रासबिहारी पाण्डेय
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सनातन धर्म के ग्रंथों के सबसे बड़े प्रकाशक गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार दिए जाने का जहां चारों तरफ भरपूर स्वागत हुआ ,वहीं प्रगतिशीलता की खाल ओढ़े कुछ सेकुलर इसके विरोध में भी लग गए।
दुनिया के तमाम धार्मिक ग्रंथों से ऐसी बातें निकाली जा सकती हैं जो मानवता और संविधान विरोधी हैं लेकिन यह भी सच है कि इन ग्रंथों को पढ़कर हम अपने विवेक से उन चीजों को दरकिनार करके आगे बढ़ जाते हैं। बहुत संभव है कि ये ग्रंथ जिस समय लिखे गए थे, ये बातें उस समय की स्थितियों ;के अनुकूल रही हों। देश, काल और परिस्थिति केअनुसार हमें स्वयं यह निर्णय लेना होता है कि आज के लिए क्या उचित है? अगर गीता प्रेस न होता तो रामचरितमानस, रामायण, गीता, महाभारत, पुराण औ उपनिषद घर-घर तक सुलभ न हो पाते। गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित धार्मिक मासिक पत्रिका कल्याण के फिलहाल दो लाख से अधिक सदस्य हैं। अगर यह प्रकाशन चाहता तो प्रति महीने कई लाख के सरकारी/गैर सरकारी विज्ञापन इसमें छप सकते थे और इस तरह प्रेस का मुनाफा बढ़ सकता था।यही नहीं जो ग्रंथ जिस मूल्य पर यहां से मिल रहे हैं,अगर उसका दोगुना या तीन गुना दाम भी रखा जाए तो लोग उन्हें खरीदेंगे किंतु गीता प्रेस आमजन का ध्यान रखते हुए इसे न्यूनतम मूल्य पर उपलब्ध करा रहा है। कुछ खास दानदाताओं की उदारता के कारण प्रेस इस मिशन में सफल है। पिछले 100 वर्षों से अगर कोई संस्थान बिना किसी सरकारी अनुदान या कारपोरेट की सहायता के
सनातन धर्म के प्रचार में निरंतर लगा है तो क्या इसकी सराहना नहीं की जानी चाहिए? जो लोग धर्म को अफीम की संज्ञा देते हैं,क्या वे पूरी दुनिया से मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर और गुरुद्वारों का अस्तित्व समाप्त कर सकते हैं या अधिसंख्य आस्तिक आबादी को नास्तिक बना सकते हैं?यदि धर्म की शरण लेकर कोई सुख-शांति का अनुभव करता है और बिना कट्टरता को बढ़ावा दिए कोई इस कार्य में उसके लिए सहायक साबित हो रहा है तो इस पहल का स्वागत नहीं किया जाना चाहिए?गीता प्रेस को अपनी महानता सिद्ध करने के लिए किसी पुरस्कार या गांधी के नाम की जरूरत नहीं है। विगत चार पीढ़ियों से वह सनातन धर्म का पताका फहरा रहा है। महात्मा गांधी स्वयं कल्याण पत्रिका के लेखकों में रहे हैं। प्रेस के संस्थापकों से उनकी मित्रता जगजाहिर है।अन्य धर्मों की तरह सनातन धर्म की कोई एक किताब नहीं है लेकिन इन सभी किताबों का सार परोपकार और परहित ही है। जो छद्म सेकुलर गीता प्रेस का विरोध कर रहे हैं, वे कुरान और बाइबिल की आपत्तिजनक बातों पर कभी मुंह नहीं खोलते।गीता प्रेस की स्थापना के सौ वर्ष बाद उन्हें यह समझ में आ रहा है कि प्रेस समाज हित में काम नहीं कर रहा है।गत दिनों दो चौपाइयां निकालकर तुलसी कृत रामचरितमानस को प्रतिबंधित करने की मांग की जा रही थी, उसी तरह गीता प्रेस के सौ वर्ष के योगदान को अनदेखा करके गांधी शांति पुरस्कार दिए जाने की आलोचना की जा रही है। शरीर में ज्वर और पेट में अजीर्ण हो तो कितना भी स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ हो,हम उसका आनंद नहीं ले सकते। वैसे ही पार्टी की विचारधारा के खूंटे से बँधे लोग सरकार की आलोचना का कोई भी अवसर हाथ से जाने देना नहीं चाहते।समाज हित में गीता प्रेस का जो अवदान है,दुनिया का कोई भी पुरस्कार उसके लिए छोटा है।
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