कुछ न कहने से भी छिन जाता है एजाज़-ए-सुख़न
ज़ुल्म सहने से भी ज़ालिम की मदद होती है-
मुज़फ़्फ़र वारसी
आप मंचों से साहित्य के नाम पर चल रहे गोरखधंधा के विरोध में हैं लेकिन खुद किसी की नजर में नहीं आना चाहते।अगर कोई लिखता है तो कमेंट करते हैं न शेयर करते हैं। इतने बड़े देश में कैसे अपनी बात लोगों तक पहुंचाएंगें ?आप संयोजकों के सामने क्या विकल्प दे रहे हैं? कितने मजबूत कवि आपके पाले में हैं जो सचमुच सार्थक कविता से लोगों को विस्मित कर सकते हैं!आप अपनी पसंद के चार नाम तक लिखने में कोताही बरत रहे हैं। फिर उनका मुकाबला कैसे करेंगे जो संगठित होकर देश विदेश हर जगह काबिज हैं?सोशल मीडिया हैंडल करने के लिए हजारों फेक एकाउंट और इसे संचालित करने के लिए तनख्वाह देकर ट्रेंड लोगों को बिठा रखा है;जो चाहे जब आपका एकाउंट हैक कर सकते हैं।
वर्षों से जो व्यक्ति सिर्फ अपनी जयकार करने वालों वाह बेटा, पढ़ो बेटा टाइप लोगों को ढ़ो रहा है,उसकी ओर तृषित नेत्रों से देख रहे हैं कि क्या पता हमें भी किसी दिन बुला ले और इस प्रत्याशा में मौन साधे हुये हैं, फिर किस तरह यह उम्मीद रखते हैं कि माहौल बदल जाएगा ? नयी पीढ़ी तो पूरी तरह दिग्भ्रमित हो गई है और इस लफ्फाजी को ही कविता मान बैठी है। यह भ्रम दूर हो ,इसके लिए आप क्या कर रहे हैं? अगर आप कुछ नहीं कर रहे हैं तो आपको शिकायत करने का भी कोई अधिकार नहीं है।आईने के सामने तो खड़े होते होंगे,अपना सामना कैसे करते हैं?
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