गुरुवार, 21 अगस्त 2025

हिंदी कविता का वर्त्तमान परिदृश्य

 


रासबिहारी पाण्डेय

पिछले पचास साठ वर्षों से छंदमुक्त कविता फैशन में है। पत्र-पत्रिकाओं और अकादमी पुरस्कारों में इसी को वरीयता दी जा रही है।केंद्रीय साहित्य अकादमी,दिल्ली ने  माखनलाल चतुर्वेदी रचित 'हिम तरंगिणी' के अलावा किसी  छंदबद्ध काव्य संकलन को पुरस्कार के योग्य नहीं समझा। सुमित्रानंदन पंत,हरिवंश राय बच्चन, रामदरश मिश्र, भवानी प्रसाद मिश्र जैसे छंद में लिखने वाले समर्थ रचनाकारों के भी उस संकलन को पुरस्कृत नहीं किया गया जो छंदबद्ध था,सायास उस काव्य संकलन को चुना गया जो छंद में नहीं है।प्रश्न यह है कि क्या पिछले 67 वर्षों में  हिंदी जगत में ऐसा कोई काव्य संकलन आया ही नहीं जो साहित्य अकादमी पुरस्कार के योग्य हो या निर्णायकों ने जानबूझकर एक रणनीति के तहत छंद वाली कविता की उपेक्षा की?दूसरी बात सच के ज्यादा करीब है।निश्चित रूप से छंद में ऐसी कई कृतियांआई हैं लेकिन अकादमी के निर्णायकों ने अपने पूर्वाग्रहों के कारण उन कृतियों को अनदेखा किया?श्याम नारायण पांडेय,भारतभूषण, सोम ठाकुर,सूर्यभानु गुप्त,सत्यनारायण, माहेश्वर तिवारी, बुद्धिनाथ मिश्र,उमाकांत मालवीय,श्रीकृष्ण तिवारी,कैलाश गौतम समेत अन्य कई महत्त्वपूर्ण कवि हैं जिनके काव्य संकलन साहित्य अकादमी पुरस्कार के योग्य हैं।इन संकलनों की रचनाएं जनमानस में लोकप्रिय भी हैं। त्रिलोचन की एक कविता है_
दौड़ दौड़ कर असमय-समय न आगे आए 
वह कविता क्या जो कोने में बैठ लजाए!
अकादमी से पुरस्कृत कृतियों के संस्करण कुछ हजार लोगों के बीच सिमट कर रह जाते हैं।सबसे बड़े राजकीय पुरस्कार से पुरस्कृत कृति को आम पाठक छूता भी नहीं क्योंकि यह उसके समझ से बाहर की चीज होती है मगर पाठ्यक्रमों में लगाकर इन्हें छात्रों को पढ़ने के लिए विवश किया जाता है।छात्र परिश्रम से इन कविताओं पर लंबी व्याख्यायें लिखते हैं और परीक्षा पास होने के बाद फिर जीवन भर पलट कर नहीं देखते।
साहित्य अकादमी पुरस्कार देते समय कई बार वरिष्ठता और कनिष्ठता  का क्रम भी भूल जाती है। नामवर सिंह को अपने गुरु हजारी प्रसाद द्विवेदी से दो वर्ष पूर्व ही साहित्यअकादमी पुरस्कार मिल गया था। साहित्य की लगभग सभी विधाओं में विपुल साहित्य रचने वाले रामदरश मिश्र से बहुत पहले मंगलेश डबराल, राजेश जोशी और वीरेन डंगवाल को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल चुका था।यही नहीं हिंदी के कई महत्वपूर्ण रचनाकारों को साहित्य अकादमी पुरस्कार के योग्य नहीं समझा गया लेकिन उनका साहित्यिक सम्मान इससे रंच मात्र भी कम नहीं हुआ।कोई भी पुरस्कार किसी रचना को बड़ा या छोटा नहीं बना सकता। 

अब कुछ बातें वाचिक परंपरा के हवाले से हिंदी कवि सम्मेलनों की कर लें।हिंदी कवियों के भुगतान के नाम पर  आजकल करोड़ों रुपए का लेनदेन हो रहा है।अधिकांश पैसा ब्लैक में लिया दिया जाता है।कमीशनखोरी चरम पर है। कवि सम्मेलनों में सक्रिय बहुत कम कवि ऐसे हैं जो साहित्यिक मानकों पर खरे उतरते हैं। यहाँ अधिकांश सतही रचनाकार होते हैं। आजकल समाज का बुद्धिजीवी कहा जाने वाला तबका भी इन्हें प्रश्रय देने लगा है।
जानी बैरागी और मुन्ना बैटरी जैसे नमूने सिर्फ मेले ठेले में नहीं जा रहे हैं,इन्हें मोरारी बापू जैसे संत भी भरपूर पैसा देकर नीचे बैठ कर सुन रहे हैं। अब इन्हें कौन समझाए?देखादेखी अनेक यज्ञ मंडपों में भी तथाकथित हास्य कवि सम्मेलन होने लगे हैं।
अखबारों के वार्षिक आयोजन कभी समकालीन साहित्य की नुमाइंदगी करते थे,वरिष्ठ साहित्यकार / पत्रकार यहां मुख्य अतिथि हुआ करते थे,लेकिन अब यहां एहसान कुरेशी जैसे कॉमेडियन ससम्मान बुलाये जा रहे हैं।
 उत्तर प्रदेश और बिहार में कई समाचार पत्र कवि सम्मेलनों की सीरीज चलाते हैं जिसमें सात आठ कवियों से  एक साथ आठ दस कवि सम्मेलनों के लिए लाखों का कांट्रेक्ट किया जाता है,यहां भी लतीफेबाजों को प्रवेश मिल जाता है। स्तरीय हास्य व्यंग्य लिखने वालों को नॉन कमर्शियल कहके छांट दिया जाता है। जो संत और समाचारपत्र सामाजिक बुराइयों को दूर करने की वकालत करते हैं , वे अपने गिरेबान में खुद भी तो झांककर देखें!
कवि सम्मेलनों में प्रदूषण के जिम्मेदार सिर्फ लतीफेबाज और भड़ैत ही नहीं है बल्कि इससे अधिक जिम्मेदार वे संयोजक और अधिकारी / व्यापारी हैं जिन्हें चुटकुले सुनने में ज्यादा मजा आता है।वे कवियों से दांत निपोरते हैं कि भैया हास्य कवि सम्मेलन कराइये ...ज्यादा से ज्यादा हास्य कवियों को बुलाइए। ऐसी कवयित्री को बुलाइए जो डबल मीनिंग बातें करने के साथ साथ गुप्त मनोरंजन भी कर सके। आजकल दलाल हर जगह सक्रिय हैं ,उनकी मांगें आसानी से पूरी कर देते हैं।वे बेशर्मी से कहते भी हैं कि हम नहीं करेंगे तो कोई और कर देगा तो फिर हम यह मौका क्यों गँवाएं?
कुछ संयोजकों से मैंने पूछा कि अगर आपको स्टैंडअप कॉमेडियन जैसा ही मनोरंजन चाहिए तो फिर सीधे-सीधे उन्हें ही क्यों नहीं बुलाते ?उनका जवाब होता है कि भाई साहब वे बहुत महंगे पड़ते हैं, हमारा इतना बजट नहीं होता। संयोजकों की बढ़ती डिमांड के कारण बरसात में खरपतवार की तरह गली गली हास्य कवि पैदा हो गए क्योंकि उन्हें बस चुटकुलों की सीरीज बनानी थी। लड़कियों ने रचनाधर्मिता को  समय देने की बजाय देह बेचना शुरू कर दिया,क्योंकि उन्हें रातोंरात अमीर बनना था;नाम और दाम कमाना था। वे मंच पर नौटंकी वाली हरकतें करने लगीं। कवि जोकरों सी हरकतें करने लगे।वाणी की वेश्यावृत्ति  का नया ट्रेंड शुरू हो गया।
ये फूले फूले फिरने लगे कि हम तो बहुत बड़े सेलीब्रिटी हो गए हैं। 
 कवि सम्मेलनों में धड़ल्ले से दूसरे की रचनाएं पढ़ने वालों की तादाद पहले की अपेक्षा अधिक हो गई है। रचनाओं के लिए पहले ऐसे जीव काव्य संग्रहों के भरोसे रहते थे मगर फेसबुक, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम आदि आ जाने के बाद उनके लिए  ज्यादे आसानी हो गई है। सोशल मीडिया से चुराई हुई रचनाएं ये लोग अपने नाम से समारोहों में न सिर्फ प्रस्तुत करने लगे हैं बल्कि हूबहू या थोड़ा हेर फेर करके कविता संग्रहों में छपाने भी लगे हैं। दिल्ली,कोलकाता या सुदूर किसी ग्रामीण अंचल में बैठे किसी कवि को क्या पता कि किसी दूसरे शहर में उसकी लिखी कविता कौन सुना रहा है या अपने नाम से काव्य संग्रह में छपा रहा है?
फेसबुक से चुरा कर फेसबुक पर ही पोस्ट करने वालों की भी अच्छी खासी संख्या है। पिछले दिनों एक लेखिका ने फेसबुक से एक लेखक की पोस्ट हूबहू उठाकर हंस पत्रिका में कहानी के रूप में छपा ली। भारी लानत मलामत के बावजूद उसने अपनी गलती नहीं स्वीकार की। राहत इंदौरी ने कभी एक शेर कहा था-
'मेरे कारोबार में सबने बड़ी इमदाद की 
दाद लोगों की, गला अपना, गजल उस्ताद की।'
ऐसे भी दु:साहसी भरे पड़े हैं कि मूल रचनाकार के सामने ही उसकी रचना सुना देंते हैं।इस हादसे से बड़े-बड़े रचनाकार रूबरू हो चुके हैं।फिराक  गोरखपुरी के सामने ही एक युवा शायर ने जब उनका कलाम सुनाया तो फिराक ने टोका- बरखुरदार!तुमने अपने नाम से मेरा कलाम कैसे सुना दिया? शायर ने कहा-  कभी-कभी खयालात टकरा जाते हैं फिराक साहब।
 फिराक ने कहा-' साइकिल से साइकिल तो टकरा सकती है लेकिन साइकिल से हवाई जहाज नहीं टकरा सकता।' इतना मारक जुमला सुनकर शायर पानी पानी हो गया।
 उर्दू में दो तरह की चोरी मानी गई है। पहले को सरका और दूसरे को तवारुद कहते हैं। जब किसी की रचना हूबहू चुरा ली जाए तो उसे सरका और थोड़ा घालमेल के साथ प्रस्तुत की जाय तो उसे तवारुद कहते हैं।ऐसे कवियों को लोग चरबा करने वाला शायर भी कहते हैं।मंच से अतिरिक्त ध्यान और सम्मान पाने के लिए कुछ कवि/ शायर पीएचडी न होने के बावजूद स्वघोषित डॉक्टर बन जाते हैं।ये अपने कुछ चेले भी पाल कर रखते हैं जो मंच के नीचे से उन्हें वाह डॉ. साहब,वाह डॉ.साहब की आवाज लगा कर दाद दिया करते हैं। किसी वरिष्ठ कवि ने डॉक्टरेट के बारे में पूछने की गुस्ताखी कर दी तो उससे उलझ जाएंगे या फिर कोई झूठ गढ़कर सुना देंगे- फलां यूनिवर्सिटी ने मुझे मानद डिग्री प्रदान की है।
हिंदी उर्दू कवि सम्मेलन /मुशायरों के मंच पर अनेक कवयित्रियां ऐसी हैं जिनके पास अपना कलाम नहीं है। लिखने का काम उनके उस्ताद या प्रेमी करते हैं,सज संवर कर नाजो अदा से सुनाने का काम उनका होता है।कवियों  और संचालकों के साथ उनका उत्तर प्रति उत्तर ऐसा होता है कि बड़े-बड़े कव्वाल शर्मा जाएँ। वाणी की वेश्यावृत्ति इसे ही कहते हैं। इनमें से कई इतनी शातिर हैं कि हिंदी उर्दू की मजलिसें चला रही हैं और उसके नाम पर अच्छा खासा चंदा भी वसूल रही हैं। इनकी असलियत जानने के बावजूद नई पुरानी उम्र के अधिकांश कवि शायर नजदीकियां बनाये रहने को न सिर्फ आतुर रहते हैं बल्कि उनके प्रोमोशन और उत्साहवर्द्धन में भी लगे रहते हैं। कभी विकल साकेती ने कहा था- 
भौरों से गीत लेकर कलियां सुना रही हैं
रसपान करने वाले रसपान कर रहे हैं।
समाज के कर्णधारों की यह जिम्मेदारी बनती है कि बरसात में खर पतवार की तरह उग आये इन नकली कवि शायरों को इनकी औकात बताएं और समाज को साहित्यिक प्रदूषण से बचाएँ।
 कुछ लोगों का कहना है कि  ये भड़ैत और लतीफेबाज  मंचों पर इसलिए काबिज हैं क्योंकि  जनता का भरपूर मनोरंजन करते हैं। साहित्यिक कवि जनता का मनोरंजन करने में सफल नहीं होते, इसलिए उन्हें नहीं बुलाया जाता। मैं उनसे निवेदन करना चाहता हूं कि वे अपनी धारणा बदलें। कविता का उद्देश्य सिर्फ मनोरंजन नहीं होता, मनोरंजन के साथ-साथ वह हमें बेहतर मनुष्य बनने के लिए भी प्रेरित करती है। देश और समाज में फैली कुरीतियों से भी लड़ने का जज्बा देती है।साहित्यिक कवियों को मंचों पर नहीं बुलाया जाता है या वे सफल नहीं होते हैं,ऐसा बिलकुल नहीं है,लेकिन उस मात्रा में उन्हें नहीं बुलाया जाता इसलिए वे लोगों की नजर में नहीं हैं।चूंकि उन्होंने कविता को व्यापार नहीं बना रखा है और  दिन रात अपनी मार्केटिंग में नहीं लगे रहते, संयोजकों और कारपोरेट की दलाली  नहीं करते,लोग जब खुद संपर्क करते हैं तभी जाते हैं,इसलिए  वे उस तरह विज्ञापित नहीं हैं जिस तरह  नदी में उतराते हुए मुर्दे की तरह ये काव्यद्रोही दिखते हैं। सरकारी,गैर सरकारी उपक्रमों में जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों को इन कवियों को चिन्हित कर उन्हें बुलाना चाहिए और काव्य मंचों को प्रदूषण से दूर करना चाहिए। उदाहरण के तौर पर मैं कुछ नाम दे रहा हूं जिन्हें मैंने शुद्ध साहित्यक या भीड़ भरे कवि सम्मेलनों में भी कभी असफल होते नहीं देखा।जनता उन्हें भरपूर सराहती है।ये वे नाम हैं जो मुझे तत्काल याद आ रहे हैं, इससे इतर भी अनेक नाम ऐसे हैं जो कविता की कसौटी पर खरे उतरते हैं और काव्य मंचों पर भी भरपूर सफल होते हैं लेकिन गुटबाजी की वजह से उन्हें दरकिनार कर दिया जाता है। हर जिले और राज्य से ऐसे कवियों को आगे लाने की जरूरत है। इस सूची में आप अपनी तरफ से भी कुछ नाम जोड़ें  और काव्य मंच शुचिता के इस यज्ञ में अपनी आहुति डालें- 
नरेश सक्सेना , बुद्धिनाथ मिश्र,शिवओम अंबर,उदय प्रताप सिंह,गोविंद व्यास,दीक्षित दनकौरी,डॉ.सुरेश,नरेश कात्यायन,लक्ष्मी शंकर बाजपेयी,जमुना प्रसाद उपाध्याय,मंगल नसीम,रमेश शर्मा,गणेश गंभीर आदि और 
कवयित्रियों में दीप्ति मिश्र, प्रज्ञा विकास,रचना तिवारी, भावना तिवारी,रुचि चतुर्वेदी,भूमिका जैन,दीपशिखा सागर,सोनी सुगंधा,शिवा त्रिपाठी आदि की सहभागिता किसी भी कवि सम्मेलन की सफलता की गारंटी मानी जा सकती है।
एक सज्जन है जो आजकल खुद को युग कवि कहने लगे हैं । कवि सम्मेलनों को बिगाड़ने में इनका भी बहुत बड़ा हाथ है। इनको कौन समझाए कि एक युग में कई शताब्दियां शामिल होती हैं।अपनी खुशी के लिए हम मान भी लें तो 
हमारे युग कवि पंत,प्रसाद, निराला, दिनकर और बच्चन जैसे कवि हैं। हर पंक्ति के बाद चुटकुले सुनाने वाले व्यक्ति को तो कवि का भी दर्जा नहीं दिया जा सकता, उसे तो शुद्ध स्टैंड अप कॉमेडियन कहा जाता है।ये महोदय
बाबा की खाल ओढ़ कर देश के तमाम कवियों की कविताएं नाम लिए या न लिए बिना सुना कर दोनों हाथों से पैसा बटोर रहे हैं।
ऐसी कौन सी भावना है जिसे सूर,तुलसी, कबीर,मीरा,रैदास आदि ने  अपनी रचनाओं में व्यक्त नहीं किया है। धर्मग्रंथों और भक्त कवियों की रचनाओं के अध्ययन के लिए पर्याप्त समय चाहिए मगर कथा के व्यापारी के पास इतना
समय कहां ? दुख तो इस बात का है कि हिंदी के तमाम स्थापित कवि ऐसी हरकत का विरोध करने की बजाय मौन साधे हुए हैं। 
कवि सम्मेलनों में फूहड़ फिल्मी गीतों की तर्ज पर पैरोडी सुनते हुए ऐसा लगता है जैसे कानों में शीशा पिघलाया जा रहा हो किंतु संचालक न सिर्फ खुद  वाह वाह कर रहा होता है बल्कि पब्लिक को भी तालियां बजाने के लिए उकसाने में लगा रहता है। पब्लिक को यहां तक कहा जाता है कि अभी ताली नहीं बजायी तो अगले जन्म में घर-घर जाकर बजाना पड़ेगा, यानी अगले जन्म में हिजड़ा बनोगे ....तो भी लोग ही ही ही ही करते रहते हैं। इससे श्रोताओं के स्तर का भी पता चल जाता है।इधर एक वीडियो किसी ने भेजा- कोई कवयित्री ' झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में 'की तर्ज पर एक पैरोडी सुना रही थी...तथाकथित युग कवि जिन्हें अधिकांश लोग आजकल चुग कवि कहने लगे हैं, उछल उछल कर ताल देते हुए कह रहे थे....फिर क्या हुआ? वीभत्सता चरम पर थी।
ग़लिब का शेर याद आता है....
काबे किस मुँह से जाओगे ग़ालिब 
शर्म तुमको मगर नहीं आती !
 आपने गौर किया होगा कि आज के कवि सम्मेलनों में  देश की नामचीन हस्तियां और ब्यूरोक्रेट आने से परहेज करते हैं,जबकि ये संगीत समारोहों और कला महोत्सवो में खूब जाते हैं। अपने जमाने में  प्रधानमंत्री रहते हुए जवाहर लाल नेहरू,इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने भी बैठकर कवि सम्मेलन सुने हैं। धीरे-धीरे ऐसा दौर आया कि केंद्रीय मंत्रियों को छोड़िए विधायक और नगरसेवक भी कवि सम्मेलनों में जाने से कतराने लगे। इसका कारण पता है आपको ...कवि सम्मेलनों में कविता के नाम पर पैरोडियां और लतीफे सुनाये जाने लगे। यही नहीं कोई दो कौड़ी का रचनाकार भी बड़ी से बड़ी शख्सियत की टोपी उछालने लगा और उसके नाम से झूठे लतीफे गढ़ने लगा। विवादों से बचने के लिए ये हस्तियां इनसे किनारा करने लगीं।कुछ ऐसी घटनाएं हुईं कि उनके चमचों ने कवि की खूब लानत मलामत भी की। कवियों, आयोजकों और पूरे समाज की यह जिम्मेवारी बनती है कि कवि के वेश में ऐसे बदतमीज और घटिया रचनाकारों को आने से रोकें और  सरस्वती के इस पावन मंदिर को दूषित होने से बचाएं।

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