रासबिहारी पाण्डेय
रजा फ़ाउंडेशन और सेतु प्रकाशन के सह प्रकाशन में छपी सत्यदेव त्रिपाठी लिखित 'अवसाद का आनंद' सिर्फ जयशंकर प्रसाद की जीवनी नहीं बल्कि उनके व्यक्तित्व और वाड़्मय का एक समीक्षात्मक अध्ययन भी है।भाषा में तत्सम, तद्भव और देशज शब्दों की भरपूर रवानी है।प्रसंगों के अनुकूल लोकोक्तियों, सूक्तियों और मुहावरों का भी अच्छा खासा समावेश है। प्रसाद जी की यह जीवनी पुस्तक पाँच अध्यायों में विभक्त है। सभी अध्यायों के शीर्षक प्रसाद जी की कविता पंक्तियों से उद्धृत हैं और पूरी पृष्ठभूमि को व्यक्त करते है।पहला अध्याय है- 'तुम्हारा मुक्तामय उपहार' जिसमें प्रसाद जी की कुल परंपरा का विश्लेषण है।प्रसाद को पूर्वजों से क्या मिला और प्रसाद ने उस कुल को क्या दिया,इसकी पड़ताल की गई है। सातवीं शताब्दी में हर्ष के दरबार में उनके पूर्वज थे। तब से प्रसाद जी के काल तक की विस्तार से विवेचना है।दूसरे अध्याय 'बीती बातें कुछ मर्म कथा' में प्रसाद जी के साहित्य और जीवन के समानांतर विकास की चर्चा है। कई विधाओं को एक साथ उन्होंने कैसे साधा, इस पर विस्तृत बात की गई है।तीसरे अध्याय 'तरुण तपस्वी सा वह बैठा साधन करता सुर श्मशान' में प्रसाद जी के व्यक्तित्व को सोदाहरण पुष्ट किया गया है। उनके जीवन की कतिपय घटनाओं के आलोक में उनके चरित्र को समझने की कोशिश की गई है। चौथे अध्याय 'उसकी स्मृति पाथेय बनी' में प्रसाद जी की कृति 'आँसू' की नायिका के साथ-साथ प्रसाद जी के जीवन में जितनी नायिकाएं आई हैं, उनकी विशद चर्चा है। नाचने गाने वालियों के मोहल्ले के पास दुकान होने के कारण प्रसाद जी के बारे में जो भ्रांतियां फैलाई गई हैं, उनका तथ्यात्मक ढंग से निराकरण किया गया है।पांचवें अध्याय 'मृत्यु अरी चिर निद्रे तेरा अंक हिमानी सा शीतल'में प्रसाद जी की मृत्यु और बीमारी का मार्मिक वर्णन है। इस अध्याय में उनकी बीमारी साहित्यिक गुटबंदी और दाह संस्कार के बहाने दुनियादारी की अच्छी खासी पड़ताल है। एक विशेष परिशिष्ट प्रसाद जी की चयनित कविताओं और समकालीन रचनाकारों से पत्राचार का भी है।पुस्तक में प्रसाद के व्यक्तित्व कृतित्व के साथ-साथ जीवन के ढेर सारे उन पहलुओं की भी चर्चा की गई है जिससे अधिकांश हिंदी पाठक अनजान हैं।
उनमें से कुछ घटनाओं का जिक्र करना समीचीन होगा।
जयशंकर प्रसाद ने अपनी किसी भी पुस्तक की भूमिका किसी समकालीन या पूर्ववर्ती रचनाकार से नहीं लिखवाई और बहुत चिरौरी मिनती के बावजूद आजीवन स्वयं भी किसी अन्य कवि लेखक के पुस्तक की भूमिका नहीं लिखी। वे कवि सम्मेलनों में जाने से कतराते थे। गोष्ठियों में भी जब तक उनके आत्मीय लोग नहीं होते थे, वे कविता पाठ से बचते थे। प्रेमचंद द्वारा निकाली गई पत्रिका हंस का नामकरण उन्होंने ही किया था।
प्रसाद जी प्रतिदिन श्रीमद्भगवद्गीता के संपूर्ण पाठ के बाद ही अन्न जल ग्रहण करते थे।
शिवरात्रि के दिन वे पूरी आस्था के साथ व्रत रखते हुए शिव पूजा में समय व्यतीत करते।गले में बड़े मनकों वाले रुद्राक्ष की माला पहने शिव स्तोत्र का पाठ करते हुए प्रसाद जी बड़े दिव्य और भव्य लगते।वे अपने हाथों से शिव का श्रृंगार करते,अभिषेक करते और मस्तक पर महाकाल का भस्म प्रसाद धारण करते। शिवालय से उनका लगाव इतना प्रगाढ़ था कि कामायनी का आमुख और कुछ अन्य छंद वहीं बैठ कर लिखे गए। प्रसाद जी को नगर में या गंगा तट पर देखकर काशी निवासी हर हर महादेव का उद्घोष करते। यह सम्मान काशी में एकमात्र काशी नरेश को ही प्राप्त था।क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद को अंग्रेजों से बचाने के लिए उन्होंने कुछ समय तक अपने काली महल के मकान के भूगर्भ में रहने की ब्यवस्था की और उनकी सेवा में संतू नाम का एक नौकर भी रखा था।
स्वयं अपनी कविताओं की व्याख्या उन्होंने कभी नहीं की,कभी कोई छात्र उनसे इस निमित्त मिला भी तो उन्होंने बहुत विनम्रता से यह कह दिया कि पता नहीं किस भाव दशा में मैंने ये पंक्तियां लिखी थीं, अब उसको बता पाना असंभव है, इसलिए बेहतर होगा कि तुम अपने अध्यापक से ही इसे समझो। एक बार महावीर प्रसाद द्विवेदी ने कविता के बारे में प्रसाद जी को लंबा उपदेश दिया, यह बात उन्हें खल गई और उन्होंने महावीर प्रसाद द्विवेदी के संपादन में निकलने वाली पत्रिका सरस्वती में कभी रचनाएं नहीं भेजी।हालांकि महावीर प्रसाद द्विवेदी से उनका मिलना जुलना पूर्ववत् रहा।कामायनी का लज्जा सर्ग सुनकर द्विवेदी जी की आँखें भर आई थीं।
पहलवानी और वर्जिश प्रसाद जी का शौक था।वेअखाड़े में प्रतिदिन हजारों दंड बैठक करते और दही,दूध,घी वाली अच्छी खुराक लेते।
प्रसाद जी को मात्र ४७ वर्ष की अल्पायु मिली, लेकिन इसी अल्पायु में पारंपरिक व्यवसाय को सम्हालते हुए उन्होंने विपुल साहित्य सृजन किया।
पुस्तक में प्रसाद जी के जीवन को क्रमवार समझने के लिए दो-तीन पेज की संक्षिप्त जीवनवृत्त
की कमी खटकती है।
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