शनिवार, 27 सितंबर 2025

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि...आत्मा क्या है?

 नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक: |

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत: || 2.23||


न एनम् छिन्दन्ति शस्त्राणि... इस आत्मा में शस्त्र छेद नहीं कर सकते या काट नहीं सकते। 

न एनम् दहति पावकः ... इसको आग जला नहीं सकती है।

न च एनम् क्लेदयंति आप: ... ...इसे जल गला नहीं सकता है। 

न शोषयति मारुत: ... वायु इसे सुखा नहीं सकता है। 


आत्मा की विशेषता बताते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस आत्मा को शस्त्र काट या छेद नहीं सकता।इसको अग्नि जला नहीं सकती, जल इसे गला नहीं सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकता। 

अर्जुन को यह चिंता है कि सगे संबंधियों और वीरों की हत्या का निमित्त बनकर मैं पाप का भागी क्यों बनूं? इस शंका का समाधान करते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि आत्मा शरीर से बहुत ऊपर की चीज है। शस्त्रों में वह सामर्थ्य नहीं है कि इसे काट या छेद सकें। शरीर जिन तत्वों से बना है उनकी ओर संकेत करते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे  आत्मा का कुछ बिगाड़ नहीं सकते।

शस्त्र पृथ्वी तत्व है,यह काट नहीं सकता।अग्नि तत्व इसे जला नहीं सकता,जल तत्व गला नहीं सकता और वायु तत्व सुखा नहीं सकता यानी पृथ्वी अग्नि, जल और वायु में वह सामर्थ्य नहीं है कि आत्मा को नष्ट कर सके।यहां आकाश का नाम नहीं लिया गया है क्योंकि ये चारों तत्व आकाश से ही उत्पन्न होते हैं पर वे अपने कारणभूत आकाश को किसी तरह की क्षति नहीं पहुंचा सकते।जब यह आकाश को ही कोई क्षति नहीं पहुंचा सकते तो अदृश्य आत्मा तक कैसे पहुंच सकते हैं? देह के कट जाने पर भी देही नहीं कटता, देह के जल जाने पर भी देही नहीं जलता, देह के गल जाने पर भी देही नहीं गलता। देह के मर जाने पर भी देही नहीं मरता,बल्कि इससे निर्लिप्त रहता है। अतः हे अर्जुन! इस संबंध में शोक करना तुम्हारी नासमझी है, अज्ञान है। भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को यह बताना चाहते हैं कि पृथ्वी,जल, अग्नि और वायु से भी बलशाली आत्मा तुम्हारे पास है।आत्मा की विलक्षणता को समझो।तुम आत्मा के स्तर पर सोच ही नहीं पा रहे हो, बस शारीरिक ढांचा देख रहे हो। शरीर का कटना, जलना, गलना और सूखना संभव है, किंतु आत्मा इन सबसे परे है।

मार्च का वित्तीय प्रदूषण

 

-रासबिहारी पाण्डेय

31 मार्च अजीब शै है । एक तरह से यह सरकारी कार्यालयों के लिए दीवाली का दिन है, जिस दिन वर्ष भर के तमाम

खाते बही,हिसाब-किताब रद्द कर नये बना लिये जाते हैं।भूल-चूक लेनी देनी और शुभ-लाभ लिखकर फिर से

शुरू होता है सारा हिसाब किताब। सब कुछ व्यापारियों की तरह होता है,गणेश 

लक्ष्मी की पूजा कर लड्डू का भोग भर नहीं लगाया जाता। 

सरकारी खाते में एक लाख हो या एक करोड़, इस दिन तक येन-केन प्रकारेण समाप्त करना ही है । अगर खाते में धनराशि बची हुई दिखा दी गई तो अगले वर्ष उतना पैसा कम करके ही

नया बजट मिलेगा।आगे से उस रकम से अधिक मांगने का मुँह भी न रहेगा, इसलिए अधिकारियों को बहुत दिमाग

दौड़ाना पड़ता है कि बजट को किस तरह समाप्त किया जाए ताकि

अपनी जेब भी गर्म हो जाए और कागजी घोड़े पर काम भी आगे

दौड़ जाए । डरपोक किस्म के अधिकारी जहां मार्च तक

अपना बजट बचा कर धीरे-धीरे खर्च करने में यकीन रखते हैं, वहीं दादा टाइप पैरवी पहुंच वाले अधिकारी मार्च से पहले ही डब्बा गोल कर देते हैं,

साथ ही अपनी पहुंच के कारण अगले सत्र में बजट बढ़ा लेने में भी सफल रहते हैं।लाख दिमाग खपाने पर भी यह समझ में नहीं आता कि यह

बाध्यता क्यों रखी गई है ? हां सीधे सीधे यह जरूर समझ में आता

है कि अगर नियम ऐसा नहीं होगा तो इन ऑफिसों में काम करने

वालों की ऊपरी आमदनी (जिसे पान-फूल, भेंट बख्शीश के नाम से

जाना जाता है) जरूर प्रभावित हो सकती है । 31 मार्च का ही

प्रताप है कि सारा लेन-देन बराबर हो जाता है । ऐसे कुछ ही विभाग हैं,

जहाँ पैसे मार्च के बाद भी बचे रह जाता है, लेकिन ऐसा

तभी होता है जब संस्थान में एक से अधिक असंतुष्ट पाए जाते हैं ।

ये असंतुष्ट लोग न तो स्वयं पैसे खाते हैं, न ही दूसरों को खाने देते हैं ।

 उन संस्थानों में भी पैसे बचे रह जाते हैं, जिनमें कुछ घाघ किस्म के अधिकारी होते हैं । ये अधिकारी मौका देखकर

सारा माल अकेले हड़पने के चक्कर में रहते हैं। अक्सर इन्हें मौका

मिल भी जाता है, लेकिन मौका नहीं मिलता तो रकम धरी की धरी

रह जाती है । उप और सहायक अधिकारी ताक झांक करते रह

जाते हैं । सर्वोच्च आंधकारी से भला कौन पंगा ले । अधिकाधिक

उप और सहायक तो

'इफ कीजिए न बट कीजिए,

जो साहब कहें उसे झट कीजिए'

फॉर्मूले के पक्षधर होते

हैं । बॉस को नाराज करके आफत कौन मोल ले।जैसे कुछ विद्यार्थी

वर्ष भर पढ़ाई से जी चुरा कर मनमानी कार्यों में लगे रहते हैं और परीक्षा

की तिथि आते ही "काकचेष्टा बकोध्यानम्" वाली स्थिति में आ जाते

हैं, मार्च में ठीक वही स्थिति सरकारी कर्मचारियों/अधिकारियों की

होती है । ज्यादा माथापच्ची तो क्लर्क, किरानी और टाइपिस्टों को ही करनी पड़ती है, लेकिन मुख्य अधिकारी को कार्यालय में

समय से आने जाने के साथ कार्यालय में पूरा समय देना पड़ता

है । उनके लिए यही सजा हो जाती है । समय से सोना, समय से

खाना और समय से कार्यालय आना... वह अधिकारी ही क्या, जो समय का

मोहताज हो जाए । समय तो अधिकारी का मोहताज हुआ करता है,

जब जो चाहा किया। नेताओं की तरह चुनाव वाला कोई मामला तो

है नहीं कि भविष्य की चिंता में घुलें। एक बार आ गए तो "साठा

तब पाठा" कहावत चरितार्थ करके ही घर लौटना है।मार्च महीने की एक और खासियत है । यह आयकर,

वृत्तिकर, जलकर,संपत्तिकर आदि जितने प्रकार के कर

हैं, उन्हें साथ लेकर आता है। आपको कुछ नहीं करना है,विभागवाले आपके एकाउंट से स्वयं सब हिसाब कर लेंगे ।

पूंजीपतियों का इनकमटैक्स भले ही लाखों में बकाया हो, आपका

टैक्स वसूलने में कोई कोताही नहीं होगी ।मार्च महीने का यह वित्तीय प्रदूषण देश की हवाओं में घुल रहे वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण आदि से कम खतरनाक नहीं है। इसकी निगरानी के लिए भी एक अलग विभाग बनाने की जरूरत है।


सब ते कठिन जाति अवमाना


रासबिहारी पाण्डेय



जद्यपि जग दारुण दुख नाना।

सब तें कठिन जाति अवमाना।।

यद्यपि दुनिया में और भी अनेक दुख है़ं, लेकिन जाति का अपमान सबसे बढ़कर है। यदि किसी की जाति को हीन बता कर उस पर तंज किया जाए तो इससे बड़ा अपमान कुछ और नहीं हो सकता। जातिगत अपमान सिर्फ दलितों और पिछड़ों का ही नहीं होता, सवर्णों का भी खूब होता है। लालू यादव ने मु्ख्यमंत्री रहते हुए एक समय बिहार में नारा दिया था- भूरा बाल काटो,यानी भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला (कायस्थ) को काटकर,इनका वर्चस्व खत्म करके इन्हें सत्ता से बेदखल करो।लालू अपने हर भाषण में एक जुमला उछालते थे- सीता को चुराने वाला रावण किस जाति का था? जनता कहती थी- ब्राह्मण।इस पर उनका जवाब होता था- ऐसी घटिया हरकत करने वाले ब्राह्मणों का बहिष्कार करो।

समाज में जातिवाद का जहर घोलकर लालू यादव 15 साल तक सत्ता पर काबिज रहे लेकिन आज सारा परिदृश्य साफ हो गया है।दलितोत्थान के नाम पर चरवाहा विद्यालय खोलकर चारा घोटाला करने वाले लालू यादव समय के साथ बेनकाब हो गए।अदालत ने उनकी जालसाजियों के एवज में दंडित करते हुए उनके चुनाव लड़ने तक पर रोक लगा रखी है।मायावती ने सवर्णों के लिए किन किन शब्दों का प्रयोग किया है,यह सबको पता है।


हाल ही में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने 

रविदास जयंती पर एक गैर जिम्मेदार वक्तव्य दिया - जातियां भगवान ने नहीं, पंडितों ने बनाई हैं। पंडितों से उनका तात्पर्य ब्राह्मणों से है।इस बात का कोई तथ्यात्मक आधार नहीं है।यह विशुद्ध झूठ है जो पिछड़ी जातियों की सहानुभूति और वोट प्राप्त करने के लिए बोला गया है।


'जाति पांति पूछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई।'संत कवियों ने राज दरबारों से दूर रहकर भी साहित्य और संगीत का एक समृद्ध जीवन जिया और दुनिया के सामने यह आदर्श प्रस्तुत किया कि सिर्फ धन और पद ही

प्राप्ति की वस्तु नहीं है। रैदास,वाल्मीकि और वेदव्यास तीनों पिछड़ी जातियों से आते हैं मगर गौर से सोचिए क्या इन्हें  इनकी जातियों की वजह से याद किया जाता है या उनके विचारों के लिए याद किया जाता है?आज तो जाति के आधार पर आरक्षण मिल रहा है।कितने ही सवर्णों ने आरक्षण का लाभ लेने के लिए अपनी जाति बदलने की कोशिश की है और पकड़े गए हैं।सही मायने में दुनिया में दो ही जातियां हैं- एक अमीर और एक गरीब। साहित्य,कला और राजनीति का एक ही लक्ष्य होना चाहिए अमीरी और गरीबी की इस खाईं को पाटने का काम करे, न कि उसे और गहरा करे। जो लोग जाति और धर्म के नाम पर समाज को बांटते हैं वे मानवता के दुश्मन हैं।समाज में पहले से ही जातिगत भेदभाव चरम पर है। मुसलमानों में शिया और सुन्नी का विवाद अक्सर कत्लेआम तक आ जाता है। हिंदू सवर्णों में इतना वर्ग भेद है कि गोत्र और कुरी के आधार पर एक दूसरे को नीचा दिखाया जाता है। दलितों ने भी अपने स्तर पर अपनी ऊंचाई नीचाई बांट रखी है। हिंदुस्तान और पाकिस्तान का बंटवारा जाति/ धर्म के आधार पर ही हुआ था। अगर यह आधार विकास करने में सक्षम होता तो पाकिस्तान बहुत विकसित देश होता लेकिन आज  विश्व में उसकी सबसे खराब हालत है।  दलितों का खैरख़्वाह बनने के लिए उनके हित में काम करने की जरूरत है ,उनके मानसिक अंधकार को दूर करने के लिए उन्हें शिक्षित करने की जरूरत है, समाज के मुख्यधारा में लाने के लिए नक्सलवाद से उबारने की जरूरत है। उन्हेंपंडितों के खिलाफ भड़का कर कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है। किसी शायर ने क्या खूब कहा है -

अगर बुरा न लगे एक मशवरा है मेरा 

तुम अगर मान लो तो अच्छा है 

सबको पहचानना जरूरी नहीं 

खुद को पहचान लो तो अच्छा है।

हर सियासी पार्टी को अपनी सीमाएँ जान लेनी चाहिए,जनता अब इतनी नादान नहीं रह गई कि ऐसे जुमलों से अपना मत बदल ले।किसी की छवि बनने और बिगड़ने में एक लंबा वक्त लगता है।

गंगा

 १

देवता देख रहे नभ से जब गोमुख से गंगा निकली हैं ।

जोड़ खड़े कर संत महात्मा क्या कहिए छवि कैसी भली है।

शंख बजाते हैं आगे भगीरथ गंगा जी पीछे से ऐसे ढ़ली हैं।

जैसे कि गौरी गणेश को लेकर गोमुख से बंगाल चली हैं। 

लंबी औ चौड़ी कई नदियाँ पर गंगा के नीर का सानी नहीं है।

जो गंगा तट वास करे उस जैसा कोई सन्मानी नहीं है।

पूर्ण मनोरथ हों सबके गंगा सम कोई भी दानी नहीं है।

कृष्ण स्वयं कहते यह गीता में गंगा हूँ मैं ही ये पानी नहीं है।

कल्मषनाशी है, जीवनदाता है, मोक्षप्रदाता है, गंगा का पानी!

उज्ज्वल अमृत धार बहे, तिहुँ लोक को तारता गंगा का पानी।

रोग औ शोक को दूर करें, जलरूप में औषधि गंगा का पानी

बासी न होता कभी तुलसीदल बासी न हो कभी गंगा का पानी।

गीता, गणेश, गायत्री गऊ और गंगा जी हैं पंचप्राण कहाये।

संस्कृति औ संस्कार सभी इन पाँचों में भारत के हैं समाये।

वेद समाये मनुस्मृति में और विष्णु में हैं सब देव समाये ।

शास्त्र समाये हुये सब गीता में गंगा में तीरथ सारे समाये।

पातक ध्वंस समस्त करे और लोक तथा परलोक सँवारे।

जीवन मृत्यु जुड़ी हुई दोनों से ऐसे जुड़े संस्कार हमारे।

भारतभूमि में हैं बसते हम साध यही मन की है हमारे ।

जन्म कहीं पर होवे भले पर आखिरी कर्म हो गंगा किनारे।

काव्य पे रीझ गये जिनके शिव जी उगना बने सेवक आई।

वे विद्यापति गंगा के भक्त थे भक्ति रही उनकी जग छाई।

अंत समय मुझे दर्शन दो कवि ने जब गंगा से टेर लगाई।

मीलों से धारा को मोड़ के गंगा जी पास स्वयं बहती चली आई।

- रासबिहारी पाण्डेय


अवसाद का आनंद-प्रसाद की सुचिंतित जीवनी

 

रासबिहारी पाण्डेय


रजा फ़ाउंडेशन और सेतु प्रकाशन के सह प्रकाशन में छपी सत्यदेव त्रिपाठी लिखित 'अवसाद का आनंद' सिर्फ जयशंकर प्रसाद की जीवनी नहीं बल्कि उनके व्यक्तित्व और वाड़्मय का एक समीक्षात्मक अध्ययन भी है।भाषा में तत्सम, तद्भव और देशज शब्दों की भरपूर रवानी है।प्रसंगों के अनुकूल लोकोक्तियों, सूक्तियों और मुहावरों का भी अच्छा खासा समावेश है। प्रसाद जी की यह जीवनी पुस्तक पाँच अध्यायों में विभक्त है। सभी अध्यायों के शीर्षक प्रसाद जी की कविता पंक्तियों से उद्धृत हैं और पूरी पृष्ठभूमि को व्यक्त करते है।पहला अध्याय है- 'तुम्हारा मुक्तामय उपहार' जिसमें प्रसाद जी की कुल परंपरा का विश्लेषण है।प्रसाद को पूर्वजों से क्या मिला और प्रसाद ने उस कुल को क्या दिया,इसकी पड़ताल की गई है। सातवीं शताब्दी में हर्ष के दरबार में उनके पूर्वज थे। तब से प्रसाद जी के काल तक की विस्तार से विवेचना है।दूसरे अध्याय 'बीती बातें कुछ मर्म कथा' में प्रसाद जी के साहित्य और जीवन के समानांतर विकास की चर्चा है। कई विधाओं को एक साथ उन्होंने कैसे साधा, इस पर विस्तृत बात की गई है।तीसरे अध्याय 'तरुण तपस्वी सा वह बैठा साधन करता सुर श्मशान' में प्रसाद जी के व्यक्तित्व को सोदाहरण पुष्ट किया गया है।  उनके जीवन की कतिपय घटनाओं के आलोक में उनके चरित्र को समझने की कोशिश की गई है। चौथे अध्याय 'उसकी स्मृति पाथेय बनी' में प्रसाद जी की कृति 'आँसू' की नायिका के साथ-साथ प्रसाद जी के जीवन में जितनी नायिकाएं आई हैं, उनकी विशद चर्चा है। नाचने गाने वालियों के मोहल्ले के पास दुकान होने के कारण  प्रसाद जी के बारे में जो भ्रांतियां फैलाई गई हैं, उनका तथ्यात्मक ढंग से निराकरण किया गया है।पांचवें अध्याय 'मृत्यु अरी चिर निद्रे तेरा अंक हिमानी सा शीतल'में प्रसाद जी की मृत्यु और बीमारी का मार्मिक वर्णन है। इस अध्याय में उनकी बीमारी साहित्यिक गुटबंदी और दाह संस्कार के बहाने दुनियादारी की अच्छी खासी पड़ताल है। एक विशेष परिशिष्ट प्रसाद जी की चयनित कविताओं और समकालीन रचनाकारों से पत्राचार का भी है।पुस्तक में प्रसाद के व्यक्तित्व कृतित्व के साथ-साथ जीवन के ढेर सारे उन पहलुओं की भी चर्चा की गई है जिससे अधिकांश हिंदी पाठक अनजान हैं।

 उनमें से कुछ घटनाओं का जिक्र करना समीचीन होगा।

 जयशंकर प्रसाद ने अपनी किसी भी पुस्तक की भूमिका किसी समकालीन या पूर्ववर्ती रचनाकार से नहीं लिखवाई और बहुत चिरौरी मिनती के बावजूद आजीवन स्वयं भी किसी अन्य कवि लेखक के पुस्तक की भूमिका नहीं लिखी। वे कवि सम्मेलनों में जाने से कतराते थे। गोष्ठियों में भी जब तक उनके आत्मीय लोग नहीं होते थे, वे कविता पाठ से बचते थे। प्रेमचंद द्वारा निकाली गई पत्रिका हंस का नामकरण उन्होंने ही किया था।

प्रसाद जी प्रतिदिन श्रीमद्भगवद्गीता के संपूर्ण पाठ के बाद ही अन्न जल ग्रहण करते थे।

शिवरात्रि के दिन वे पूरी आस्था के साथ व्रत रखते हुए शिव पूजा में समय व्यतीत करते।गले में बड़े मनकों वाले रुद्राक्ष की माला पहने शिव स्तोत्र का पाठ करते हुए प्रसाद जी बड़े दिव्य और भव्य लगते।वे अपने हाथों से शिव का श्रृंगार करते,अभिषेक करते और मस्तक पर महाकाल का भस्म प्रसाद धारण करते। शिवालय से उनका लगाव इतना प्रगाढ़ था कि कामायनी का आमुख और कुछ अन्य छंद वहीं बैठ कर लिखे गए। प्रसाद जी को नगर में या गंगा तट पर देखकर काशी निवासी हर हर महादेव का उद्घोष करते। यह सम्मान काशी में एकमात्र काशी नरेश को ही प्राप्त था।क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद को अंग्रेजों से बचाने के लिए उन्होंने कुछ समय तक अपने काली महल के मकान के भूगर्भ में रहने की ब्यवस्था की और उनकी सेवा में संतू नाम का एक नौकर भी रखा था।

स्वयं अपनी कविताओं की व्याख्या उन्होंने कभी नहीं की,कभी कोई छात्र उनसे इस निमित्त मिला भी तो उन्होंने बहुत विनम्रता से यह कह दिया कि पता नहीं किस भाव दशा में मैंने ये पंक्तियां लिखी थीं, अब उसको बता पाना असंभव है, इसलिए बेहतर होगा कि तुम अपने अध्यापक से ही इसे समझो। एक बार महावीर प्रसाद द्विवेदी ने कविता के बारे में प्रसाद जी को लंबा उपदेश दिया, यह बात उन्हें खल गई और उन्होंने महावीर प्रसाद द्विवेदी के संपादन में निकलने वाली पत्रिका सरस्वती में कभी रचनाएं नहीं भेजी।हालांकि महावीर प्रसाद द्विवेदी से उनका मिलना जुलना पूर्ववत् रहा।कामायनी का लज्जा सर्ग सुनकर द्विवेदी जी की आँखें भर आई थीं।

पहलवानी और वर्जिश प्रसाद जी का शौक था।वेअखाड़े में प्रतिदिन हजारों दंड बैठक करते और दही,दूध,घी वाली अच्छी खुराक लेते।

प्रसाद जी को मात्र ४७ वर्ष की अल्पायु मिली, लेकिन इसी अल्पायु में पारंपरिक व्यवसाय को सम्हालते हुए उन्होंने विपुल साहित्य सृजन किया।

पुस्तक में प्रसाद जी के जीवन को क्रमवार समझने के लिए दो-तीन पेज की संक्षिप्त जीवनवृत्त

की कमी खटकती है।


शिव तांडव स्तोत्र(हिंदी अनुवाद)


जटा के वन से गिर रहे गंग धार से पवित्र 

कंठ में लटक रहे भुजंग हार हैं विचित्र 

डमड् डमड् डमड् निनाद मंडित प्रचंड रूप 

में किया जिन्होंने नृत्य तांडव अजब अनूप।


दयालु हों कृपालु हों कराल महाकाल शिव!

जटा कड़ाह वेगवती देवनदी की तरंग 

लहराती शीश पर चंचल लता सी गंग 

चमक रहा ललाट जैसे अग्नि  प्रज्वलित

जिनके शीश है किशोर चंद्रमा विराजित


उनमें नित नवीन मेरा राग अनुराग हो...


दयालु हों कृपालु हों कराल महाकाल शिव!


गिरिजा आभूषण से दस दिशा प्रकाशित 

जिनका मन देख देख हो रहा है पुलकि

कृपा दृष्टि से जिनकी मिटती दारुण विपत्ति 

वे शिव कब करेंगे मेरा मन आनंदित!

दयालु हों कृपालु हों कराल महाकाल शिव!


जटा भुजंग फण के मणि पिंगल प्रकाशमान 

दिशा देवियों के मुख कुंकुम करें प्रदान 

मदमस्त गज चर्म धारण से स्निग्ध वर्ण अद्भुत छवि भूतनाथ को है मेरा प्रणाम।

दयालु हों कृपालु हों कराल महाकाल शिव!

इंद्रादि देव चरणों में शीश जब नवाएं 

पुष्प रज से धूमिल हों शिव की पादुकाएं 

शेषनाग हार से बंधी हुई जटा वाले 

शशिशेखर चिर संपत्ति दें यही मनाएं।


भाल वेदी अग्नि से भस्म किया काम को 

झुकते हैं इंद्र नित्य ही जिन्हें प्रणाम को

महादेव शिव हमको अक्षय संपत्ति दें

सुधा कांति चंद्र संग धारें मुंडमाल को

दयालु हों कृपालु हों कराल महाकाल शिव!

काम को हवन किया कराल भाल ज्वाल में 

गिरिजा कुच अग्रभाग चित्रकृति काल में 

एकमात्र चित्रकार हैं जो इतने निपुण

नित नवीन रति मेरी बढ़े महाकाल में

दयालु हों कृपालु हों कराल महाकाल शिव!


कंठ जिनका है नवीन मेघ से घिरा हुआ अमावस के अंधकार सी है जिसमें श्यामता 

गज चर्म पहनें जो शीश धारें चंद्रमा

गंगाधर शिव दें मुझको अपार संपदा।

दयालु हों कृपालु हों कराल महाकाल शिव!


प्रफुल्ल नील कमल श्याम प्रभा भूषित 

कंठ देश की शोभा अद्वितीय अद्भुत अंधक गजासुर यमराज औ त्रिपुर के 

जो हैं संहारक शिव हों हमसे प्रमुदित।

दयालु हों कृपालु हों कराल महाकाल शिव!

१०

पार्वती कला कदंब मंजरी रस के मधुप 

मकरंद माधुरी पी रहे सहज स्वरूप 

कामदेव अंधक त्रिपुर गजासुर हंता

दक्षयज्ञ नाशक, यम के यम हैं शिव अनूप।

दयालु हों कृपालु हों कराल महाकाल शिव!


११


माथे पर वेगपूर्ण सर्प की फुंकार से 

भाल अग्नि फैल रही विकराल ज्वार में

धिमि धिमि मृदंग घोष पर करें जो तांडव 

मेरा अनुराग बढ़े शिव महाकाल में


१२

तृण हो या तरुणी, सेज हो या शिला 

रत्न हो या मिट्टी , सर्प हो या मुक्ता 

प्रजा या महीप, मित्र शत्रु को विचारे बिन 

सबको समान मान शिव को कब भजूंगा मैं..

दयालु हों कृपालु हों कराल महाकाल शिव!


१३

गंगा तट के निकुंज में निवास करते हुए

त्याग कर बुरे विचार भालचंद्र भजते हुए 

कर जोड़े शीश पर डबडबायी आंखों से 

कब सुखी बनूंगा मैं शिव मंत्र जपते हुए।


१४

पाठ स्मरण वर्णन नित्य यह जो करता है 

शुद्ध सदा रहता शिव भक्ति प्राप्त करता है 

मनुज की विपत्ति हरे सद्गति मिले उसे 

शिव चिंतन माया और मोह नष्ट करता है...

- रासबिहारी पाण्डेय


कि तख्ते दिल्ली पे बैठा मिला फकीर कोई.

 नहीं इतिहास में ऐसी मिली नज़ीर कोई

कि तख्ते दिल्ली पे बैठा मिला फकीर कोई.


श्याम बाहों में भरें खुद ही लिपट जाते हैं 

देख लेते हैं अगर मीरा सा अधीर कोई.


गालियाँ दे रहा हो फिर भी लोग पाँव छुये

हुआ वो एक ही न दूसरा कबीर कोई.


अना का मोल बता देते हैं हम ही वर्ना

खरीद सकता नहीं कितना भी अमीर कोई.


कि जिस हिसाब से रीढ़ें निकल रही हैं यहाँ

किसी के पास बचेगा नहीं जमीर कोई.


रासबिहारी पाण्डेय


सफोकेसन

  निठल्ले घूम रहे युवकों के लिए सुरेंद्र सुकुमार की यह कविता अवश्य पढ़नी चाहिए....


" सफोकेशन " 

बात थोड़ी पुरानी है

प्यार की कहानी है

कड़कड़ाती ठंड की

शाम थी

हवा जवान थी

हमें कवि सम्मेलन में

जाना था

वहाँ काव्यपाठ 

जमाना था

रेल वहीं से चलती थी

समय काफ़ी था

पूरा डिब्बा खाली था

सो रेल के डिब्बे में

खिड़की के सहारे 

बैठ गए

सर्दी में ऐंठ गए

ठंड से दाँत 

किटकिटाने लगे

हमें रजाई गद्दे बहुत

याद आने लगे

हमने अटैची में से 

शाल निकाला 

तो चौंक गए

जल्दवाजी पत्नी का

कामदार शॉल ले आए थे

उस दिन हम

बहुत शरमाए थे 

मरता क्या न करता 

उसी शॉल से 

अपने आप को मुंह तक 

लपेट लिया

बस हमारे 

लंबे घुँघराले बाल 

हवा के लहरा रहे थे

बहुत इठला रहे थे

तभी अचानक 

एक लड़का 

हमारे डिब्बे में आया

हमें अकेला देख कर

बहुत मुस्कुराया

हमारे सामने वाली

सीट पर बैठ कर

फिल्मी पत्रिका 

पढ़ने लगा 

और पत्रिका की 

आड़ से हमें देखने लगा

तब हमारी 

समझ में आया कि

बरखुरदार लेडीज 

शॉल में भटक गए हैं

हमारे घुँघराले 

बालों में अटक गए हैं

फिर उसने परिचय 

करने के लिए

बातचीत शुरू की

आज बहुत सर्दी है

हवा जवान हो गई है

मौसम हसीन है

बहुत ही रंगीन है

अकेली जा रही हैं क्या ?

हमने स्वीकार में सर 

हिलाया

उसे बहुत मज़ा आया 

हमने भी मज़ा 

लेने के लिए उसकी 

गलतफहमी को बनाए 

रखने के लिए

 और अपनी आँखों से

नशीले अंदाज़ से उसे देखा 

शरीर हल्का सा

खिसकाया

वो हमसे पत्रिका 

पढ़ने की ज़िद करने लगा

लीजिए लीजिए

पढ़िए बहुत अच्छी 

लवस्टोरी है

माधुरी दीक्षित 

के दिल की चोरी है

हमने नकारात्मक 

अंदाज़ में सर हिलाया 

उसे थोड़ा गुस्सा आया 

फिर उसने 

पत्रिका को अपने 

आँखों सामने कर लिया

और हमारे सामने 

एक कामुक सा 

सीन कर दिया

हमारा दिल घबराने लगा 

वो अपने 

सीधे पैर का 

पँजा धीरे धीरे

हमारे पँजे की ओर

बढ़ाने लगा

देखते देखते उसका

पँजा हमारे पँजे के

ऊपर आ गया

हमारा कलेजा मुंह

तक आ गया

फिर उसने धीरे से

अपने पँजे का 

दवाब हमारे पँजे पर 

बढाया

हमने भी अपना 

पंजा धीरे से ऊपर

उठाया 

अब तो वो कल्पना में 

बहने लगा

हमें अपने पास 

बैठने को कहने लगा 

और पत्रिका पढ़ने 

की ज़िद करने लगा

अब तो हम सचमुच ही 

डर गए

खाली डिब्बा 

रात का सन्नटा 

बंद खिड़की 

बंद दरवाजा

हमने सोचा थोड़ी देर 

अगर हम यूँही चुप

बैठे रहे तो आज

हमारा सबकुछ लुट

जाएगा और कोई

जान भी नहीं पाएगा

हमने झटपट 

अपने चेहरे से 

शॉल हटाया 

और अपनी मूँछों पर

हाथ फिराया

ज्यादा ज़िद करते हो

तो लाओ पड़ लेते हैं

आपकी बात भी रख

लेते हैं

अब तो वो बहुत घबराया

आसमान से 

जमीन पर आया

सर्दी में पसीने आने लगे 

पैर थरथराने लगे

यहाँ बहुत सफोकेशन है

यहाँ बहुत सफोकेशन है

कह कर जाने के लिए 

जैसे ही ब्रीफकेस थामा

तभी हमने उसका 

हाथ थामा 

हमने कहा

अभी तो बहुत कम 

सफोकेशन है

जब डिग्रियों से भरा 

ब्रीफकेस लेकर 

नेताओं अधकारियों 

और दलालों के पास 

जाओगे 

अपने अंदर बहुत 

सफोकेशन पाओगे 

इसलिए ये 

लवस्टोरी भूल जाओ

और पढ़ाई मन लगाओ


😊😊😊😊  सुरेन्द्र सुकुमार

शुक्रवार, 26 सितंबर 2025

बिहार चुनाव और महाठगबंधन




 कंस की मृत्यु के पश्चात उसका ससुर जरासन्ध बहुत ही क्रोधित था,

उसने कृष्ण व बलराम को मारने हेतु मथुरा पर 17 बार आक्रमण किया!


प्रत्येक पराजय के बाद वह अपने विचारों का समर्थंन करने वाले तमाम राजाओं से सम्पर्क करता और उनसे महागठबंधन बनाता और मथुरा पर हमला करता था


और श्री कृष्ण पूरी सेना को मार देते,मात्र जरासन्ध को ही छोड़ देते...

यह सब देख श्री बलराम जी बहुत क्रोधित हुये और श्री कृष्णजी से कहा... 

बार-बार जरासन्ध हारने के बाद पृथ्वी के कोनों कोनों से दुष्टों के साथ महागठबंधन कर हम पर आक्रमण कर रहा है और तुम पूरी सेना को मार देते हो किन्तु असली खुराफात करने वाले को ही छोड़ दे रहे हो...??


तब हंसते हुए श्री कृष्ण ने बलराम जी को समझाया...


हे भ्राताश्री मैं जरासन्ध को बार बार जानबूझकर इसलिए छोड़ दे रहा हूँ कि ये जरासन्ध पूरी पृथ्वी के दुष्टों को खोजकर उनके साथ महागठबंधन करता है और मेरे पास लाता है और मैं बहुत ही आसानी से एक ही जगह रहकर धरती के सभी दुष्टों को मार दे रहा हूँ नहीं तो मुझे इन दुष्टों को मारने के लिए पूरी पृथ्वी का चक्कर लगाना पड़ता, 

और

बिल में से खोज-खोज कर निकाल निकाल कर मारना पड़ता और बहुत कष्ट झेलना पड़ता। 

"दुष्टदलन" का मेरा यह कार्य जरासन्धने बहुत आसान कर दिया है:"...

" जब सभी दुष्टों को मार लूंगा तो सबसे आखिरी में इसे भी खत्म कर ही दूंगा "आप चिन्ता न करे भ्राताश्री...👌🏻


इस कथा को बिहार चुनाव के महाठगबंधन से जोड़कर देखना है या नहीं यह आप पर निर्भर है । हमने तो आपको एक महाभारत की सत्य कथा बताई है ।

बुधवार, 10 सितंबर 2025

फल की चिंता मत करो...गीता में ऐसा नहीं लिखी

 कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि || 47||


कर्मणि एव अधिकार:ते = तुम्हारा सिर्फ  कर्म करने में हीअधिकार है ; 

मा फलेषु कदाचन- उसके फलों में कभी नहीं,

मा कर्मफलहेतु: भू: - कर्म के फलों का हेतु मत हो ,

मा भू: ते सड़्गो अस्तु अकर्मणि - कर्म न करने में भी तेरी आसक्ति न हो।


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्म करने में ही तेरा अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिये तू कर्मों के फल का हेतु मत हो और तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो ।


श्रीमद्भगवद्गीता के नाम पर दुनिया भर में सबसे अधिक यही श्लोक उद्धृत किया जाता है। भले ही कोई पूरे श्लोक को उद्धृत न कर पाए या इसका पूरा अर्थ न बता पाए लेकिन इतना तो सुना ही देगा- कर्मण्येवाधिकारस्ते ....कर्म करो,फल की चिंता मत करो।

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि कर्मण्येवाधिकारस्ते यानी सिर्फ कर्म में ही तुम्हारा अधिकार है। यहां कर्मणि एकवचन में है,अगर कहना होता कि कर्मों में ही तुम्हारा अधिकार है तो कहते कर्मसु एव अधिकार: ....इससे ज्ञात होता है कि भगवान श्रीकृष्ण एक समय में किसी एक ही कार्य को संपादित करने के बारे में कह रहे हैं यानी एकहि साधे सब सधे, सब साधे सब जाय।एक कर्म के अनेक फल हो सकते हैं-जैसे कोई छात्र अच्छी शिक्षा ग्रहण करता है तो वह एक  सभ्य नागरिक बनता है, समाज में सम्मान पाता है, अच्छी नौकरी मिलती है, अच्छा घर पाता है,अच्छे परिवार में उसका विवाह होता है, लेकिन अगर कोई छात्र पहले से ही इन सारे 

फलों के बारे में 

सोच कर पढ़ाई कर रहा हो तो अपेक्षित परीक्षा फल नहीं आने पर  वह अत्यंत दुखी हो जाएगा। कुछ छात्र इसी अवसाद में आत्महत्या तक कर लेते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण इसी फल की इच्छा का निषेध करते हैं।श्लोक के दूसरे चरण में वे तीन वाक्य कहते हैं -

मा फलेषु कदाचन ...

मा कर्म फल हेतु:भू:  ....

मा ते सड़्ग:अस्तु अकर्मणि..

यहां मा का अर्थ माँ नहीं मत है...


मा फलेषु कदाचन ...फलों को प्राप्त करने में तेरा अधिकार कभी नहीं है.

84 लाख योनियों में सिर्फ मनुष्य ही ऐसा है जो कर्म कर सकता है। पशु पक्षी पेड़ पौधे या अन्य जीव-जंतु कार्य करने में असमर्थ हैं, अन्य सभी योनियां भोग के लिए हैं। वे पूर्व जन्म के कर्मों के फल का भोग मात्र करते हैं, नया कर्म नहीं कर सकते,किंतु मनुष्य योनि में हर व्यक्ति अपने स्वभाव के अनुसार कोई न कोई कार्य करता है। शिक्षक पढाता है,सैनिक लड़ता है,किसान खेती करता है...इसी तरह भिन्न भिन्न लोग भिन्न भिन्न कार्य करते हैं।

मान लीजिए यदि शिक्षक यह सोचने लगे कि मेरे विद्यार्थी उत्तीर्ण होंगे कि नहीं...सैनिक यह सोचने लगे कि हम युद्ध जीतेंगे कि नहीं...किसान यह सोचने लगे कि क्या पता बरसात होगी कि नहीं...यदि वे इस द्वंद्व में पड़ जाएंगे तो अपना कार्य उचित ढंग से नहीं कर पाएंगे क्योंकि फल में उनका कभी अधिकार है ही नहीं।वे फल के बारे में नहीं सोचते इसीलिए अच्छा कर्म कर पाते हैं।

मा कर्म फल हेतु:भू: का तात्पर्य है कि कर्मफल का हेतु मत बनो... यानी यह मत मानो कि किसी कार्य के संपन्न होने का कारण मैं हूं... अगर तुम यह मानोगे कि मेरी वजह से ही यह कर्म हुआ है तो भी कभी तुम्हें अवसाद का सामना करना पड़ सकता है क्योंकि संसार में कभी-कभी ऐसा भी होता है कि किसी दूसरे के कार्य का श्रेय कोई दूसरा ले लेता है या ऐसा भी होता है कि कार्य करने वाले को उसका श्रेय दिया ही नहीं जाता।ऐसे में स्वयं को कर्म फल का हेतु समझकर नाहक दुखी होगे।

मा ते सड़्ग:अस्तु अकर्मणि...अर्थात् अपना कर्म करने से तुम्हें विमुख भी नहीं होना है क्योंकि स्वभाव और परिस्थिति के अनुसार जिसका जो कर्म है उससे उसे मुख नहीं मोड़ना चाहिए।

जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए कर्म करना आवश्यक है। भगवान अर्जुन को यह समझा रहे हैं कि तुम जो यह सोच रहे हो कि युद्ध करने पर ऐसा ऐसा हो जाएगा,यह ठीक नहीं है। तुम्हारा कर्म सिर्फ युद्ध करना है ,उसके फल के बारे में सोचना नहीं है। तुम यह भी मत सोचो कि तुम इसके हेतु हो और युद्ध करोगे ही नहीं, ऐसा भी नहीं हो सकता क्योंकि क्षत्रिय होने के नाते अन्याय के प्रति लड़ना तुम्हारा कर्म और धर्म दोनों है?


सोमवार, 8 सितंबर 2025

अक्षय तृतीया से जुड़ी कथायें

 अक्षय तृतीया से जुड़ी कथायें


रासबिहारी पाण्डेय


वैशाख मास में शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को अक्षय तृतीया के रूप में मनाया जाता है। ज्योतिषीय गणना के अनुसार सूर्य और चंद्रमा इस दिन उच्च फलदायक राशि में रहते हैं।इस तिथि से इतने पौराणिक संयोग जुटे हैं कि इसे स्वयं सिद्ध मुहूर्त मान लिया गया है, इसीलिए इस दिन लोग जीवन के विविध मांगलिक कार्यों का शुभारंभ करते हैं।विवाह, गृह प्रवेश,उपनयन संस्कार, सोने चांदी के आभूषण एवं वाहनों की खरीद तथा नए व्यापार की शुरुआत के लिए यह दिन अत्यंत शुभ माना गया है। इस दिन दान पुण्य का भी विशेष महत्व है। इस दिन को किए गए पुण्य कर्म व्यक्ति को अगले जन्म में कई गुना अधिक होकर मिलते हैं।यही नहीं यदि इस दिन कोई बुरा कार्य किया जाता है तो उसका भी कई गुना अधिक बुरा फल मिलता है और उसे नर्क में जाकर भोगना पड़ता है।

अक्षय शब्द का अर्थ होता है- न समाप्त होने वाला अर्थात् जिस तिथि में किए गए पुण्य कर्मों का फल कभी समाप्त न हो।अक्षय तृतीया उसी तिथि का नाम है। इस तिथि से कई कथाएं जुड़ी हुई हैं। आज ही के दिन भगवान विष्णु के छठे अवतार परशुराम जी की जयंती मनाई जाती है। शास्त्रों के अनुसार आज ही महर्षि वेदव्यास ने  महाभारत लिखना प्रारंभ किया और लेखन सहायक के रूप में मंगलमूर्ति गणेश को साथ रखा। इसी दिन द्रौपदी को अक्षय पात्र की प्राप्ति हुई थी। पांडवों के वनवास की अवधि में द्रोपदी को मिले इस पात्र की विशेषता यह थी कि जब तक द्रौपदी स्वयं नहीं खा लेती थी, इस पात्र से कितने भी लोगों को खिलाया जा सकता था। निर्धन सुदामा का द्वारकाधीश कृष्ण से मिलने और कृष्ण द्वारा दो लोकों की संपत्ति देने की कथा भी इसी तिथि से जुड़ी है।बंगाल में इस दिन व्यापारी अपने नए बही खाते की शुरुआत करते हैं।पंजाब के किसान इस दिन ब्रह्म मुहूर्त में खेतों पर जाते हैं और रास्ते में मिलने वाले पशु पक्षियों के मिलने पर आगामी मौसम को शुभ शगुन मानते हैं।   वैशाख मास में शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को अक्षय तृतीया के रूप में मनाया जाता है। ज्योतिषीय गणना के अनुसार सूर्य और चंद्रमा इस दिन उच्च फलदायक राशि में रहते हैं।इस तिथि से इतने पौराणिक संयोग जुटे हैं कि इसे स्वयं सिद्ध मुहूर्त मान लिया गया है, इसीलिए इस दिन लोग जीवन के विविध मांगलिक कार्यों का शुभारंभ करते हैं।विवाह, गृह प्रवेश,उपनयन संस्कार, सोने चांदी के आभूषण एवं वाहनों की खरीद तथा नए व्यापार की शुरुआत के लिए यह दिन अत्यंत शुभ माना गया है। इस दिन दान पुण्य का भी विशेष महत्व है। इस दिन को किए गए पुण्य कर्म व्यक्ति को अगले जन्म में कई गुना अधिक होकर मिलते हैं।यही नहीं यदि इस दिन कोई बुरा कार्य किया जाता है तो उसका भी कई गुना अधिक बुरा फल मिलता है और उसे नर्क में जाकर भोगना पड़ता है।

अक्षय शब्द का अर्थ होता है- न समाप्त होने वाला अर्थात् जिस तिथि में किए गए पुण्य कर्मों का फल कभी समाप्त न हो।अक्षय तृतीया उसी तिथि का नाम है। इस तिथि से कई कथाएं जुड़ी हुई हैं। आज ही के दिन भगवान विष्णु के छठे अवतार परशुराम जी की जयंती मनाई जाती है। शास्त्रों के अनुसार आज ही महर्षि वेदव्यास ने  महाभारत लिखना प्रारंभ किया और लेखन सहायक के रूप में मंगलमूर्ति गणेश को साथ रखा। इसी दिन द्रौपदी को अक्षय पात्र की प्राप्ति हुई थी। पांडवों के वनवास की अवधि में द्रोपदी को मिले इस पात्र की विशेषता यह थी कि जब तक द्रौपदी स्वयं नहीं खा लेती थी, इस पात्र से कितने भी लोगों को खिलाया जा सकता था। निर्धन सुदामा का द्वारकाधीश कृष्ण से मिलने और कृष्ण द्वारा दो लोकों की संपत्ति देने की कथा भी इसी तिथि से जुड़ी है।बंगाल में इस दिन व्यापारी अपने नए बही खाते की शुरुआत करते हैं।पंजाब के किसान इस दिन ब्रह्म मुहूर्त में खेतों पर जाते हैं और रास्ते में मिलने वाले पशु पक्षियों के मिलने पर आगामी मौसम को शुभ शगुन मानते हैं। इस दिन उड़ीसा के जगन्नाथपुरी में रथयात्रा भी निकाली जाती है। जैन धर्मावलंबी इस तिथि को अपने चौबीस तीर्थंकरों में से एक ऋषभदेव से जोड़कर देखते हैं। ऋषभदेव ने सांसारिक मोह माया त्याग कर अपने पुत्रों के बीच अपनी सारी संपत्ति बांट दी और संन्यस्त हो गए। बाद में वे सिद्ध संत आदिनाथ के रूप में जाने गए। इस दिन भगवान विष्णु और महालक्ष्मी की विशेष पूजा अर्चना की जाती है ,आज पूजन में उन्हें चावल चढ़ाने का विशेष महत्व है। अक्षय तृतीया को विवाह के लिए सबसे शुभ मुहूर्त माना जाता है। इस दिन हुए विवाहों में स्त्री पुरुष में प्रेम बना रहता है और संबंध विच्छेद/ तलाक आदि की स्थिति नहीं बनती। इसी दिन से त्रेता युग की शुरुआत भी मानी जाती है।

अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनं द्वयं।

परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनं।

अठारह पुराणों में महर्षि वेदव्यास ने निकष के रूप में दो ही बातें कही हैं- किसी पर उपकार करने से पुण्य मिलता है और किसी को कष्ट देने से पाप मिलता है।गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में यही बात कही है- 

परहित सरिस धर्म नहिं भाई।

परपीड़ा सम नहिं अधमाई।।

हमारे सभी पर्व त्यौहारों में प्रकारांतर से परोपकार और परहित की बात ही कही गई है।मनुष्य जीवन की सार्थकता इसी में है कि हम देश और समाज के  काम आ सकें।सिर्फ अपने लिए जिया तो क्या जिया!

जिसका कभी नाश नहीं होता है या जो स्थाई है, वही अक्षय कहलाता है। स्थाई वही रह सकता है, जो सर्वदा सत्य है। सत्य केवल परमपिता परमेश्वर ही हैं जो अक्षय, अखंड व सर्वव्यापक है। अक्षय तृतीया की तिथि ईश्वरीय तिथि है। इस बार यह तिथि 03 मई को है। अक्षय तृतीया का महात्म्य बताते हुए आचार्य पंडित धर्मेंद्रनाथ मिश्र ने कहा कि अक्षय तृतीया का दिन परशुरामजी का जन्मदिवस होने के कारण परशुराम तिथि भी कहलाती है। परशुराम जी की गिनती चिरंजीवी महात्माओं में की जाती है। इसलिए इस तिथि को चिरंजीवी तिथि भी कहते हैं।

आचार्य ने कहा कि भारतवर्ष धर्म-संस्कृति प्रधान देश है। खासकर हिंदू संस्कृति में व्रत और त्योहारों का विशेष महत्व है। क्योंकि व्रत एवं त्योहार नई प्रेरणा एवं स्फूर्ति का परिपोषण करते हैं। भारतीय मनीषियों द्वारा व्रत-पर्वों के आयोजन का उद्देश्य व्यक्ति एवं समाज को पथभ्रष्ट होने से बचाना है। आचार्य ने बताया कि अक्षय तृतीया तिथि को आखा तृतीया अथवा आखातीज भी कहते हैं। इसी तिथि को चारों धामों में से एक धाम भगवान बद्रीनारायण के पट खुलते हैं। साथ ही अक्षय तृतीया तिथि को ही वृंदावन में श्री बिहारी जी के चरणों के दर्शन वर्ष में एक बार होते हैं। इस दिन देश के कोने-कोने से श्रद्धालु बिहारी जी के चरण दर्शन के लिए वृंदावन पहुंचते हैं।

उन्होंने बताया कि भारतीय लोकमानस सदैव से ऋतु पर्व मनाता आ रहा है। अक्षय तृतीया का पर्व बसंत और ग्रीष्म के संधिकाल का महोत्सव है। इस तिथि में गंगा स्नान, पितरों का तिल व जल से तर्पण और पिंडदान भी पूर्ण विश्वास से किया जाता है जिसका फल भी अक्षय होता है। इस तिथि की गणना युगादि तिथियों में होती है। क्योंकि सतयुग का कल्पभेद से त्रेतायुग का आरंभ इसी तिथि से हुआ है।