गुरुवार, 21 अगस्त 2025

हिंदी ग़ज़लों में सामाजिक चेतना


-रासबिहारी पाण्डेय

ग़ज़ल का उद्गम पर्शियन भाषा से माना जाता है. पर्शियन भाषा में ग़ज़ल का अर्थ है सुखन अज़ जनाना गुफ़्तन अर्थात् औरतों से अथवा औरतों के बारें में बातचीत करने का माध्यम. नाम के अनुरूप ग़ज़ल का विषय एक लंबे कालखंड तक इश्क-मोहब्बत तक ही सीमित रहा.लेकिन समय के साथ साथ ग़ज़ल के तेवर भी बदले और शायरों ने ग़ज़ल के शिल्प में सामाजिक सरोकारों से जुड़ी बातें रखना शुरू किया.आज की हिंदी ग़ज़ल में सामाजिक विषमता,राजनीतिक खोखलापन,किसानों मजदूरों का संघर्ष,आम आदमी की बेचारगी,ब्यवस्था की विसंगतियां आदि जीवन जगत के तमाम पक्ष व्यक्त हो रहे हैं.गज़ल अपने शब्दार्थ से निकल कर पूरी कायनात की हो चुकी है. इस तेवर की शुरूआत महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के इस शेर से मानी जा सकती है-

किनारा वो हमसे किये जा रहे हैं,

दिखाने को दर्शन दिये जा रहा हैं .

खुला भेद विजयी कहाये हुये जो

लहू दूसरों का पिये जा रहे हैं .

हिंदी ग़ज़ल में आधुनिक जीवन की जटिलताओं और नये बिम्बों के प्रयोग की वजह से दुष्यंत कुमार बहुत मशहूर हुये किन्तु बहुत कम लोगों को पता है कि उनसे पहले भी बलवीर सिंह रंग,विकल साकेती,बालस्वरूप राही,सूर्यभानु गुप्त आदि कवियों ने सहज हिंदी में आम जीवन की विसंगतियों को बहुत अच्छे शेरों में ढ़ाला .विकल साकेती के कुछ शेर देखें-

कोई हो गया है मेरा मेरी कल्पना से पहले

मेरा देवता मगन है मेरी वंदना से पहले

कहीं शीश क्या झुकाऊं कहीं हाथ क्या पसारूं

मुझे भीख मिल गई है मेरी याचना से पहले.

वरिष्ठ ग़ज़लकार सूर्यभानु गुप्त की ग़ज़लें मुंबई से प्रकाशित धर्मयुग पत्रिका के माध्यम से काफी चर्चित हुईं .नये तेवर से सजा उनका संकलन एक हाथ की ताली काफी प्रशंसित हुआ. आज की जिंदगी में पारस्परिक रिश्तों के यथार्थ को अपने शेरों कुछ यूं व्यक्त करते हैं –

हर लम्हा ज़िंदगी के पसीने से तंग हूं,

मैं भी किसी कमीज़ के कालर का रंग हूं

रिश्ते गुजर रहे हैं लिये दिन में बत्तियां,

मैं बीसवीं सदी की अंधेरी सुरंग हूं .

मांझा कोई यकीन के काबिल नहीं रहा

तनहाइयों के पेड़ से अँटकी पतंग हूं

ये किसका दस्तखत है बताये कोई मुझे

मैं अपना नाम लिखके अंगूठे सा दंग हूं.

कवि अपने फक्कड़पन को बड़े बेबाक अंदाज में बयान करता है-

जिनके अंदर चराग जलते हैं ,

घर से बाहर वही निकलते हैं .

बर्फ गिरते हैं जिन मकानों में

धूप के कारोबार चलते हैं.

खुदरसी उम्र भर भटकती है

लोग इतने पते बदलते हैं.

हम तो सूरज हैं सर्द मुल्कों के ,

मूड होता है तब निकलते हैं .

हिंदी ग़ज़ल की दुनिया में मील के पत्थर का दर्जा पानेवाले कवि दुष्यन्त कुमार राजनीतिक पतन से उपजे अपने असंतोष को शेरों में कुछ यूं ढ़ालते हैं-

एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है,

आज शायर यह तमाशा देखकर हैरान है .

फिसले जो इस जगह से तो लुढ़कते चले गये,

हमको पता नहीं था इतना ढ़लान है.

सुदर्शन फाकिर की अधुनातन ग़ज़लें बेगम अख्तर और जगजीत सिंह की गायकी के जरिये काफी मशहूर हुईं.

पत्थर के सनम, पत्थर के खुदा, पत्थर के ही इंसा पाये हैं

तुम शहरे मोहब्बत कहते हो, हम जान बचाके आये हैं

हम सोच रहे हैं मुद्दत से, अब उम्र गुजारें भी तो कहाँ

सहरा में खुशी के फूल नहीं, शहरों में गमों के साये हैं

निदा फाजली की ग़जलें अपने आधुनिक तेवर के लिये काफी मशहूर हुईं जो गुलाम अली और जगजीत सिंह जैसे गायकों की आवाज में पूरी दुनिया में सुनी गयीं-

सफर में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो

सभी हैं भीड़ में आगे निकल सको तो चलो

यहाँ किसी को रास्ता देता नहीं कोई

मुझे गिरा के अगर तुम सँभल सको तो चलो

राहत इंदौरी ने ग़ज़लो में काफी नये प्रयोग किये हैं .कुछ शेर देखें-

हमने खुद अपनी रहनुमाई की

और शोहरत हुई खुदाई की.

अब किसी की जबां नहीं खुलती

रस्म जारी है मुँहभराई की.

मैंने दुनिया से मुझसे दुनिया ने

सैकड़ों बार बेवफाई की. 

माँ बाप ,भाई बहन ,दोस्त दुश्मन..... जीवन से जुड़े सभी रिश्तों पर आज ग़ज़लें कही जा रही हैं .मुनव्वर राना ने माँ को विषय बनाकर सैकड़ों शेर कहे हैं .उनका यह शेर तो काफी मशहूर है-

किसी के हिस्से में मकाँ आया ,किसी के हिस्से में दुकाँ आयी

मैं घर में सबसे छोटा था ,मेरे हिस्से में माँ आयी .

हस्तीमल हस्ती ने अपनी ग़ज़लों में नये अंदाज में दिल को छू लेनेवाली बातें कही हैं-

जिस्म की बात नहीं है उनके दिल तक जाना था

लंबी दूरी तय करने में वक्त तो लगता है

हमने इलाजे जख्मे दिल ढ़ूँढ़ लिया लेकिन

गहरे जख्मों को भरने में वक्त तो लगता है.

बहुतेरी कार्यवाहियां सदन में जनप्रतिनिधियों के शोरोगुल और हठधर्मिता की वजह से लंबित रह जाती हैं .इस पीड़ा को वे एक शेर में कुछ यूं व्यक्त करते हैं-

मुझे लगता नहीं हालात पर कुछ बात भी होगी

अभी तो रहनुमा झगड़ेंगे बैठक मुल्तवी होगी.

समाज में बढ़ती जा रही असहिष्णुता और चाटुकारिता पर तंज करते हुये राजेन्द्र तिवारी कहते हैं-

दे मुझे कैद या रिहाई दे ,बेखता है तो क्या सफाई दे.

मुझको जीना है इस जमाने में ,या खुदा मुझको बेहयाई दे.  

भ्रूण हत्या और अपनी ही जनी संतानों के परायेपन की त्रासदी को कुछ यूं व्यक्त करते हैं शाहिद अंजुम -

पहले ससुराल पर इल्जाम था लेकिन अब तो

माँ तेरी कोंख में बेटी तेरी कट जाती है

अब तो माँ बाप भी मुल्कों की तरह मिलते हैं

सरहदों की तरह औलाद भी बँट जाती है

गाँवों के शहरीकरण और राजनीतिक व्यवस्था से उपजे असंतोष की ओर संकेत करते हुये संजय मासूम के शेर हैं-

जिसे देखो वही प्यासा खड़ा है,हमारा शहर है या कर्बला है

शहर में हो गया तब्दील शायद,यहां इक गाँव था जो लापता है.

अदम गोंडवी अपने शेरों के जरिये कौमी एकता की बात कुछ यूं करते हैं -

हिन्दू या मुसलिम के अहसासात को मत छेड़िये

अपनी कुर्सी के लिये जज्बात को मत छेड़िये .

हममें कोई हूण कोई शक कोई मंगोल है

दफ्न है जो बात अब उस बात को मत छेड़िये.

ग़ल्तियां बाबर की थीं जुम्मन का घर फिर क्यों जले

ऐसे नाजुक वक्त में हालत को मत छोड़िये.

है कहाँ हिटलर,हलाकू,जार या चंगेज खाँ

मिट गये सब कौम की औकात को मत छेड़िये.

छेड़िये इक जंग मिलजुलकर गरीबी के खिलाफ

दोस्त मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये . 

ग़ज़लों में नये प्रयोगों के साथ आनेवाले शायरों की एक लंबी फेहरिश्त है.सबको उद्धृत कर पाना मुश्किल ही नहीं असंभव है लेकिन यह खुशी की बात है कि इश्क मोहब्बत, जाम और सागरो मीना में एक लंबे अरसा तक फँसी रहने के बाद  ग़ज़ल आज जीवन की तल्ख सच्चाइयों के साथ खड़ी है.

   

  


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