 कवि सम्मेलनों में धड़ल्ले से दूसरे की रचनाएं पढ़ने वालों की तादाद पहले की अपेक्षा अधिक हो गई है। रचनाओं के लिए पहले ऐसे जीव काव्य संग्रहों के भरोसे रहते थे मगर फेसबुक, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम आदि आ जाने के बाद उनके लिए  ज्यादे आसानी हो गई है। सोशल मीडिया से चुराई हुई रचनाएं ये लोग अपने नाम से समारोहों में न सिर्फ प्रस्तुत करने लगे हैं बल्कि हूबहू या थोड़ा हेर फेर करके कविता संग्रहों में छपाने भी लगे हैं। दिल्ली,कोलकाता या सुदूर किसी ग्रामीण अंचल में बैठे किसी कवि को क्या पता कि किसी दूसरे शहर में उसकी लिखी कविता कौन सुना रहा है या अपने नाम से काव्य संग्रह में छपा रहा है?
फेसबुक से चुरा कर फेसबुक पर ही पोस्ट करने वालों की भी अच्छी खासी संख्या है। पिछले दिनों एक लेखिका ने फेसबुक से एक लेखक की पोस्ट हूबहू उठाकर हंस पत्रिका में कहानी के रूप में छपा ली। भारी लानत मलामत के बावजूद उसने अपनी गलती नहीं स्वीकार की। राहत इंदौरी ने कभी एक शेर कहा था-
'मेरे कारोबार में सबने बड़ी इमदाद की 
दाद लोगों की, गला अपना, गजल उस्ताद की।'
ऐसे भी दु:साहसी भरे पड़े हैं कि मूल रचनाकार के सामने ही उसकी रचना सुना देंते हैं।इस हादसे से बड़े-बड़े रचनाकार रूबरू हो चुके हैं।फिराक  गोरखपुरी के सामने ही एक युवा शायर ने जब उनका कलाम सुनाया तो फिराक ने टोका- बरखुरदार!तुमने अपने नाम से मेरा कलाम कैसे सुना दिया? शायर ने कहा-  कभी-कभी खयालात टकरा जाते हैं फिराक साहब।
 फिराक ने कहा-' साइकिल से साइकिल तो टकरा सकती है लेकिन साइकिल से हवाई जहाज नहीं टकरा सकता।' इतना मारक जुमला सुनकर शायर पानी पानी हो गया।
 उर्दू में दो तरह की चोरी मानी गई है। पहले को सरका और दूसरे को तवारुद कहते हैं। जब किसी की रचना हूबहू चुरा ली जाए तो उसे सरका और थोड़ा घालमेल के साथ प्रस्तुत की जाय तो उसे तवारुद कहते हैं।ऐसे कवियों को लोग चरबा करने वाला शायर भी कहते हैं।मंच से अतिरिक्त ध्यान और सम्मान पाने के लिए कुछ कवि/ शायर पीएचडी न होने के बावजूद स्वघोषित डॉक्टर बन जाते हैं।ये अपने कुछ चेले भी पाल कर रखते हैं जो मंच के नीचे से उन्हें वाह डॉ. साहब,वाह डॉ.साहब की आवाज लगा कर दाद दिया करते हैं। किसी वरिष्ठ कवि ने डॉक्टरेट के बारे में पूछने की गुस्ताखी कर दी तो उससे उलझ जाएंगे या फिर कोई झूठ गढ़कर सुना देंगे- फलां यूनिवर्सिटी ने मुझे मानद डिग्री प्रदान की है।
हिंदी उर्दू कवि सम्मेलन /मुशायरों के मंच पर अनेक कवयित्रियां ऐसी हैं जिनके पास अपना कलाम नहीं है। लिखने का काम उनके उस्ताद या प्रेमी करते हैं,सज संवर कर नाजो अदा से सुनाने का काम उनका होता है।कवियों  और संचालकों के साथ उनका उत्तर प्रति उत्तर ऐसा होता है कि बड़े-बड़े कव्वाल शर्मा जाएँ। वाणी की वेश्यावृत्ति इसे ही कहते हैं। इनमें से कई इतनी शातिर हैं कि हिंदी उर्दू की मजलिसें चला रही हैं और उसके नाम पर अच्छा खासा चंदा भी वसूल रही हैं। इनकी असलियत जानने के बावजूद नई पुरानी उम्र के अधिकांश कवि शायर नजदीकियां बनाये रहने को न सिर्फ आतुर रहते हैं बल्कि उनके प्रोमोशन और उत्साहवर्द्धन में भी लगे रहते हैं। कभी विकल साकेती ने कहा था- 
भौरों से गीत लेकर कलियां सुना रही हैं
रसपान करने वाले रसपान कर रहे हैं।
समाज के कर्णधारों की यह जिम्मेदारी बनती है कि बरसात में खर पतवार की तरह उग आये इन नकली कवि शायरों को इनकी औकात बताएं और समाज को साहित्यिक प्रदूषण से बचाएँ।
 कुछ लोगों का कहना है कि  ये भड़ैत और लतीफेबाज  मंचों पर इसलिए काबिज हैं क्योंकि  जनता का भरपूर मनोरंजन करते हैं। साहित्यिक कवि जनता का मनोरंजन करने में सफल नहीं होते, इसलिए उन्हें नहीं बुलाया जाता। मैं उनसे निवेदन करना चाहता हूं कि वे अपनी धारणा बदलें। कविता का उद्देश्य सिर्फ मनोरंजन नहीं होता, मनोरंजन के साथ-साथ वह हमें बेहतर मनुष्य बनने के लिए भी प्रेरित करती है। देश और समाज में फैली कुरीतियों से भी लड़ने का जज्बा देती है।साहित्यिक कवियों को मंचों पर नहीं बुलाया जाता है या वे सफल नहीं होते हैं,ऐसा बिलकुल नहीं है,लेकिन उस मात्रा में उन्हें नहीं बुलाया जाता इसलिए वे लोगों की नजर में नहीं हैं।चूंकि उन्होंने कविता को व्यापार नहीं बना रखा है और  दिन रात अपनी मार्केटिंग में नहीं लगे रहते, संयोजकों और कारपोरेट की दलाली  नहीं करते,लोग जब खुद संपर्क करते हैं तभी जाते हैं,इसलिए  वे उस तरह विज्ञापित नहीं हैं जिस तरह  नदी में उतराते हुए मुर्दे की तरह ये काव्यद्रोही दिखते हैं। सरकारी,गैर सरकारी उपक्रमों में जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों को इन कवियों को चिन्हित कर उन्हें बुलाना चाहिए और काव्य मंचों को प्रदूषण से दूर करना चाहिए। उदाहरण के तौर पर मैं कुछ नाम दे रहा हूं जिन्हें मैंने शुद्ध साहित्यक या भीड़ भरे कवि सम्मेलनों में भी कभी असफल होते नहीं देखा।जनता उन्हें भरपूर सराहती है।ये वे नाम हैं जो मुझे तत्काल याद आ रहे हैं, इससे इतर भी अनेक नाम ऐसे हैं जो कविता की कसौटी पर खरे उतरते हैं और काव्य मंचों पर भी भरपूर सफल होते हैं लेकिन गुटबाजी की वजह से उन्हें दरकिनार कर दिया जाता है। हर जिले और राज्य से ऐसे कवियों को आगे लाने की जरूरत है। इस सूची में आप अपनी तरफ से भी कुछ नाम जोड़ें  और काव्य मंच शुचिता के इस यज्ञ में अपनी आहुति डालें- 
नरेश सक्सेना , बुद्धिनाथ मिश्र,शिवओम अंबर,उदय प्रताप सिंह,गोविंद व्यास,दीक्षित दनकौरी,डॉ.सुरेश,नरेश कात्यायन,लक्ष्मी शंकर बाजपेयी,जमुना प्रसाद उपाध्याय,मंगल नसीम,रमेश शर्मा,गणेश गंभीर आदि और 
कवयित्रियों में दीप्ति मिश्र, प्रज्ञा विकास,रचना तिवारी, भावना तिवारी,रुचि चतुर्वेदी,भूमिका जैन,दीपशिखा सागर,सोनी सुगंधा,शिवा त्रिपाठी आदि की सहभागिता किसी भी कवि सम्मेलन की सफलता की गारंटी मानी जा सकती है।
एक सज्जन है जो आजकल खुद को युग कवि कहने लगे हैं । कवि सम्मेलनों को बिगाड़ने में इनका भी बहुत बड़ा हाथ है। इनको कौन समझाए कि एक युग में कई शताब्दियां शामिल होती हैं।अपनी खुशी के लिए हम मान भी लें तो 
हमारे युग कवि पंत,प्रसाद, निराला, दिनकर और बच्चन जैसे कवि हैं। हर पंक्ति के बाद चुटकुले सुनाने वाले व्यक्ति को तो कवि का भी दर्जा नहीं दिया जा सकता, उसे तो शुद्ध स्टैंड अप कॉमेडियन कहा जाता है।ये महोदय
बाबा की खाल ओढ़ कर देश के तमाम कवियों की कविताएं नाम लिए या न लिए बिना सुना कर दोनों हाथों से पैसा बटोर रहे हैं।
ऐसी कौन सी भावना है जिसे सूर,तुलसी, कबीर,मीरा,रैदास आदि ने  अपनी रचनाओं में व्यक्त नहीं किया है। धर्मग्रंथों और भक्त कवियों की रचनाओं के अध्ययन के लिए पर्याप्त समय चाहिए मगर कथा के व्यापारी के पास इतना
समय कहां ? दुख तो इस बात का है कि हिंदी के तमाम स्थापित कवि ऐसी हरकत का विरोध करने की बजाय मौन साधे हुए हैं। 
कवि सम्मेलनों में फूहड़ फिल्मी गीतों की तर्ज पर पैरोडी सुनते हुए ऐसा लगता है जैसे कानों में शीशा पिघलाया जा रहा हो किंतु संचालक न सिर्फ खुद  वाह वाह कर रहा होता है बल्कि पब्लिक को भी तालियां बजाने के लिए उकसाने में लगा रहता है। पब्लिक को यहां तक कहा जाता है कि अभी ताली नहीं बजायी तो अगले जन्म में घर-घर जाकर बजाना पड़ेगा, यानी अगले जन्म में हिजड़ा बनोगे ....तो भी लोग ही ही ही ही करते रहते हैं। इससे श्रोताओं के स्तर का भी पता चल जाता है।इधर एक वीडियो किसी ने भेजा- कोई कवयित्री ' झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में 'की तर्ज पर एक पैरोडी सुना रही थी...तथाकथित युग कवि जिन्हें अधिकांश लोग आजकल चुग कवि कहने लगे हैं, उछल उछल कर ताल देते हुए कह रहे थे....फिर क्या हुआ? वीभत्सता चरम पर थी।
ग़लिब का शेर याद आता है....
काबे किस मुँह से जाओगे ग़ालिब 
शर्म तुमको मगर नहीं आती !
 आपने गौर किया होगा कि आज के कवि सम्मेलनों में  देश की नामचीन हस्तियां और ब्यूरोक्रेट आने से परहेज करते हैं,जबकि ये संगीत समारोहों और कला महोत्सवो में खूब जाते हैं। अपने जमाने में  प्रधानमंत्री रहते हुए जवाहर लाल नेहरू,इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने भी बैठकर कवि सम्मेलन सुने हैं। धीरे-धीरे ऐसा दौर आया कि केंद्रीय मंत्रियों को छोड़िए विधायक और नगरसेवक भी कवि सम्मेलनों में जाने से कतराने लगे। इसका कारण पता है आपको ...कवि सम्मेलनों में कविता के नाम पर पैरोडियां और लतीफे सुनाये जाने लगे। यही नहीं कोई दो कौड़ी का रचनाकार भी बड़ी से बड़ी शख्सियत की टोपी उछालने लगा और उसके नाम से झूठे लतीफे गढ़ने लगा। विवादों से बचने के लिए ये हस्तियां इनसे किनारा करने लगीं।कुछ ऐसी घटनाएं हुईं कि उनके चमचों ने कवि की खूब लानत मलामत भी की। कवियों, आयोजकों और पूरे समाज की यह जिम्मेवारी बनती है कि कवि के वेश में ऐसे बदतमीज और घटिया रचनाकारों को आने से रोकें और  सरस्वती के इस पावन मंदिर को दूषित होने से बचाएं।

हिंदी ग़ज़लों में सामाजिक चेतना


-रासबिहारी पाण्डेय

ग़ज़ल का उद्गम पर्शियन भाषा से माना जाता है. पर्शियन भाषा में ग़ज़ल का अर्थ है सुखन अज़ जनाना गुफ़्तन अर्थात् औरतों से अथवा औरतों के बारें में बातचीत करने का माध्यम. नाम के अनुरूप ग़ज़ल का विषय एक लंबे कालखंड तक इश्क-मोहब्बत तक ही सीमित रहा.लेकिन समय के साथ साथ ग़ज़ल के तेवर भी बदले और शायरों ने ग़ज़ल के शिल्प में सामाजिक सरोकारों से जुड़ी बातें रखना शुरू किया.आज की हिंदी ग़ज़ल में सामाजिक विषमता,राजनीतिक खोखलापन,किसानों मजदूरों का संघर्ष,आम आदमी की बेचारगी,ब्यवस्था की विसंगतियां आदि जीवन जगत के तमाम पक्ष व्यक्त हो रहे हैं.गज़ल अपने शब्दार्थ से निकल कर पूरी कायनात की हो चुकी है. इस तेवर की शुरूआत महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के इस शेर से मानी जा सकती है-

किनारा वो हमसे किये जा रहे हैं,

दिखाने को दर्शन दिये जा रहा हैं .

खुला भेद विजयी कहाये हुये जो

लहू दूसरों का पिये जा रहे हैं .

हिंदी ग़ज़ल में आधुनिक जीवन की जटिलताओं और नये बिम्बों के प्रयोग की वजह से दुष्यंत कुमार बहुत मशहूर हुये किन्तु बहुत कम लोगों को पता है कि उनसे पहले भी बलवीर सिंह रंग,विकल साकेती,बालस्वरूप राही,सूर्यभानु गुप्त आदि कवियों ने सहज हिंदी में आम जीवन की विसंगतियों को बहुत अच्छे शेरों में ढ़ाला .विकल साकेती के कुछ शेर देखें-

कोई हो गया है मेरा मेरी कल्पना से पहले

मेरा देवता मगन है मेरी वंदना से पहले

कहीं शीश क्या झुकाऊं कहीं हाथ क्या पसारूं

मुझे भीख मिल गई है मेरी याचना से पहले.

वरिष्ठ ग़ज़लकार सूर्यभानु गुप्त की ग़ज़लें मुंबई से प्रकाशित धर्मयुग पत्रिका के माध्यम से काफी चर्चित हुईं .नये तेवर से सजा उनका संकलन एक हाथ की ताली काफी प्रशंसित हुआ. आज की जिंदगी में पारस्परिक रिश्तों के यथार्थ को अपने शेरों कुछ यूं व्यक्त करते हैं –

हर लम्हा ज़िंदगी के पसीने से तंग हूं,

मैं भी किसी कमीज़ के कालर का रंग हूं

रिश्ते गुजर रहे हैं लिये दिन में बत्तियां,

मैं बीसवीं सदी की अंधेरी सुरंग हूं .

मांझा कोई यकीन के काबिल नहीं रहा

तनहाइयों के पेड़ से अँटकी पतंग हूं

ये किसका दस्तखत है बताये कोई मुझे

मैं अपना नाम लिखके अंगूठे सा दंग हूं.

कवि अपने फक्कड़पन को बड़े बेबाक अंदाज में बयान करता है-

जिनके अंदर चराग जलते हैं ,

घर से बाहर वही निकलते हैं .

बर्फ गिरते हैं जिन मकानों में

धूप के कारोबार चलते हैं.

खुदरसी उम्र भर भटकती है

लोग इतने पते बदलते हैं.

हम तो सूरज हैं सर्द मुल्कों के ,

मूड होता है तब निकलते हैं .

हिंदी ग़ज़ल की दुनिया में मील के पत्थर का दर्जा पानेवाले कवि दुष्यन्त कुमार राजनीतिक पतन से उपजे अपने असंतोष को शेरों में कुछ यूं ढ़ालते हैं-

एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है,

आज शायर यह तमाशा देखकर हैरान है .

फिसले जो इस जगह से तो लुढ़कते चले गये,

हमको पता नहीं था इतना ढ़लान है.

सुदर्शन फाकिर की अधुनातन ग़ज़लें बेगम अख्तर और जगजीत सिंह की गायकी के जरिये काफी मशहूर हुईं.

पत्थर के सनम, पत्थर के खुदा, पत्थर के ही इंसा पाये हैं

तुम शहरे मोहब्बत कहते हो, हम जान बचाके आये हैं

हम सोच रहे हैं मुद्दत से, अब उम्र गुजारें भी तो कहाँ

सहरा में खुशी के फूल नहीं, शहरों में गमों के साये हैं

निदा फाजली की ग़जलें अपने आधुनिक तेवर के लिये काफी मशहूर हुईं जो गुलाम अली और जगजीत सिंह जैसे गायकों की आवाज में पूरी दुनिया में सुनी गयीं-

सफर में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो

सभी हैं भीड़ में आगे निकल सको तो चलो

यहाँ किसी को रास्ता देता नहीं कोई

मुझे गिरा के अगर तुम सँभल सको तो चलो

राहत इंदौरी ने ग़ज़लो में काफी नये प्रयोग किये हैं .कुछ शेर देखें-

हमने खुद अपनी रहनुमाई की

और शोहरत हुई खुदाई की.

अब किसी की जबां नहीं खुलती

रस्म जारी है मुँहभराई की.

मैंने दुनिया से मुझसे दुनिया ने

सैकड़ों बार बेवफाई की. 

माँ बाप ,भाई बहन ,दोस्त दुश्मन..... जीवन से जुड़े सभी रिश्तों पर आज ग़ज़लें कही जा रही हैं .मुनव्वर राना ने माँ को विषय बनाकर सैकड़ों शेर कहे हैं .उनका यह शेर तो काफी मशहूर है-

किसी के हिस्से में मकाँ आया ,किसी के हिस्से में दुकाँ आयी

मैं घर में सबसे छोटा था ,मेरे हिस्से में माँ आयी .

हस्तीमल हस्ती ने अपनी ग़ज़लों में नये अंदाज में दिल को छू लेनेवाली बातें कही हैं-

जिस्म की बात नहीं है उनके दिल तक जाना था

लंबी दूरी तय करने में वक्त तो लगता है

हमने इलाजे जख्मे दिल ढ़ूँढ़ लिया लेकिन

गहरे जख्मों को भरने में वक्त तो लगता है.

बहुतेरी कार्यवाहियां सदन में जनप्रतिनिधियों के शोरोगुल और हठधर्मिता की वजह से लंबित रह जाती हैं .इस पीड़ा को वे एक शेर में कुछ यूं व्यक्त करते हैं-

मुझे लगता नहीं हालात पर कुछ बात भी होगी

अभी तो रहनुमा झगड़ेंगे बैठक मुल्तवी होगी.

समाज में बढ़ती जा रही असहिष्णुता और चाटुकारिता पर तंज करते हुये राजेन्द्र तिवारी कहते हैं-

दे मुझे कैद या रिहाई दे ,बेखता है तो क्या सफाई दे.

मुझको जीना है इस जमाने में ,या खुदा मुझको बेहयाई दे.  

भ्रूण हत्या और अपनी ही जनी संतानों के परायेपन की त्रासदी को कुछ यूं व्यक्त करते हैं शाहिद अंजुम -

पहले ससुराल पर इल्जाम था लेकिन अब तो

माँ तेरी कोंख में बेटी तेरी कट जाती है

अब तो माँ बाप भी मुल्कों की तरह मिलते हैं

सरहदों की तरह औलाद भी बँट जाती है

गाँवों के शहरीकरण और राजनीतिक व्यवस्था से उपजे असंतोष की ओर संकेत करते हुये संजय मासूम के शेर हैं-

जिसे देखो वही प्यासा खड़ा है,हमारा शहर है या कर्बला है

शहर में हो गया तब्दील शायद,यहां इक गाँव था जो लापता है.

अदम गोंडवी अपने शेरों के जरिये कौमी एकता की बात कुछ यूं करते हैं -

हिन्दू या मुसलिम के अहसासात को मत छेड़िये

अपनी कुर्सी के लिये जज्बात को मत छेड़िये .

हममें कोई हूण कोई शक कोई मंगोल है

दफ्न है जो बात अब उस बात को मत छेड़िये.

ग़ल्तियां बाबर की थीं जुम्मन का घर फिर क्यों जले

ऐसे नाजुक वक्त में हालत को मत छोड़िये.

है कहाँ हिटलर,हलाकू,जार या चंगेज खाँ

मिट गये सब कौम की औकात को मत छेड़िये.

छेड़िये इक जंग मिलजुलकर गरीबी के खिलाफ

दोस्त मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये . 

ग़ज़लों में नये प्रयोगों के साथ आनेवाले शायरों की एक लंबी फेहरिश्त है.सबको उद्धृत कर पाना मुश्किल ही नहीं असंभव है लेकिन यह खुशी की बात है कि इश्क मोहब्बत, जाम और सागरो मीना में एक लंबे अरसा तक फँसी रहने के बाद  ग़ज़ल आज जीवन की तल्ख सच्चाइयों के साथ खड़ी है.

   

  


बुधवार, 20 अगस्त 2025

वृंदावन के बंदर

 

- रासबिहारी पाण्डेय

वृंदावन का मोर और बंदरों से प्राचीन संबंध है ।यहाँ मोर तो आजकल बहुत कम दिखते हैं लेकिन बंदर बहुतायत मात्रा में हैं। प्रख्यात मंदिरों के परिसरों में तो हैं ही ,बाजारों और गलियों में भी दौड़ते-भागते दिखते रहते हैं ।कुछ श्रद्धालु इनके खाने पीने के लिए कुछ खास जगहों पर खाद्य सामग्री लेकर जाते हैं ।अगर बंदर राह चलते कोई वस्तु झपट कर भाग जाते हैं ,तब उन्हें खाद्य पदार्थ देना पड़ता है तभी वह वह सामान छोड़ते हैं ।कभी-कभी सामान नहीं भी छोड़ते क्योंकि जब उनके साथ ५-१०बंदर अतिरिक्त हो जाते हैं तो यात्री सबको खिला नहीं पाते ।जिसके कब्जे में समान रहता है,अगर उस बंदर की क्षुधापूर्ति कायदे से नहीं हुई तो सामान गया ही समझिए। 

वृंदावन के बंदरों और दुकानदारों का गुप्त समझौता लगता है क्योंकि दुकानों की सामग्री या मिठाई को वे हाथ नहीं लगाते ,सिर्फ यात्रियों के हाथ की वस्तु को ही निशाना बनाते हैं ।अगर नगर में किसी VIP नेता या मंत्री का आगमन होता है तो उनकी सुरक्षा में कुछ काले बंदर मंगाए जाते हैं ।कुछ बंदर  छतों पर चलते हैं और कुछ बंदर वाहन के अगल बगल से चलते हैं ।वह दृश्य बड़ा अद्भुत लगता है। स्थानीय बंदर काले बंदरों से इस कदर डरते हैं कि इनके पास नहीं फटकते ।मेरे मन में जिज्ञासा हुई ….क्या इन्हें जाड़े में ठंड नहीं लगती ….वे ठंड का सामना कैसे करते हैं ? वृंदावन के एक स्थानीय सज्जन ने बताया कि जाड़े के दिनों में वे कोई न कोई सुरक्षित कोना ढूंढ लेते हैं और १०-१२ की संख्या में एक दूसरे पर लद जाते हैं।परस्पर प्राप्त गर्मी से जाड़ा कट जाता है । कुछ साल पूर्व बंदरों का नसबंदी अभियान चला मगर  तब बंदरों की संख्या अचानक बढ़ गई ।इस दैवीय चमत्कार के सामनेअभियान बीच में ही रोकना पड़ा ।

कहते हैं एक बार अकबर ने तुलसीदास को अपने दरबार में रहने के लिए बुलावा भेजा ।तुलसीदास ने एक दोहा लिखकर भेज दिया- हौं चाकर रघुवीर को पटौ लिखो दरबार /तुलसी अब का होईहैं नर के मनसबदार //

अकबर को अपनी तौहीन महसूस हुई ।उसने तुलसीदास को गिरफ्तार करवा लिया ।गोस्वामी जी ने संकट की घड़ी में हनुमान जी को याद किया, परिणाम स्वरुप बंदरों ने आगरा शहर में इतना उत्पात मचाया कि अकबर ने तुलसीदास से क्षमा याचना  और उन्हें तत्काल रिहा करवाया।  

स्वामी विवेकानंद की निगमानंद द्वारा लिखित जीवनी में वर्णन है कि जब वे  राधाकुंड में स्नान कर रहे थे उनके कपड़े बंदर ले उड़े।उन्होंने बहुत कोशिश की मगर अपने कपड़े पाने में असफल रहे।मन मारकर भीगा कौपीन पहने हुए वे पास की लताओं की ओट में चले गए।थोड़ी देर बाद एक बालक उन्हें उनके कपड़े देकर लुप्त हो गया।कहा जाता है कि स्वयं श्रीकृष्ण ने उन्हें इस संकट से बचाया।

 मनुष्य किसी के मरने पर इतनी संख्या में इकट्ठे नहीं होते जितने बंदर इकट्ठे हो जाते हैं ।एक बंदर के मरने पर हजारों बंदर इकट्ठे हो जाते हैं ।वे मरने वाले बंदर को उठाकर कहां ले जाते हैं आज तक किसी को नहीं पता। एक और बात ……..बंदरिया को अपने छोटे बच्चे के  मरने का विश्वास ही नहीं होता ।वह कई कई दिनों तक उसे सीने से लगाए फिरती है …...तब तक ,जब तक कि वह  बदबू न देने लगे ,सीने से नहीं हटाती ।बंदरों से बचने के लिए कुछ लोगों ने घरों और छतों पर जालियां लगवा रखी हैं।जालियों के ऊपर दौड़ते-भागते बंदरों की छवि बहुत अच्छी लगती है  परिक्रमा मार्ग में ऐसे-ऐसे कपिराज हैं कि आपके पैर में पहनी हुई चप्पल भी निकाल लेंगे और वापस तभी देंगे जब आप उन्हें खाद्य सामग्री देंगे ।यहाँ बंदरों के उन्मूलन का कई बार अभियान चला लेकिन हर बार टायँ टायँ  फिस्स हो गया।बंदरों से रहित वृंदावन सचमुच अच्छा नहीं लगेगा।


गोस्वामी तुलसीदास और उनकी रचनाएँ




-रासबिहारी पाण्डेय


गोस्वामी तुलसीदास का जन्म संवत् 1554 की श्रावण शुक्ल सप्तमी को प्रयागराज के पास चित्रकूट जिले के राजापुर नामक ग्राम में आत्माराम दुबे नाम के एक प्रतिष्ठित सरयूपारीण ब्राह्मण के पुत्र के रूप में हुआ. उनकी माता का नाम हुलसी था .दुर्भाग्यवश उनके जन्म के दूसरे ही दिन उनकी माताजी इस धरा धाम से चल बसी . उस घर की दासी चुनिया ने उनका पालन पोषण किया .जब तुलसीदास लगभग साढे 5 वर्ष के हुए तो चुनिया का भी देहांत हो गया .तुलसीदास यत्र तत्र भटकने लगे . कवितावली में अपने बचपन की दारुण अवस्था का उल्लेख करते हुए लिखते हैं -

माता-पिता जग जाइ तज्यो 

विधिहू न लिखी कछू भाल भलाई 

नीच निरादर भाजन कादर 

कूकर टूकन लागि लगाई 

रामशैल पर रहने वाले श्री अनंतानंद के शिष्य नरहर्यानंद ने इस बालक का नाम रामबोला रखा और यज्ञोपवीत संस्कार करने के पश्चात राम मंत्र की दीक्षा दी .गुरु नरहर्यानंद अयोध्या में अपने संरक्षण में रखते हुए उन्हें विद्या अध्ययन कराने लगे.कुछ समय पश्चात गुरु शिष्य शूकर क्षेत्र आए . वहां नरहर्यानंद जी ने श्री राम की कथा सुनाई .

रामचरिमानस में इसका जिक्र करते हुए वे लिखते हैं -

मैं पुनि निज गुर सुनी कथा सो सूकरखेत

समुझी नहिं तस बालपन तब अति रहेउँ अचेत


शूकरक्षेत्र से गोस्वामी जी काशी चले आए और संत सनातन के पास रहकर लगभग 15 वर्षों तक वेद वेदांगों का अध्ययन किया. विद्या अध्ययन के पश्चात वे अपनी जन्मभूमि राजापुर आए और यहां अपने पिता का विधिवत श्राद्ध करने के बाद जन समाज को राम कथा का रसपान कराने लगे .

संवत1583 जेष्ठ शुक्ल त्रयोदशी गुरुवार को भारद्वाज गोत्र में उत्पन्न रत्नावली नाम की एक सुंदर कन्या से उनका पाणिग्रहण संस्कार संपन्न हुआ. माता पिता और परिजनों के प्रेम से वंचित गोस्वामी तुलसीदास को पहली बार प्रेम का मधुर संस्पर्श मिला. कहते हैं कि एक बार जब उनसे पूछे बिना रत्नावली अपने मायके चली गईं तो उनका वियोग न सह सकने के कारण रात के अंधेरे में नदी पार कर पीछे पीछे वे स्वयं भी ससुराल पहुंच गए .रत्नावली को इसका बहुत क्षोभ हुआ. उसने कठोर शब्दों में उन्हें धिक्कारा और कहा 

हाड़ मांस मय देह मम तामें ऐसी प्रीति

 वैसी जो श्रीराम में होत न भव भय भीत 


तुलसीदास को पत्नी के वचन चुभ गए .

वे वहां से चल दिए.इस प्रसंग का वर्णन करते हुए प्रियादास लिखती हैं -


तियो सो सनेह बिन पूछे पिता गेह गई 

भूली सुधि देह भजे वाही ठौरआए हैं 

वधू अति लाज भई रिस सो निकस गई 

प्रीति राम नई तन हाड़ चाम छाए हैं 

सुनी जब बात मानो ह्वै गयो प्रभात 

वह पाछे पछतात तजि  काशीपुरी धाए हैं 

कियौ तहाँ वास प्रभु सेवा लै प्रकाश कीनौ

लीनौ दृढ़ भाव नैन रूप के तिसाए हैं 



गृहस्थ वेश का त्याग कर साधु वेश में तीर्थाटन करते हुए वे काशी पहुंचे ।


संवत 1631 में गोस्वामी जी ने रामचरितमानस का लेखन अयोध्या में प्रारंभ किया।कहा जाता है कि पहले वे मानस की रचना संस्कृत में करना चाहते थे लेकिन संस्कृत के जिन श्लोकों की रचना वे दिन में किया करते ,रात में वे गायब मिलते ।एक दिन भगवान शंकर ने उन्हें स्वप्न में कहा कि तुम ग्राम्य भाषा में रामचरित का वर्णन करो ।भगवान शंकर की प्रेरणा से उन्होंने अवधी  में इस ग्रंथ का प्रणयन प्रारंभ किया।मानस की चौपाई के अनुसार -

संवत सोरह सौ एकतीसा ।

रकरउँ कथा हरिपद धरि सीसा।।

 दो वर्ष 7 महीने 26 दिन में यह ग्रंथ संवत 1633 के मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष को  पूर्ण हुआ।सहज सरल भाषा में होने के कारण जब काव्य अति लोकप्रिय होने लगा तो काशी के पंडितों ने संस्कृत की बजाय ग्राम्य भाषा में लिखा होने का हवाला देकर गोस्वामी जी के विरुद्ध कफी षड्यंत्र प्रारंभ कर दिया। पुस्तक को नष्ट करने का भी प्रयास किया गया। डरे हुए गोस्वामी तुलसी दास ने तब पुस्तक को अपने मित्र और काशी के जमींदार टोडरमल के पास  रखा।

विवाद सुलझाने के लिए सर्वसम्मति से एक रात्रि को पुस्तक विश्वनाथ मंदिर में रखी गई। सुबह जब पट खुला तो पुस्तक के ऊपर लिखा पाया गया-  सत्यम् शिवम सुंदरम।तब शर्मिंदा होकर पंडितों ने ग्रंथ की महत्ता को स्वीकार कर लिया।

गोस्वामी तुलसीदास की विद्वत्ता और लोकप्रियता से प्रभावित होकर बादशाह अकबर ने टोडरमल के के जरिये उन्हें अपने दरबार में मनसबदार बनाने का प्रस्ताव भेजा था लेकिन उन्होंने यह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया था।इस घटना से संबंधित उनका दोहा अत्यंत प्रसिद्ध है- 

हौं चाकर रघुवीर कौ पटौ लिख्यो दरबार

तुलसी अब का होइहें नर के मनसबदार।

गोस्वामी जी ने अपने जीवनकाल में बारह ग्रंथों की रचना की - रामलला नहछू, वैराग्य संदीपनी, बरवै रामायण ,पार्वती मंगल ,जानकी मंगल ,रामाज्ञा प्रश्न, दोहावली, कवितावली, गीतावली ,कृष्ण गीतावली, रामचरितमानस और विनय पत्रिका।

नहछू एक प्रकार का संस्कार है जो  विवाह संस्कार के समय होता है।इस अवसर पर मंगल गीत गाए जाने की अत्यंत प्राचीन परंपरा है ।रामलला नहछू चार चरण वाले बीस छंदों की एक छोटी सी कृति है ।इस कृति में रामविवाह के समय अयोध्या के उल्लासमय वातावरण का अत्यंत अद्भुत चित्रण है नहछू संस्कार में नाउन की विशिष्ट भूमिका होती है उसी द्वारा सारे अनुष्ठान का संपादन होता है ।गोस्वामी जी ने 11छंदों में नाउन के साज श्रृंगार हावभाव हास परिहास और अन्य विभिन्न कार्यों का वर्णन किया है ।नाउन से संबंधित वर्णन के पश्चात निछावर का वर्णन है और अंत में ग्रंथ की फलश्रुति है


नहछू के बाद की कृति वैराग्य संदीपनी मानी जाती है ।इसमें कुल 62 पद हैं जिनमें 46दोहे 2सोरठेऔर 14 चौपाईयां हैं ।इसमें अवधी और ब्रजभाषा का मिला जुला रूप है ।तुलसीदास इसके बारे में लिखते हैं -

तुलसी वेद पुराण मत पूरन शास्त्र विचार 

यह विरोग संदीपनी अखिल ज्ञान को सार 


इस कृति में वैराग्य का निरूपण और उससे मिलने वाली शांति की विवेचना है। संतो के विशेष लक्षण और गुणों का भी वर्णन किया गया है

बरवै रामायण 69 बरवै छंदों की एक कृति है ।इसमें रामचरितमानस की भांति कांडों में कथा लिखी गई है। बालकांड में 19 ,अयोध्या कांड में आठ अरण्यकांड में 6,किष्किंधाकांड में दो ,सुंदर कांड में एक और उत्तरकांड में 27 छंद हैं।यह प्रबंध काव्य न होकर गोस्वामी जी द्वारा जब तब अपनी मौज में लिखे गये छंद हैं जिन्हें प्रसंगानुसार कांडों में पिरो दिया गया है।

पार्वती मंगल 90 छंदों का एक लघु खंडकाव्य है इसमें अवधी में लिखे गए 74 मंगल सोहर और 16 हरिगीतिका छंदों का समावेश है ।पार्वती के जन्म के समय हिमालय और मैना के उल्लास, विवाह योग्य हो जाने पर पार्वती के रूप और गुण का वर्णन, अनुकूल वर की प्राप्ति के लिए नारद जी का शिव उपासना का परामर्श ,पार्वती की तपस्या ,र ति के करुण विलाप से द्रवित शिव का वरदान ,माता पिता के रोकने पर भी पार्वती द्वारा तपस्या ,पार्वती के तप से प्रभावित शिव का ब्रह्मचारी वेश में आना ,शिव पार्वती के विवाह की तैयारी ,हिमवान के यहां सभी नदी तालाब पर्वत आदि का एकत्र होना ,शिव का विवाह के लिए आना, परिछन,आरती ,शाखोच्चार कन्यादान ,हवन ,कोहबर आदि लोक रीतियों का संपन्न होना ,देवताओं द्वारा पुष्प वृष्टि और पार्वती को विदा कराकर शिव जी के कैलाश जाने का विशद वर्णन है ।इस कथा का आधार कालिदास कृत कुमारसंभव माना गया है ।

 जानकी मंगल अवधी में लिखी गई एक प्रबंध रचना है ।इसमें प्रमुख रूप से सीता राम विवाह का वर्णन है ।इसमें 96 मंगल सोहर और 24 हरिगीतिका छंदोंका समावेश है।

 रामाज्ञा प्रश्न ब्रज भाषा में लिखा गया है ।यह दोहा छंद में है ।पूरी कृति सात सर्गों  में विभाजित है ।कहा जाता है कि काशी के राजकुमार शिकार पर गए थे। समय पर नहीं लौटे तो राजा को चिंता हुई कि वे किसी संकट में फंस गए हैं ।राजा ने ज्योतिषी गंगाराम को बुलाकर ज्योतिष के आधार पर राजकुमार का समाचार जानना चाहा और कहा कि यदि उनकी बात सच हुई तो उन्हें पुरस्कार दिया जाएगा और यदि झूठ हुई तो कठोर कारावास ।अपने मित्र ज्योतिषी गंगाराम को संकट से उबारने के लिए गोस्वामी जी ने शकुन विचार वाले इस ग्रंथ की रचना की ।इसी ग्रंथ के आधार पर गंगा राम ने दूसरे दिन राजकुमार के सकुशल लौट आने की भविष्यवाणी की। तदनुसार राजकुमार के आने पर गंगाराम को एक लाख मुद्राओं का पुरस्कार दिया गया ।गंगाराम के बहुत आग्रह करने पर उसमे से गोस्वामी जी ने केवल 10000 मुद्राएं ली और उस धनराशि से दक्षिणाभिमुख हनुमानजी के 10 मंदिर बनवाए।

दोहावली भी ब्रज भाषा में लिखी गई है इसमें 573 दोहा और सोरठा छदोंं का संग्रह है ।इसमें वैराग्य संदीपनी ,रामाज्ञा प्रश्न और रामचरितमानस के भी कुछ दोहे चौपाइयों का समावेश कर लिया गया है ।ग्रंथ में विषय की विविधता है ।भक्ति, धर्म, नीति, प्रेम ,विवेक ,संत महिमा, नाम महिमा ,वेद मत शास्त्र मत आदि के बारे में गंभीर बातें की गयी हैं।

 कवितावली ब्रज भाषा में लिखित मुक्तक काव्य है ।इस कृति में कुल 369 छंद है कवितावली में रामचरितमानस के कतिपय चुने हुए प्रसंगों को ही काव्य का आधार बनाया गया है ।

गीतावली ब्रज भाषा में रचित मुक्तक गीतिकाव्य है रामचरितमानस की ही भांति इसे भी सात कांडों में विभाजित किया गया है ।विभिन्न राग रागिनियों पर आधारित इसमें 330 पद हैं। इसमें कोमल भाव वाले प्रसंगों को ही काव्य का आधार बनाया गया है करो कठोर भाव को छोड़ दिया गया है।

 कृष्ण गीतावली में कृष्ण की लीलाओं का वर्णन किया गया है ।यह संगीत के विभिन्न राग रागिनियों के आधार पर लिखा गया मुक्तक गीतों का संकलन है ।इस कृति में कुल 61 पद हैं । गोपियों की विरह अनुभूति ,प्रेम की प्रगाढ़ता और अनन्य भक्ति का अद्भुत वर्णन इन गीतों में हुआ है।विनय पत्रिका को गोस्वामी जीे रचित ग्रंथों में विशेष स्थान प्राप्त है ।इसे भी मुक्तक गीत काव्य ही कहा गया है आरंभ में  गणेश ,सूर्य ,शंकर ,दुर्गा , गंगा ,यमुना और हनुमान जी की स्तुति की गई है ।आनंदवन और चित्र वन के महत्व का वर्णन है  फिर राम के समीप लक्ष्मण भरत और शत्रुघ्न को प्रसन्न करने का प्रसंग है ।अंत में जग जननी सीता की वंदना की गई है़। इस कृति में 28 से अधिक राग रागिनियों के आधार पर पदों की  रचना की गयी है।मुहावरों ,कहावतों और जन समाज में प्रचलित उक्तियों के प्रयोग से यह काव्य बड़ा ही अनूठा बन पड़ा है। विनय पत्रिका  भक्ति रस का अद्भुत उदाहरण है।

 रामचरितमानस गोस्वामी तुलसीदास का सबसे लोकप्रिय ग्रंथ है इसमें चौपाइयों की संख्या 51000 और दोहों की संख्या 1074मानी गई है। कृति के बारे में स्वयं तुलसीदास कहते हैं - नाना पुराण निगमागम सम्मत यद् रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोपि

स्वांत: सुखाय तुलसीरघुनाथ गाथा भाषा निबंध मतिमंजुल मातनोति

 अर्थात्  अनेक पुराण,वेद और शास्त्र से सम्मत तथा जो रामायण में वर्णित है और कुछ अन्यत्र से भी उपलब्ध रघुनाथ की कथा को तुलसीदास अपने अंत:करण के सुख के लिए अत्यंत मनोहर भाषा रचना में विस्तृत करता है। मानस में गोस्वामी जी संस्कृत के शुद्ध तत्सम रूप से लेकर बोलियों के ठेठ शब्दों तक का प्रयोग किया है किंतु उनकी भाषा में जो रवानी है , वह कहीं भी पाठक के लिए बाधक नहीं बनती। गोस्वामी जी ने रस छंद और अलंकारों का अद्भुत प्रयोग किया है

 उनकी कृतियों में श्रृंगार, हास्य, करुण,रौद्र, भयानक ,वीभत्स,अद्भुत,शांत,भक्ति और वात्सल्य रसों का पूर्ण परिपाक मिलता है

.उनके दोहे,चौपाइयाँ और पद जनमानस से इस प्रकार एकाकार हो गये हैं कि लोग उन्हें सामान्य बातचीत में उदाहृत करते रहते हैं .लगभग500 वर्ष बीतने के बाद भी उनकी रचनायें जनमानस में प्रासंगिक बनी हुई हैं और भविष्य में भी उनके अप्रासंगिक होने का कोई कारण नहीं दिखता।

इसीलिए जनमानस के कंठहार तुलसीदास के लिए कहा गया है - कविता करके तुलसी न लसे,कविता लसी पा तुलसी की कला !


लोक जीवन के चितेरे भिखारी ठाकुर



रासबिहारी पाण्डेय


सूर,कबीर, तुलसी आदि भक्त कवियों के बाद भोजपुरी क्षेत्र में जिस कवि को जनता ने सर्वाधिक कंठहार बनाया उनमें भिखारी ठाकुर और महेंद्र मिश्र का नाम प्रमुख है। भिखारी ठाकुर ने अपने गीत और लोक नाटकों के जरिए समाज में अपनी पुख्ता जगह बनाई। पारिवारिक परिस्थितियों के कारण भिखारी ठाकुर को विद्यालय जाने का अवसर नहीं मिला। बचपन से ही घर में उन्हें गायों की चरवाही का जिम्मा दिया गया था। बड़े होकर जब पढ़ने लिखने की ललक जगी तो इस उम्र में विद्यालय में पहली कक्षा से पढ़ाई शुरू करना संभव नहीं था। एक वणिक् पुत्र से उन्होंने अक्षर ज्ञान प्राप्त किया और कैथी लिपि में लिखने का अभ्यास करने लगे। थोड़ा कोशिश करके अटक भटक कर तुलसीकृत रामचरितमानस भी पढ़ने लगे जिसकी वजह से उनके अंदर कवित्व शक्ति का स्फुरण हुआ और वे स्वयं भी दोहे चौपाई लिखने लगे। गाय चराने के समय से ही वे अपने साथियों के साथ गाने, नाचने और खेल तमाशे का अभ्यास करने लगे थे।बाल्यावस्था में ही उनका विवाह हो गया था ।उनकी दो पत्नियां अकाल मृत्यु को प्राप्त हो गई थी। तीसरी पत्नी का लंबा साथ मिला।प्रौढ होने पर नौकरी ढूंढते हुए पहले वे खड़गपुर (बंगाल) गए,फिर वहां से मेदनीपुर गए। आषाढ़ मास में जगन्नाथ पुरी की रथयात्रा में शामिल होकर भुवनेश्वर होते हुए वे अपने घर कुतुबपुर लौट आए। इन स्थानों पर उनका मन नहीं लगा। गांव आकर उन्होंने अपना एक दल बनाया जिसके जरिए पहले तो वे रामलीला कर रहे थे लेकिन शीघ्र ही खुद  के लिखे नाटक भी करने लगे।नाई जाति में जन्म के कारण सवर्ण परिवारों में उनका आना-जाना बचपन से ही था। उस जमाने में बड़े घरों की बहुयें नाई के माध्यम से ही अपना संदेश मायके या ससुराल भेजती थीं, इस कारण भिखारी ठाकुर को नारी मनोविज्ञान की बहुत गहरी समझ हो गई थी।गद्य पद्य में कुल उनकी कुल 29 कृतियां हैं किंतु उनकी विशेष ख्याति का आधार नाटक ही हैं ।उनके दस नाटकों के नाम इस प्रकार हैं- बहरा बहार(बिदेसिया) कलयुग बहार,राधेश्याम बहार, बेटी वियोग,विधवा विलाप,गबर घिचोर ,भाई विरोध, गंगा असनान, पुत्र बध और ननद भौजाई। 

उनकी अन्य पुस्तकों में भिखारी हरि कीर्तन,चौवर्ण पदवी( नाई पुकार)देव कीर्तन या भिखारी चौयुगी,भिखारी शंका समाधान, राम नाम प्रेम, भिखारी जय हिंद खबर आदि हैं। बिरहा बहार(धोबी धोबन संवाद), ननद भौजाई संवाद,जसोदा सखी संवाद, नवीन बिरहा (मर्द औरत संवाद), आदि पुस्तकें संवाद शैली में लिखी गई हैं।

 भिखारी ठाकुर ने मेदनीपुर में रामलीला, पुरी में रासलीला, बंगाल में जात्रा पार्टी और अपने गांव के आसपास नौटंकी का नाच देखा था। इसका सम्मिलित प्रभाव यह हुआ कि उनके मन में स्वयं एक ऐसा ही दल बनाने का विचार आया जिसकी शुरुआत तो रामलीला से हुई मगर बाद में नाटक भी खेले जाने लगे। 

भिखारी ठाकुर के घर के लोगों ने नाच गान में जाने से मना किया लेकिन वे चिट्ठी न्यौतने के बहाने नाच में चले जाते थे। उनके नाच गिरोह में कई सदस्य थे। वे नाच का सट्टा किसी न किसी और के द्वार पर लिखवा लेते थे,इसलिए उनके माता-पिता को मालूम नहीं होता था। अपनी शुरुआत के बारे में वे खुद लिखते हैं ~

अरथ पूछ पूछ के सीखीं/

दोहा छंद निज हाथ से लिखीं।

 निज पुर में करके रामलीला/

 नाच के तब बन्हलीं सिलसिला /

नाच मंडली के धरि साथा/

 लेक्चर देहीं कहि जै रघुनाथा /

बरजत रहलन बाप मतारी/

 नाच में तू मत रह भिखारी /


एह पापी के कवन पून से भइल एतना नाम 

भजन भाव के हाल न जनलीं सबसे ठगनी दाम।


पुरुषों की नशाखोरी, बाल विवाह से उपजी त्रासदी, दहेज न दे पाने के कारण कन्याओं का बेमेल विवाह, गरीबी में बेटी बेचने को मजबूर पिता, धार्मिक आडंबरों में ठगी, विधवाओं का दुख, युवावस्था में पतियों का नौकरी के लिए महानगरों में जाना आदि संदर्भ इनके नाटकों के केंद्र में हुआ करते थे।इन सभी नाटकों में संवादों के साथ-साथ गीत भी गुंथे होते थे,जिसके कारण दर्शकों का आनंद कई गुना बढ़ जाता था।


भिखारी अपने सभी नाटकों की शुरुआत देवी देवताओं की वंदना से शुरू करते थे। सूत्रधार के रूप में वे स्वयं होते थे।वे ईश वंदना के साथ साथ सामाजिक विसंगतियों पर भी प्रहार करते चलते थे। भिखारी का सर्वाधिक चर्चित नाटक विदेसिया गांव से शहर आकर दूसरी स्त्री के मोह में फंसने वाले एक ग्रामीण युवक की कहानी है। वह युवक पत्नी से झूठा  बहाना बनाकर कोलकाता आ जाता है और कोलकाता में एक दूसरी स्त्री के मोह में फंस जाता है।पति का वियोग झेल रही पत्नी कोलकाता जा रहे एक बटोही से अपना संदेश भेजती है। बटोही के समझाने पर वह युवक फिर से अपनी पहली पत्नी के पास घर लौटता है मगर शहर की वह पत्नी ग्रामीण पत्नी की तरह शहर में ही आंसू नहीं बहाती रहती बल्कि उसका पता पूछते पूछते उसके बेटे के साथ गांव तक आ धमकती है।अंतत:दोनों पत्नियाँ सगी बहनों की तरह रहने लगती हैं।उस समय गांव से शहर आने वाले युवक अक्सर किसी दूसरी औरत के मोह में फँस जाते थे।कुछ लोग तो शहर में ही बस जाते थे।इस वेदना को उनका यह नाटक बहुत संजीदगी से प्रस्तुत करता था,अत:इसे लोग बहुत चाव से देखते थे।

 प्रख्यात साहित्यकार और शेक्सपियर के नाटकों के आधिकारिक विद्वान राजेंद्र ‌‌‌‌‌कॉलेज छपरा के प्राचार्य मनोरंजन प्रसाद सिन्हा ने उन्हें भोजपुरी का शेक्सपीयर कहा।भिखारी ठाकुर शेक्सपियर की तरह नाटककार और गीतकार दोनों थे। शेक्सपियर के नाटकों में भी कुछ कुछ प्रसंगों में गीत पाए जाते हैं जो कथा को गति देने के साथ साथ रोचक भी बनाते हैं।भिखारी ठाकुर ने भी अनजाने में उसी शैली का अनुकरण किया।उन्हें नाटक करने के लिए बहुत दूर दूर से बुलावा आया। आसपास के गांवों कस्बों के साथ-साथ पटना, बनारस, कोलकाता, असम, नेपाल और सिंगापुर तक वे अपने कला के प्रदर्शन के लिए निमंत्रित किये गए।अपने जमाने के नामी समीक्षकों और कलावंतों का उन्हें भरपूर प्रेम और सराहना मिली।नाटककार जगदीशचंद्र माथुर और प्रख्यात लेखक राहुल सांकृत्यायन जैसी विभूतियों ने उनके नाटकों को आम दर्शकों के साथ बैठकर देखा।

18 दिसंबर 1887को कुतुबपुर(छपरा,बिहार)में जन्मे भिखारी ठाकुर का देहांत अपने गांव में ही10 जुलाई 1971को 84 वर्ष की अवस्था में हो गया। अपनी मृत्यु के बारे में उन्होंने अपनी एक पुस्तक में कहा था~

 अब ही नाम भईल बा थोरा

जब ई छूट जाई तन मोरा 

तेकरा बाद पचास बरीसा

तेकरा बाद बीस दस तीसा

तेकरा बाद नाम होई जइहन

पंडित कवि सज्जन जस गइहन

नइखीं पाट पर पढ़ल भाई 

गलती बहुत लउकते जाई। 

(अभी तो थोड़ा बहुत नाम हुआ है। जब मैं नहीं रहूंगा, उसके 100 वर्षों बाद मेरा बहुत नाम होगा।विद्वान कविऔर सज्जन मेरा यश गाएंगे। मैंने विधिवत् पढ़ाई नहीं की है,इसलिए मेरी कृतियों में बहुत ही गलतियां दिखाई देंगी।)

 भिखारी ठाकुर की भविष्यवाणी सत्य साबित हो रही है।दिन ब दिन उनकी प्रासंगिकता बढती ही जा रही है।।फिलहाल भोजपुरी फिल्मों और एल्बमों में काम करने वाले लोगों को उनसे प्रेरणा लेते हुए यह चिंतन करना चाहिए कि बिना अश्लील हुए किस तरह ऐतिहासिक हुआ जा सकता है।

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