रासबिहारी पाण्डेय
बॉलीवुड की मारधाड़ और मसाला फिल्मों के बीच 'लापता लेडीज' एक ठंडी बाजार की तरह है, बावजूद इसके मुकम्मल फिल्म के तौर पर इसका मूल्यांकन भी जरूरी है।फिल्में हम मनोरंजन के लिए देखते हैं। यह फिल्म हमें स्वस्थ मनोरंजन देती है।हिंदी फिल्मों से दूर होते जा रहे गांव कस्बे खेत खलिहान और बाजार भी आंखों को सुकून देते हैं।
ट्रेन से उतरने के दौरान घूंघट की वजह से दुल्हन बदलने की कई घटनाएं 50-60 साल पहले तक होती रही हैं जो अखबारों की सुर्खियां भी बनती रही हैं। रविंद्र नाथ ठाकुर के उपन्यास नौका डूबी की दुल्हन एक नाव हादसे के बाद बदले हुए पति के साथ बनारस की जगह कोलकाता पहुंच जाती है।इस लिहाज से देखें तो यह सत्तर अस्सी के दशक की कहानी है।आज के जमाने से इसका कोई तआल्लुक नहीं है।लापता लेडीज में दो दुल्हनें ट्रेन के जनरल कंपार्टमेंट में बैठकर अपने ससुराल जा रही हैं। ट्रेन से उतरते वक्त हड़बड़ी में एक दुल्हन जानबूझकर किसी और के साथ चली जाती है जबकि दूसरी दुल्हन ट्रेन से उतरने के बाद खुद को असहाय महसूस करती है । प्लेटफार्म पर मिलने वाले छोटू के जरिए वह चाय नास्ते का स्टाल चलाने वाली मंजू माई का सहारा पाती है और फिर दीवार पर लगे पोस्टर के कारण अपने पति दीपक तक पहुंच पाती है।जया जो जानबूझकर दीपक के साथ दुल्हन के वेश में उतर गई थी, पोस्टर उसी के द्वारा लगवाये गये थे ।वह आगे अपनी पढ़ाई जारी रखना चाहती है। इंस्पेक्टर रवि किशन के कारण उसे अपने दहेज लोभी पति से राहत मिलती है और वह कृषि विज्ञान की पढ़ाई करने देहरादून चली जाती है।
आजकल हर गांव कस्बे में अनपढ़ लड़कियां तक रील बना रही हैं और फेसबुक,इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर शेयर भी कर रही हैं। इतनी साक्षर और सावधान तो हैं ही कि अपने पति ,ससुराल और जगह का नाम पता और मोबाइल नंबर अपने पास रखती हैं। सो इस जमाने में दुल्हन की अदला बदली की बात समझ में नहीं आती। जितने सीधे-सादे सरल और सहयोगी लोग फूल और जया को मिलते हैं, दुनिया अभी इतनी सीधी नहीं हुई है।
रेल बस और वायुयान के ऐसे तमाम संस्मरण हमारे पास हैं जिसमें कर्मचारियों की अकर्मण्यता और बदतमीजी से हम रूबरू होते रहे हैं लेकिन लापता फूल को रेलवे और रेलवे प्लेटफार्म के आसपास किसी खल चरित्र से मुलाकात नहीं होती है। फूल स्टेशन पर दो मर्दों के बीच में सो जाती है जिसमें से एक नकली टांगों वाला बनकर दिन में भीख मांगता है और दूसरा छोटू मंजू माई के साथ काम करता है। यह दृश्य अविश्सनीय लगता है।
फिल्म में प्रमुख रूप से चार औरतों की कहानी है। पहली फूल है जो परंपरा से जुड़ी हुई है,उसकी अपनी कोई महत्वाकांक्षा नहीं है। वह चुपचाप अपने पति के साथ जा रही है। दूसरी जया है जिसके जीवन में शादी से महत्वपूर्ण उसका अपना करियर है। तीसरी मंजू माई जो अपने शराबी पति से दूर रहकर अपनी बची खुची जिंदगी सुकून से गुजारना चाहती है। चौथी दीपक के परिवार की लड़की बेला है जिसके पति ने उसे छोड़ दिया है और वह मायके में ही रहने को अभिशप्त है। फिल्म के तीन किरदारों को अपने मन के मुताबिक पुरुष नहीं मिलते इसलिए उन्हें अपने जिंदगी की लड़ाई खुद लड़नी है।भारत में हर रोज सैकड़ो लड़कियां लापता हो रही हैं।लेकिन उनका सच यह नहीं है जो किरण राव इस फिल्म में दिखाती हैं।यहां न दस साल की बच्ची सुरक्षित है न अस्सी साल की औरत।पचास साठ साल की औरतें भी छेड़खानी की शिकार होती हैं,वहीं बूढी और अशक्तऔरतें लूटपाट की शिकार होती हैं। जिस तरह इस फिल्म में दिखाते हैं कि एक लड़की रेलवे प्लेटफार्म पर सुरक्षित है और दूसरी लड़की पराए घर में सुरक्षित है,ऐसा संयोग बहुत कम होता है। चूंंकि हिंदी फिल्मों में हैप्पी एंडिंग दिखानी होती है इसलिए जान बूझकर ऐसी कहानी गढी गई है। यहां घूसखोर दरोगा तक चरित्रवान और औरतों की इज्जत करने वाला है।यहां तक कि गाना सुनने के एवज में घूस की रकम दस हजार तक घटा देता है।आमिर खान की एक्स वाइफ फिल्म की निर्देशक किरण राव खुद एक तलाकशुदा महिला हैं। वे लंबे समय तक आशुतोष गोवारीकर की असिस्टेंट रह चुकी हैं। औरतों के दुख दर्द और पुरुष मानसिकता की उन्हें अच्छी जानकारी है।कुछ साल पहले आमिर खान ने यह बताया भी था कि किरण को यहां रहने में डर लगता है लेकिन वही किरण जब फिल्म बनाने निकलीं तो उन्हें सब कुछ अच्छा अच्छा ही नजर आने लगा।
मनोरंजक फिल्म बनाने के चक्कर में वे हकीकत की ओर पीठ करके बैठ गई हैं।बावजूद इसके करण जौहर और यशराज के बिग बजट फिल्मों की दौड़ में शामिल न होकर उन्होंने अपनी अलग राह चुनी है,इसके लिए बधाई तो बनती ही है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें