रासबिहारी पाण्डेय
हिंदी की विभिन्न साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में इधर के कुछ वर्षों में स्त्री विमर्श के नाम पर जो कुछ बातें होती रहीं हैं,उनमें प्रमुखत: स्त्री के प्रति समाज, समुदाय, धर्म एवं पुरुषों के दृष्टिकोण की ही चर्चा ज्यादातर रही है। इनमें यदि कहीं स्त्री के व्यक्तिगत दोष या कमी की बात आई भी है तो उसे भी पुरुष वर्चस्वता के खाते में डाल दिया गया है- जैसे बहू के प्रति सास का अन्यायपूर्ण क्रूर बर्ताव या दहेज हत्या। कहा गया कि ऐसे कृत्य सासें या ननदें अपने जेठों, देवरों,पतियों, भाइयों आदि पुरुषों के बहकावे या धमकियों से मजबूर होकर ही करने को विवश होती हैं। स्त्री की कमजोर आर्थिक स्थिति की भी चर्चा हुई है।इन सब बातों के साथ ही स्त्री विमर्श का दायरा पिछले कुछ वर्षों में व्यक्तिगत आरोपों-प्रत्यारोपों और लांछनाओं तक भी जा पहुंचा है।लेकिन इस समूची समस्या की जड़ में समाहित एक और अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू की ओर ध्यान देना अति आवश्यक है, वह यह कि अपनी कुछ क्षुद्र महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए कुछ स्त्रियां समाज के आगे खुद स्वयं को किस तरह एक बाजारू एवं बिकाऊ वस्तु की समझौता के शर्त के तौर पर पेश करती हैं। मैं विज्ञापन जगत और फिल्म इंडस्ट्री की मॉडल और अभिनेत्रियों की बात नहीं कर रहा, कॉल गर्ल्स या वेश्याओं की भी नहीं,ये तो पूंजीवादी सामाजिक व्यवस्था की अभिन्न अंग हैं।मैं अशिक्षिताओं और गरीबी रेखा के नीचे जीने को विवश महिलाओं की भी बात नहीं कर रहा, बल्कि मध्यमवर्गीय- उच्च वर्गीय कुछ उन महिलाओं की बात कर रहा हूं जो पर्याप्त पढ़ी लिखी हैं,नौकरीशुदा या उपार्जनक्षम हैं लेकिन निहायत गैरजरूरी और क्षुद्र महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए नारी की गरिमा को गिराने वाले कृत्य पूरी योजना बद्धता के साथ चौकस होकर कर रही हैं।पुरुष स्त्री पर कितने अत्याचार करता है, उसके विकास में कितना बाधक होता है,इस मुद्दे पर मोटी मोटी पुस्तकें
लिखने और शोध करने वाली
कुछ महिलाएं यश और धन की लिप्सा में अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा दांव पर लगाने में कोई संकोच नहीं करतीं बल्कि गाहे-ब-गाहे इसका सार्वजनिक रूप से प्रदर्शन करके इतराती फिरती हैं।स्त्री विमर्श का आशय स्त्री चरित्र से या फिर त्रिया चरित्र से बिल्कुल नहीं,स्त्री जैसी भी हो समाज में उसकी स्थिति से है। उसके प्रति किए जा रहे अन्याय अत्याचार से है। उसकी दोयम दर्जे की हालत से है, लेकिन यह भी सच है कि इन सभी बातों पर भी यानी स्त्री के समग्र विकास, समूचे उन्नयन पर भी उपरोक्त मानसिकता वाली स्त्रियों के कार्यकलाप का नकारात्मक प्रभाव पड़ता ही है।पहले से ही बहुत बहुत बिगड़ी पुरुष मानसिकता ऐसी महिलाओं की वजह से और बिगड़ती है और समाज में स्त्री की छवि दूषित होती है।देश के तमाम महानगरों, नगरों, कस्बों में साहित्य के साथ ही विभिन्न कलाओं राजनीति आदि सभी क्षेत्रों में यह दृष्टिगत होता है। महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान,आशापूर्णा देवी,महाश्वेता देवी आदि को सीढियों की जरूरत नहीं पड़ी। कृष्णा सोबती,मन्नू भंडारी को बैसाखियों की जरूरत नहीं पड़ी, बल्कि इन्होंने अपने आसपास के परजीवियों को झाड़ बुहार कर निकाल फेंका। मात्र अपनी प्रतिभा, मेहनत और सच्चाई के बल पर खड़ी रहीं। पुरुष प्रधान समाज में भी नारी गरिमा का दायित्व स्वयं नारी के ही हाथों में है।जो अपना सम्मान स्वयं नहीं करते,दुनिया आगे बढकर उनका सम्मान कभी नहीं करती।
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