बुधवार, 20 अगस्त 2025

गोस्वामी तुलसीदास और उनकी रचनाएँ




-रासबिहारी पाण्डेय


गोस्वामी तुलसीदास का जन्म संवत् 1554 की श्रावण शुक्ल सप्तमी को प्रयागराज के पास चित्रकूट जिले के राजापुर नामक ग्राम में आत्माराम दुबे नाम के एक प्रतिष्ठित सरयूपारीण ब्राह्मण के पुत्र के रूप में हुआ. उनकी माता का नाम हुलसी था .दुर्भाग्यवश उनके जन्म के दूसरे ही दिन उनकी माताजी इस धरा धाम से चल बसी . उस घर की दासी चुनिया ने उनका पालन पोषण किया .जब तुलसीदास लगभग साढे 5 वर्ष के हुए तो चुनिया का भी देहांत हो गया .तुलसीदास यत्र तत्र भटकने लगे . कवितावली में अपने बचपन की दारुण अवस्था का उल्लेख करते हुए लिखते हैं -

माता-पिता जग जाइ तज्यो 

विधिहू न लिखी कछू भाल भलाई 

नीच निरादर भाजन कादर 

कूकर टूकन लागि लगाई 

रामशैल पर रहने वाले श्री अनंतानंद के शिष्य नरहर्यानंद ने इस बालक का नाम रामबोला रखा और यज्ञोपवीत संस्कार करने के पश्चात राम मंत्र की दीक्षा दी .गुरु नरहर्यानंद अयोध्या में अपने संरक्षण में रखते हुए उन्हें विद्या अध्ययन कराने लगे.कुछ समय पश्चात गुरु शिष्य शूकर क्षेत्र आए . वहां नरहर्यानंद जी ने श्री राम की कथा सुनाई .

रामचरिमानस में इसका जिक्र करते हुए वे लिखते हैं -

मैं पुनि निज गुर सुनी कथा सो सूकरखेत

समुझी नहिं तस बालपन तब अति रहेउँ अचेत


शूकरक्षेत्र से गोस्वामी जी काशी चले आए और संत सनातन के पास रहकर लगभग 15 वर्षों तक वेद वेदांगों का अध्ययन किया. विद्या अध्ययन के पश्चात वे अपनी जन्मभूमि राजापुर आए और यहां अपने पिता का विधिवत श्राद्ध करने के बाद जन समाज को राम कथा का रसपान कराने लगे .

संवत1583 जेष्ठ शुक्ल त्रयोदशी गुरुवार को भारद्वाज गोत्र में उत्पन्न रत्नावली नाम की एक सुंदर कन्या से उनका पाणिग्रहण संस्कार संपन्न हुआ. माता पिता और परिजनों के प्रेम से वंचित गोस्वामी तुलसीदास को पहली बार प्रेम का मधुर संस्पर्श मिला. कहते हैं कि एक बार जब उनसे पूछे बिना रत्नावली अपने मायके चली गईं तो उनका वियोग न सह सकने के कारण रात के अंधेरे में नदी पार कर पीछे पीछे वे स्वयं भी ससुराल पहुंच गए .रत्नावली को इसका बहुत क्षोभ हुआ. उसने कठोर शब्दों में उन्हें धिक्कारा और कहा 

हाड़ मांस मय देह मम तामें ऐसी प्रीति

 वैसी जो श्रीराम में होत न भव भय भीत 


तुलसीदास को पत्नी के वचन चुभ गए .

वे वहां से चल दिए.इस प्रसंग का वर्णन करते हुए प्रियादास लिखती हैं -


तियो सो सनेह बिन पूछे पिता गेह गई 

भूली सुधि देह भजे वाही ठौरआए हैं 

वधू अति लाज भई रिस सो निकस गई 

प्रीति राम नई तन हाड़ चाम छाए हैं 

सुनी जब बात मानो ह्वै गयो प्रभात 

वह पाछे पछतात तजि  काशीपुरी धाए हैं 

कियौ तहाँ वास प्रभु सेवा लै प्रकाश कीनौ

लीनौ दृढ़ भाव नैन रूप के तिसाए हैं 



गृहस्थ वेश का त्याग कर साधु वेश में तीर्थाटन करते हुए वे काशी पहुंचे ।


संवत 1631 में गोस्वामी जी ने रामचरितमानस का लेखन अयोध्या में प्रारंभ किया।कहा जाता है कि पहले वे मानस की रचना संस्कृत में करना चाहते थे लेकिन संस्कृत के जिन श्लोकों की रचना वे दिन में किया करते ,रात में वे गायब मिलते ।एक दिन भगवान शंकर ने उन्हें स्वप्न में कहा कि तुम ग्राम्य भाषा में रामचरित का वर्णन करो ।भगवान शंकर की प्रेरणा से उन्होंने अवधी  में इस ग्रंथ का प्रणयन प्रारंभ किया।मानस की चौपाई के अनुसार -

संवत सोरह सौ एकतीसा ।

रकरउँ कथा हरिपद धरि सीसा।।

 दो वर्ष 7 महीने 26 दिन में यह ग्रंथ संवत 1633 के मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष को  पूर्ण हुआ।सहज सरल भाषा में होने के कारण जब काव्य अति लोकप्रिय होने लगा तो काशी के पंडितों ने संस्कृत की बजाय ग्राम्य भाषा में लिखा होने का हवाला देकर गोस्वामी जी के विरुद्ध कफी षड्यंत्र प्रारंभ कर दिया। पुस्तक को नष्ट करने का भी प्रयास किया गया। डरे हुए गोस्वामी तुलसी दास ने तब पुस्तक को अपने मित्र और काशी के जमींदार टोडरमल के पास  रखा।

विवाद सुलझाने के लिए सर्वसम्मति से एक रात्रि को पुस्तक विश्वनाथ मंदिर में रखी गई। सुबह जब पट खुला तो पुस्तक के ऊपर लिखा पाया गया-  सत्यम् शिवम सुंदरम।तब शर्मिंदा होकर पंडितों ने ग्रंथ की महत्ता को स्वीकार कर लिया।

गोस्वामी तुलसीदास की विद्वत्ता और लोकप्रियता से प्रभावित होकर बादशाह अकबर ने टोडरमल के के जरिये उन्हें अपने दरबार में मनसबदार बनाने का प्रस्ताव भेजा था लेकिन उन्होंने यह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया था।इस घटना से संबंधित उनका दोहा अत्यंत प्रसिद्ध है- 

हौं चाकर रघुवीर कौ पटौ लिख्यो दरबार

तुलसी अब का होइहें नर के मनसबदार।

गोस्वामी जी ने अपने जीवनकाल में बारह ग्रंथों की रचना की - रामलला नहछू, वैराग्य संदीपनी, बरवै रामायण ,पार्वती मंगल ,जानकी मंगल ,रामाज्ञा प्रश्न, दोहावली, कवितावली, गीतावली ,कृष्ण गीतावली, रामचरितमानस और विनय पत्रिका।

नहछू एक प्रकार का संस्कार है जो  विवाह संस्कार के समय होता है।इस अवसर पर मंगल गीत गाए जाने की अत्यंत प्राचीन परंपरा है ।रामलला नहछू चार चरण वाले बीस छंदों की एक छोटी सी कृति है ।इस कृति में रामविवाह के समय अयोध्या के उल्लासमय वातावरण का अत्यंत अद्भुत चित्रण है नहछू संस्कार में नाउन की विशिष्ट भूमिका होती है उसी द्वारा सारे अनुष्ठान का संपादन होता है ।गोस्वामी जी ने 11छंदों में नाउन के साज श्रृंगार हावभाव हास परिहास और अन्य विभिन्न कार्यों का वर्णन किया है ।नाउन से संबंधित वर्णन के पश्चात निछावर का वर्णन है और अंत में ग्रंथ की फलश्रुति है


नहछू के बाद की कृति वैराग्य संदीपनी मानी जाती है ।इसमें कुल 62 पद हैं जिनमें 46दोहे 2सोरठेऔर 14 चौपाईयां हैं ।इसमें अवधी और ब्रजभाषा का मिला जुला रूप है ।तुलसीदास इसके बारे में लिखते हैं -

तुलसी वेद पुराण मत पूरन शास्त्र विचार 

यह विरोग संदीपनी अखिल ज्ञान को सार 


इस कृति में वैराग्य का निरूपण और उससे मिलने वाली शांति की विवेचना है। संतो के विशेष लक्षण और गुणों का भी वर्णन किया गया है

बरवै रामायण 69 बरवै छंदों की एक कृति है ।इसमें रामचरितमानस की भांति कांडों में कथा लिखी गई है। बालकांड में 19 ,अयोध्या कांड में आठ अरण्यकांड में 6,किष्किंधाकांड में दो ,सुंदर कांड में एक और उत्तरकांड में 27 छंद हैं।यह प्रबंध काव्य न होकर गोस्वामी जी द्वारा जब तब अपनी मौज में लिखे गये छंद हैं जिन्हें प्रसंगानुसार कांडों में पिरो दिया गया है।

पार्वती मंगल 90 छंदों का एक लघु खंडकाव्य है इसमें अवधी में लिखे गए 74 मंगल सोहर और 16 हरिगीतिका छंदों का समावेश है ।पार्वती के जन्म के समय हिमालय और मैना के उल्लास, विवाह योग्य हो जाने पर पार्वती के रूप और गुण का वर्णन, अनुकूल वर की प्राप्ति के लिए नारद जी का शिव उपासना का परामर्श ,पार्वती की तपस्या ,र ति के करुण विलाप से द्रवित शिव का वरदान ,माता पिता के रोकने पर भी पार्वती द्वारा तपस्या ,पार्वती के तप से प्रभावित शिव का ब्रह्मचारी वेश में आना ,शिव पार्वती के विवाह की तैयारी ,हिमवान के यहां सभी नदी तालाब पर्वत आदि का एकत्र होना ,शिव का विवाह के लिए आना, परिछन,आरती ,शाखोच्चार कन्यादान ,हवन ,कोहबर आदि लोक रीतियों का संपन्न होना ,देवताओं द्वारा पुष्प वृष्टि और पार्वती को विदा कराकर शिव जी के कैलाश जाने का विशद वर्णन है ।इस कथा का आधार कालिदास कृत कुमारसंभव माना गया है ।

 जानकी मंगल अवधी में लिखी गई एक प्रबंध रचना है ।इसमें प्रमुख रूप से सीता राम विवाह का वर्णन है ।इसमें 96 मंगल सोहर और 24 हरिगीतिका छंदोंका समावेश है।

 रामाज्ञा प्रश्न ब्रज भाषा में लिखा गया है ।यह दोहा छंद में है ।पूरी कृति सात सर्गों  में विभाजित है ।कहा जाता है कि काशी के राजकुमार शिकार पर गए थे। समय पर नहीं लौटे तो राजा को चिंता हुई कि वे किसी संकट में फंस गए हैं ।राजा ने ज्योतिषी गंगाराम को बुलाकर ज्योतिष के आधार पर राजकुमार का समाचार जानना चाहा और कहा कि यदि उनकी बात सच हुई तो उन्हें पुरस्कार दिया जाएगा और यदि झूठ हुई तो कठोर कारावास ।अपने मित्र ज्योतिषी गंगाराम को संकट से उबारने के लिए गोस्वामी जी ने शकुन विचार वाले इस ग्रंथ की रचना की ।इसी ग्रंथ के आधार पर गंगा राम ने दूसरे दिन राजकुमार के सकुशल लौट आने की भविष्यवाणी की। तदनुसार राजकुमार के आने पर गंगाराम को एक लाख मुद्राओं का पुरस्कार दिया गया ।गंगाराम के बहुत आग्रह करने पर उसमे से गोस्वामी जी ने केवल 10000 मुद्राएं ली और उस धनराशि से दक्षिणाभिमुख हनुमानजी के 10 मंदिर बनवाए।

दोहावली भी ब्रज भाषा में लिखी गई है इसमें 573 दोहा और सोरठा छदोंं का संग्रह है ।इसमें वैराग्य संदीपनी ,रामाज्ञा प्रश्न और रामचरितमानस के भी कुछ दोहे चौपाइयों का समावेश कर लिया गया है ।ग्रंथ में विषय की विविधता है ।भक्ति, धर्म, नीति, प्रेम ,विवेक ,संत महिमा, नाम महिमा ,वेद मत शास्त्र मत आदि के बारे में गंभीर बातें की गयी हैं।

 कवितावली ब्रज भाषा में लिखित मुक्तक काव्य है ।इस कृति में कुल 369 छंद है कवितावली में रामचरितमानस के कतिपय चुने हुए प्रसंगों को ही काव्य का आधार बनाया गया है ।

गीतावली ब्रज भाषा में रचित मुक्तक गीतिकाव्य है रामचरितमानस की ही भांति इसे भी सात कांडों में विभाजित किया गया है ।विभिन्न राग रागिनियों पर आधारित इसमें 330 पद हैं। इसमें कोमल भाव वाले प्रसंगों को ही काव्य का आधार बनाया गया है करो कठोर भाव को छोड़ दिया गया है।

 कृष्ण गीतावली में कृष्ण की लीलाओं का वर्णन किया गया है ।यह संगीत के विभिन्न राग रागिनियों के आधार पर लिखा गया मुक्तक गीतों का संकलन है ।इस कृति में कुल 61 पद हैं । गोपियों की विरह अनुभूति ,प्रेम की प्रगाढ़ता और अनन्य भक्ति का अद्भुत वर्णन इन गीतों में हुआ है।विनय पत्रिका को गोस्वामी जीे रचित ग्रंथों में विशेष स्थान प्राप्त है ।इसे भी मुक्तक गीत काव्य ही कहा गया है आरंभ में  गणेश ,सूर्य ,शंकर ,दुर्गा , गंगा ,यमुना और हनुमान जी की स्तुति की गई है ।आनंदवन और चित्र वन के महत्व का वर्णन है  फिर राम के समीप लक्ष्मण भरत और शत्रुघ्न को प्रसन्न करने का प्रसंग है ।अंत में जग जननी सीता की वंदना की गई है़। इस कृति में 28 से अधिक राग रागिनियों के आधार पर पदों की  रचना की गयी है।मुहावरों ,कहावतों और जन समाज में प्रचलित उक्तियों के प्रयोग से यह काव्य बड़ा ही अनूठा बन पड़ा है। विनय पत्रिका  भक्ति रस का अद्भुत उदाहरण है।

 रामचरितमानस गोस्वामी तुलसीदास का सबसे लोकप्रिय ग्रंथ है इसमें चौपाइयों की संख्या 51000 और दोहों की संख्या 1074मानी गई है। कृति के बारे में स्वयं तुलसीदास कहते हैं - नाना पुराण निगमागम सम्मत यद् रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोपि

स्वांत: सुखाय तुलसीरघुनाथ गाथा भाषा निबंध मतिमंजुल मातनोति

 अर्थात्  अनेक पुराण,वेद और शास्त्र से सम्मत तथा जो रामायण में वर्णित है और कुछ अन्यत्र से भी उपलब्ध रघुनाथ की कथा को तुलसीदास अपने अंत:करण के सुख के लिए अत्यंत मनोहर भाषा रचना में विस्तृत करता है। मानस में गोस्वामी जी संस्कृत के शुद्ध तत्सम रूप से लेकर बोलियों के ठेठ शब्दों तक का प्रयोग किया है किंतु उनकी भाषा में जो रवानी है , वह कहीं भी पाठक के लिए बाधक नहीं बनती। गोस्वामी जी ने रस छंद और अलंकारों का अद्भुत प्रयोग किया है

 उनकी कृतियों में श्रृंगार, हास्य, करुण,रौद्र, भयानक ,वीभत्स,अद्भुत,शांत,भक्ति और वात्सल्य रसों का पूर्ण परिपाक मिलता है

.उनके दोहे,चौपाइयाँ और पद जनमानस से इस प्रकार एकाकार हो गये हैं कि लोग उन्हें सामान्य बातचीत में उदाहृत करते रहते हैं .लगभग500 वर्ष बीतने के बाद भी उनकी रचनायें जनमानस में प्रासंगिक बनी हुई हैं और भविष्य में भी उनके अप्रासंगिक होने का कोई कारण नहीं दिखता।

इसीलिए जनमानस के कंठहार तुलसीदास के लिए कहा गया है - कविता करके तुलसी न लसे,कविता लसी पा तुलसी की कला !


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