रासबिहारी पाण्डेय
लोक चेतना को संस्कारित करने और जन जागरूकता के लिए कविता से बड़ा कोई साधन नहीं। इसीलिए कवि की तुलना प्रजापति ब्रह्मा से की गई है।
'अपारे काव्य संसारे कविरेव प्रजापतिः |
यथास्मै रोचते विश्वं तथेदं परिवर्तते ||
इस अपार काव्य संसार में कवि ही स्रष्टा ब्रह्मा
के समान माना जाता है क्योंकि जिस प्रकार ब्रह्मा अपनी इच्छा के अनुसार सृष्टि की रचना करते हैं उसी प्रकार कवि भी अपनी मति के अनुसार विश्व को ढ़ाल लेता है |
एक लोकोक्ति है- जहां न पहुंचे रवि,वहां पहुंचे कवि... जहां सूर्य की किरणें भी नहीं पहुंच सकतीं,कवि की दृष्टि वहां तक पहुंचती हैं।
कविता को समाज का आईना कहा गया है। आईने में वही चीजें दिखती हैं जो होती हैं लेकिन समाज में क्या क्या होना चाहिए ताकि समाज का सही स्वरूप बने,कवि और कविता हमारा ध्यान उस तरफ भी ले जाते हैं।
कविता समाज की न सिर्फ प्रतिछवि होती है बल्कि उसकी मृदुल आलोचना भी होती है।
कविता का स्वरूप हर युग में बदलता रहा है। उसकी सार्थकता- निरर्थकता पर भी गंभीर चिंतन मनन होता रहा है,लेकिन कविता समाज से कट कर कभी नहीं रही,वह हर युग में जनता के साथ जुड़ी रही है। कविता के प्रति बहुतेरे लोग एकांगी सोच के शिकार हैं, शायद इसलिए क्योंकि वे
उसकी परिभाषा और उद्देश्यों से अनजान हैं।अब तो 20वीं सदी से विशेष चर्चा में आई मुक्तछंद की कविता को ही मुख्यधारा की कविता माना जाने लगा है। साहित्य अकादमी समेत अनेक महत्वपूर्ण पुरस्कार इसी धारा के कवियों को मिलते हैं, हालांकि ऐसी कविताएं बहुत कम पाठकों और श्रोताओं तक पहुंच पाती हैं। इनका शिल्प, शैली और भाषा सब कुछ अलग ही होता है
पाठकों की उपेक्षा और विरलता के बावजूद मुक्त छंद के रचनाकारों के सर्वाधिक संकलन प्रकाशित हो रहे हैं। तथाकथित अकादमिक पत्रिकाओं में भी वही सबसे अधिक प्रकाशित हो रहे हैं। लेखक, पाठक और संपादक तीनों ही भूमिकाओं में वे स्वयं है।आमजन को केंद्र में रखकर लिखी जाने वाली उनकी कविताएं कवि कर्म की लचरता के कारण आम जनता तक पहुंच ही नहीं पाती हैं।
आलोक धन्वा, राजेश जोशी, नरेश सक्सेना जैसे चंद कवि ही ऐसे हैं जो छंदमुक्त कविता के साथ न्याय कर पाते हैं।
मंचों पर पढ़ी जाने वाली कविता सस्ती जनरुचि की ओर झुकी होने के कारण मात्र मनोरंजन का साधन बनकर रह गई है। तात्कालिक विषयों को नमक मिर्च और आग पानी के साथ प्रस्तुत करने और अभिनय प्रवणता के कारण मंचीय कवियों का बाजार भाव बहुत ऊंचा है। वे जमाने की नब्ज पकड़ने वाले कुशल सेल्समैन हैं। उनकी नजर भीड़ की तालियों और वाहवाही पर अंटकी होती है, इस उद्देश्य से वे इसी प्रकार की रचनाओं में संलग्न रहा करते हैं।यहां फूहड़ हास्य ही नहीं कहीं-कहीं भयंकर अश्लीलता भी नजर आती है।परिष्कृत रुचि के पाठकों और श्रोताओं के लिए मुश्किल यह है कि वे अपनी साहित्यिक भूख मिटाने कहां जाएं? विवश होकर उन्हें पुस्तकालयों और यूट्यूब की शरण में जाना पड़ता है क्योंकि मनचाही चीज वहीं पढ़ी या सुनी जा सकती है।यह समाधान तो उनके लिए है जो साहित्य की परंपरा से परिचित हैं।नई पीढ़ी के वे युवा जो साहित्य की गंभीरता से अनजान हैं,उनके अंदर साहित्य का संस्कार दे पाना मुश्किल होता जा रहा है क्योंकि सोशल मीडिया और मंचों के माध्यम से साहित्य के नाम पर परोसी जा रही सामग्री को ही वे असल साहित्य समझ बैठे हैं? हिंदी कविता का यह बदलता स्वरूप हिंदी जगत के लिए चिंतनीय है।
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